देश में चुनाव करा सकते हैं लेकिन छात्रों की चरणबद्ध परीक्षा के लिए सुरक्षित इंतजाम नहीं।
मोदी के सातसाल, झटके पे झटका और विकट अट्टहास। 

अशोक कुमार कौशिक 

आप फिर कहेंगे की कुछ लोगों को तो बस मोदी का विरोध करना है। 10वीं और 12वीं की परीक्षाएं रद्द करना पहली नजर में एक अच्छा फैसला लगता है लेकिन इसके जो दुष्परिणाम होंगे उसको पूरी एक पीढ़ी भुगतेगी। जरा सोचिए जिन छात्रों ने साल भर मेहनत की और जिनको फेल हो जाना था, अब सब एक बराबर हैं । इसे ही कहते हैं अंधेर नगरी चौपट राजा। 

देश का बचा-खुचा तिया-पांचा करने के लिए शिक्षा व्यवस्था का सत्यानाश किया जा रहा है। पिछले 2 साल से करोड़ों बच्चों की लिखाई-पढ़ाई बंद है। परीक्षाएं रोक दी गई हैं। उच्च शिक्षण संस्थाओं को विशेष विचारधारा में ढालने के प्रयास जारी हैं। देश का इतिहास बदलने की कोशिश हो रही है। बहुत कुछ उलट-पुलट करने का इरादा दिखाई देता है। करोड़ों विद्यार्थियों का भविष्य तहस-नहस करने की भूमिका प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल की 12वीं की परीक्षा रद्द करने की घोषणा करते हुए निभा दी है। मोदी सरकार के राज में शिक्षा की हालत देखकर यही लगता है कि जानबूझकर एक पूरी पीढ़ी को मानसिक रूप से अपंग बनाने का काम हो रहा है।

 एक विश्वगुरु देश और पूर्ण बहुमत की बाहुबली मार्का सरकार एक सुपरमैन टाइप पीएम मिल कर पूरे देश में चुनाव करा सकते हैं लेकिन दस लाख से कुछ कम छात्रों की चरणबद्ध परीक्षा के लिए सुरक्षित इंतजाम नहीं कर सकते। जरा सोचिए कितनी अक्षम और नकारा लोग बैठे हैं सत्ता के शीर्ष पर। लेकिन ऐसा नहीं है सरकार चाहती तो ये परीक्षाएं सफलता पूर्वक संपन्न हो सकती थीं। लेकिन सरकार को छात्रों से ज्यादा अपने भविष्य की चिंता है और उसका भविष्य पहली बार मतदाता बने वोटर में हैं। हर साल 18 वर्ष पूरे करने वाले मतदाताओं की संख्या हर साल इंटर और हाईस्कूल के परीक्षार्थियों की संख्या के समानुपात होती है।

 सभी जानते हैं मेघावी छात्रों के मुकाबले औसत और कमज़ोर छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा होती हैं। इन्हीं औसत और कमज़ोर छात्रों की तमन्ना पूरी करके सरकार ने उनको खुश करने का प्रयास किया है और इसका सुफल वोटों की बारिश के तौर पर मिलेगा। सरकार के तौर पर एक और विफलता राजनीतिक पार्टी के तौर पर एक बड़ी सफलता लिखने की कवायद से ज्यादा कुछ नहीं है परीक्षाएं रद्द करने का फैसला।

हाल ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के यशस्वी कार्यकाल की सातवीं सालगिरह मनाई गई। सत्तारूढ़ भाजपा के पास इसके अलावा और कुछ कहने के लिए नहीं है कि देश में एक मजबूत प्रधानमंत्री है, जिससे सभी डरते हैं। मोदी है तो मुमकिन है। उन्होंने कई कार्य हंसते-हंसते, अन्य लोगों की खिल्ली उड़ाते हुए, बगैर मंत्रियों से सलाह लिए कर दिखाए हैं, जिसका पूरी दुनिया लोहा मान रही है। सबसे ज्यादा वे लोग खुश हैं, जो भारत की आर्थिक तरक्की से जलते थे। मोदी ने सात साल में एक के बाद एक ऐसे झटके दिए कि अब सब कुछ ध्वस्त पड़ा हुआ है। इसके बावजूद अट्टहास जारी है। 

मोदी ने सबसे पहले स्वच्छता अभियान के नाम पर शौचालय क्रांति का दावा किया। उसके बाद नोटबंदी करके देश का सारा काला धन एक झटके में समाप्त करने की डींग हांकते हुए अचानक पांच सौ और एक हजार रुपए के सभी नोट रद्दी घोषित कर दिए। नए नोट छपे। नोटबंदी के बाद मची अफरातफरी में बैंकिंग व्यवस्था पर असर पड़ा। इस बीच नई करेंसी के दम पर भाजपा ने उत्तर प्रदेश का चुनाव अपार बहुमत से जीता और फिर जीएसटी लगा दिया गया। असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोगों की जिंदगी दाव पर लग गई। 

