विजय गर्ग

इन दिनों रील्स और उनके कंटेंट को लेकर लगातार चर्चा हो रही है। सोशल मीडिया पर रील्स देखना लोगों के लिए बेहद लोकप्रिय हो गया है। यह मनोरंजन का ऐसा माध्यम बन गया है जो किसी को भी घंटों तक मोबाइल स्क्रीन से जोड़े रख सकता है। लेकिन रील्स की यह दुनिया कितनी वास्तविक है और इसका प्रभाव समाज व साहित्य पर कैसा पड़ रहा है, इस पर विचार करना जरूरी है।
रील्स: सत्य या भ्रम?
रील्स के विषय इतने व्यापक हैं कि भविष्यवाणी से लेकर धन-संपत्ति के टोटकों तक हर चीज इसमें शामिल है। लोग नाम के आधार पर भविष्य बता रहे हैं, महिलाएं पति-पत्नी के संबंधों को सुधारने के उपाय सुझा रही हैं, तो कोई धन वृद्धि के लिए विशेष अंक लिखकर तिजोरी में रखने की सलाह दे रहा है।
इतना ही नहीं, स्वास्थ्य संबंधी तथ्यों को बिना वैज्ञानिक आधार के प्रस्तुत किया जा रहा है। बिजनेस करने के अनगिनत गुर सिखाए जा रहे हैं और जमाधन को दोगुना-तिगुना करने के नुस्खे बताए जा रहे हैं। देखने वालों को यह सब इतना रोचक लगता है कि वे घंटों मोबाइल से चिपके रहते हैं।
रील्स की दुनिया: मोहक या मायावी?
कई रील्स लोगों को बेहतर भविष्य, सुख-समृद्धि और धन प्राप्ति के सपने दिखाते हैं। लेकिन यह कितना वास्तविक है, इसकी कोई पुष्टि नहीं होती। किसी केस स्टडी या प्रमाणिक आंकड़ों के अभाव में यह कहना मुश्किल है कि इन नुस्खों से किसी को वास्तव में लाभ हुआ है।
रील्स और साहित्य: रचनात्मकता पर संकट
हाल के दिनों में कई ऐसे रील्स सामने आए हैं जिनमें सेलिब्रिटी कविताएँ पढ़ते नजर आते हैं, लेकिन उसमें मूल कवि का उल्लेख नहीं होता। डिस्क्रिप्शन में भले ही नाम लिखा जाता हो, लेकिन वीडियो में उसका जिक्र नहीं किया जाता। इसके परिणामस्वरूप, जब प्रशंसक इसे डाउनलोड कर पुनः साझा करते हैं, तो वह कविता सेलिब्रिटी के नाम से ही पहचानी जाने लगती है।
दिनकर जैसे प्रसिद्ध कवियों की कविताएँ पहचान ली जाती हैं, लेकिन नवोदित कवियों की रचनाएँ सेलिब्रिटी के नाम से वायरल होने लगती हैं। इस प्रकार, कई साहित्यिक प्रतिभाएँ कुंद हो रही हैं और उनकी मौलिकता पर संकट उत्पन्न हो रहा है।
बौद्धिक विमर्श की आवश्यकता
रील्स के माध्यम से पौराणिक ग्रंथों और ऐतिहासिक घटनाओं को संदर्भहीन रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, कालिदास और कुमारसंभव से जुड़ी मनगढ़ंत कहानियाँ सुनाई जा रही हैं, जिन्हें सुनकर नई पीढ़ी भ्रमित हो सकती है।
बौद्धिक समाज को इस पर गंभीर विमर्श करने की जरूरत है ताकि अनर्गल तथ्यों को रोका जा सके और साहित्यिक मूल्यों की रक्षा की जा सके।
सोशल मीडिया और साहित्यकारों की जिम्मेदारी
फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स ने पहले ही साहित्य, विशेष रूप से कविता के आलोचनात्मक मूल्यांकन को प्रभावित किया है। अब रील्स के प्रभाव में साहित्य और इतिहास के साथ छेड़छाड़ की जा रही है।
प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जैसे विद्वान वर्षों से इस बात पर जोर दे रहे हैं कि साहित्यकारों को इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय होना चाहिए। यदि साहित्यकार स्वयं इस प्लेटफॉर्म पर नहीं आएंगे, तो अनर्गल सामग्री का बोलबाला रहेगा और साहित्यिक गुणवत्ता पर संकट गहराता जाएगा।
निष्कर्ष
रील्स मनोरंजन का एक माध्यम हो सकता है, लेकिन जब यह साहित्य, इतिहास और संस्कृति को विकृत करने लगे, तब सतर्क रहना जरूरी हो जाता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए हो, न कि साहित्य और संस्कृति के क्षरण के लिए।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रिंसिपल हैं, मलोट, पंजाब)