Bharat Sarathi
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आज के दौर में किसी पत्रकार के लिए अपने बारे में लिखना भी कोई कम चुनौती नहीं है। क्योंकि पत्रकारिता किसी सपनों के जहां का नक्शा खींचने जैसा नहीं है। पत्रकारिता एक सभ्यता है, जिसे गली, सड़क, चौराहों पर, पनवाड़ी की दुकान पर, अफ़सरों के एसी केबिन के बाहर धूप में बैठे दरबान की कुर्सी पर, कचहरी ज़ंग खाई अलमारियों में क़ैद फ़ाइलों पर जमी धूल पर, अस्पतालों में ज़मीन पर लेट कर डॉक्टर की बाट जोहते ग़रीब की चादर पर, नेताओं के घरों के बाहर भीड़ में रोज़ सबसे पीछे खड़े होने वाले बुज़ुर्ग की घिसी हुई चप्पल पर, सड़क पर टपरी लगाकर पान बीड़ी बेचने वाले लाचार की पुलिसिया लाठी के सामने निकलने वाली आह पर, थाने में सफ़ेद क़ानून के काले फ़ीते में फंसे फ़रियादियों की रुंधी हुई आवाज़ पर, चादर पर पड़े सिक्कों को गिन गिन कर भगवान को कोसने वाले भिखारी की हर साँस पर, चमचमाती तिजौरियों में तिकड़मों से जमा होने वाले माल पर और इमानदारी पर बिजलियाँ बरसाने वाली वक़्त की चाल पर, बरसों तपिश महसूस करने के बाद बनती है।
पत्रकारिता कोई जम्हूरियत का जमूरा नहीं है। पत्रकारिया किसी गुलज़ार महफ़िल का मायूस खिलौना नहीं है। पत्रकारिता भीड़ को गीदड़भभकी देने का नाम नहीं है। पत्रकारिता जुमलेबाज़ों की जमात की झूठन नहीं है। पत्रकारिता मदारियों और जादूगरों के सामने बिछी ज़री से जड़ी कोई जूती नहीं है। ना पत्रकारिता पर किसी वर्दी का रंग चढ़ता है, ना पत्रकारिता का सुर किसी भीड़ के संगीत का साज़ बनता है।
भारत सारथि एक ऐसा मंच है, जो दबे और दबाए जा रहे की आवाज़ है। भारत सारथि कुचले हुए और कुचले जा रहे की आवाज़ है। भारत सारथि सताए गए हर शख़्स की आवाज़ है। भारत सारथि ख़ामोश कर दिये गए भारतीय की आवाज़ है। भारत सारथि उन हिंदुस्तानियों की आवाज़ है जिन्हें 5 साल में केवल एक बार बोलने का मौक़ा दिया जाता है।
भारत सारथि समझ और तजुर्बे का ऐसा मेल है, जो ख़बर की तह तक पहुँचने के लिए ज़रूरी है। भारत सारथि गुरुग्राम के एक ऐसे पत्रकार का संकल्प है, जिसने गुड़गाँव को कई बार गुरुग्राम बनते देखा है। जिसने एक गाँव को शहर बनते देखा है। जिसने सिंगल लेन को हाईवे बनते देखा है। अर्श पर बैठे लोगों को फ़र्श पर धूल फांकते देखा है। सियासत के चक्रव्यूह में चकरी बनकर घूमते वादों को देखा है। कल्पनाओं की कलाकृतियों को अस्मिता के अस्तित्व का कलंक बनते देखा है। सरकारी सपनों के समंदर में प्यासों को बूंद बूंद के लिए तरसते देखा है। बंजर को खलिहान बनते और खेतों पर चट्टानें बनते देखा है। वक़्त की बेरुखी भी देखी है और कुदरत की बेबसी भी देखी है।
तक़रीबन तीन दशक का अरसा कम नहीं होता। चार नम्बर का बल्ला पकड़ कर गलियों में काँच तोड़ने वाली पीढ़ी माइक पकड़ कर सैटेलाइट तोड़ने लगती है। एक पीढ़ी देखते ही देखते वृद्धावस्था पेंशनधारियों की सूची में शामिल हो जाती है। सपने हकीकत का आसमान बना लेते हैं और कहानियों की ज़मीन पर ज़िम्मेदारियों की बहुमंज़िला इमारतें खड़ी हो जाती हैं। वो भी ऐसा वक़्त जब देश ने डर छोड़ कर हौसलों के पंख फैलाना शुरू किया हो। ज़रूरतें बदली हों, उम्मीदें बदली हों, खामोश जमात के हाथों में लाउड स्पीकर आए हों, आवाम के आंदोलनों ने इबारतें लिखी हों, सूरमाओं को मसल दिया गया हो, चींटियों की चील जैसी चोंच निकल आई हों, बड़े बड़े आधार वाले निराधार हुए हों और जन जन को आधार मिला हो।
लेकिन जिस सोच ने सच को ज़िंदा रखा और जिस कलम ने हर जज़्बात को आवाज़ दी। जो सोशल मीडिया पर हर पल उठने वाले तूफ़ान की लहरों की जद जानता है, जो सरकारी दफ़्तर के बाहर क़तार में खड़े बुज़ुर्ग के सब्र की हद भी जानता है। वही मंच है भारत सारथि।
ऋषि प्रकाश कौशिक
सम्पादक, भारत सारथि