अर्थव्यवस्था बिगड़ने से चुनाव जीतने में रुकावट न आ जाए, इसके लिए सेना का उपयोग कर लिया। पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर आतंकी हमला हुआ और भारत ने तत्काल पाकिस्तान के इलाके में कुछ बम पटक दिए। आतंकियों के अड्डे खत्म करने का प्रचार हुआ और भाजपा ने पहले से ज्यादा बहुमत से लोकसभा चुनाव जीत लिया। दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीतने के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटा दी और राज्य के तीन हिस्से कर दिए। इसके साथ ही नागरिकता संशोधन विधेयक और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का मुद्दा तरीके से उछाला गया। जिसमें – देश के इन गद्दारों को, गोली मारों सालों को – नारा लगा। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी को विवाद के केंद्र में लाया गया। इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी बड़ी भूमिका निभाई। 

एनआरसी और सीएए के नाम पर हंगामा करने के बावजूद जब दिल्ली विधानसभा का चुनाव भाजपा नहीं जीत सकी तो फरवरी 2020 में दिल्ली के एक हिस्से में दंगे हुए। कई लोग मरे। उसके बाद कोरोना महामारी घोषित हुई और मोदी ने लोगों को महामारी से बचाने की बचाय अपनी राजनीतिक पोजीशन मजबूत करने में उसका उपयोग किया। महामारी के दौरान पत्रकारों पर लगाम कसने की योजना बनी, किसानों की जमीनों और उपज पर कुछ व्यापारियों का कब्जा करवाने के कानून बने, कामगारों को गुलामी की तरफ धकेलने वाले कानून बना दिए गए। नया संसद भवन, नया प्रधानमंत्री निवास, नया उप राष्ट्रपति निवास बनाने की योजना बन गई। ये सारे काम बहुत तेजी से हुए। 

बिना सोचे समझे, विदेशी ताकतों के इशारे पर सिर्फ डॉलर कमाने के इरादे से लॉकडाउन लगाया गया। लॉकडाउन के गंभीर सामाजिक प्रभाव पड़े। करोड़ों मजदूरों का शहरों से गांवों की तरफ पलायन हुआ। महामारी के दौरान लोगों ने पुलिस की नई भूमिका देखी। मास्क नहीं लगाने वालों से करोड़ों रुपए वसूल लिए गए और यह सिलसिला अभी भी जारी है। 2020 में जुलाई-अगस्त के बाद लोग संभल ही रहे थे कि अप्रैल 2021 में कोविड की दूसरी लहर आ गई। यह पहले से खतरनाक थी और इससे निबटने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी गई। इसमें मेडिकल कारोबार का विकराल रूप सामने आया। बड़ी संख्या में लोग मरे। गंगा में शव बहते देखे गए। तमाम शहरों के श्मशानों में कई दिनों तक अनवरत चिताएं जलती देखी गई। 

अर्थव्यवस्था के बाद सामाजिक व्यवस्था तहस-नहस करने की कोशिश हुई। न्यायपालिका का पक्षपात भी नजर आया। सुप्रीम कोर्ट में तमाम फैसले मोदी सरकार के पक्ष में होते हुए दिखे और कुछ जजों को रिटायरमेंट के बाद पुरस्कार मिला। चुनाव आयोग की भूमिका लोग देख ही रहे हैं। सीएजी, रिजर्व बैंक, सूचना आयोग, सीबीआई आदि की हालत दिख ही रही है। अब देश एक ऐसे मुकाम पर है, जहां आगे का रास्ता किसी को समझ में नहीं आ रहा है। मोदी सरकार ने ऐसा वातावरण बना दिया है कि कोई भी साधारण व्यक्ति एक नागरिक के रूप में देश हित में काम नहीं कर सकता। इतने आदेश और नियम लागू कर दिए गए हैं कि किसी के लिए अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करने की गुंजाइश ही नहीं बची है। 

जो लोग थोड़े संपन्न हैं, वे भारत छोड़कर किसी अन्य देश में जाकर बसने के लिए उतावले हैं। पिछले 7 वर्षों में लाखों की संख्या में भारतीय अन्य देशों में चले गए हैं। मोदी को अपनी सरकार बनाए रखने के लिए ऐसी प्रजा की जरूरत है, जो उनके भाषण पूरे भक्ति-भाव से सुनती रहे और उन्हें वोट देती रहे। बदले में वे समय-समय पर कुछ सौ रुपए और जैसे-तैसे पेट भर जाए, इतना अनाज देते रहें। विपन्न और बुद्धिहीन लोगों की सांसें किसी तरह चलती रहें और उनकी सरकार मजबूत बनी रहे। क्या विश्व का विशाल लोकतंत्र कहलाने वाला भारत इसी दशा की तरफ बढ़ रहा है?

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