सुरेश सिंह बैस “शाश्वत” 

रूद्र के ग्यारहवें अवतार पवन पुत्र हनुमान का जन्म पंचागानुसार चैत्र पूर्णिमा के दिन मंगलवार चित्र नक्षत्र व मेष लग्न के योग में हुआ था। ज्योतिषाचार्यों के गणना अनुसार हनुमान जी का जन्म अंठ्ठावन हजार एक सौ तेरह वर्ष पूर्व त्रेता युग में हुआ था। हनुमान जी ने वानर राज केसरी के यहां एवं माता अंजनी के गर्भ से जन्म लिया था। मित्रों अधिकांशतः लोगों को यह जानकारी नहीं होगी कि हनुमान जी के अलावा उनके पांच  सगे भाई और भी थे। अर्थात माता अंजनी और वानरराज केसरी के छह पुत्र थे।  सभी छह पुत्रों में हनुमान जी सबसे बड़े हैं। इन सभी भाईयों के नाम इस प्रकार हैं—मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, गतिमान और धृतिमान। वैसे महाभारत काल में हस्तिनापुर नरेश महाराज पाण्डु पुत्र भीम को भी हनुमान जी का ही भ्राता माना जाता है।

 इस पृथ्वी पर हिंदू मतानुसार केवल आठ व्यक्तियों को ही अमर माना गया है। इनमें से एक हनुमान जी भी है। इनके अलावा अस्वस्थामा, परशुराम , महाराजविभीषण, राजा महाबलि, वेद व्यास ऋषि, कृपाचार्य , एवं मार्कंडेय ऋषि -,ये सभी इस धरा में कहीं ना कहीं विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि जहां-जहां भी राम का नाम लिया जाता है रामायण, भागवत कथा कीर्तन कहे जाते हैं, वहां वहां हनुमानजी अन्यान्य रूपों में साक्षात विराजमान रहते हैं। हनुमान जी का आज भी गंधमादन पर्वत में निवास माना जाता है। इसी संदर्भ में एक बात  कहनी थी पाठकों, प्रायः लोग हनुमान जन्मोत्सव को हनुमान जयंती भी कहते हैं जो कि  अनुचित एवं गलत है। जयंती उनके लिए कहा जा सकता है जो इस लोक से  इहलीला समाप्त कर परलोक में विराजते हैं । हनुमान जी के जन्मदिवस को जयंती कह दिया जाता है। चूंकि  हनुमान जी तो अमर हैं, वे यही इस पृथ्वी पर विराजमान हैं, इसलिए उनके जन्मदिवस को जन्मोत्सव ही कहा जाएगा और यही उचित है।

       “रामचरितमानस” के रचयिता तुलसीदास जी के काल की घटना का वर्णन है कि, एक बार प्रसिद्ध तीर्थ स्थल चित्रकूट से उत्तर दिशा की ओर लगभग पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर नांदी गांव के पास गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी जन्मभूमि से रोजाना हनुमान जी की पूजा करने जाते थे। जबकि वह स्थान उनके निवास से करीब आठ किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। किंतु फिर भी तुलसीदास जी रोजाना वहां पैदल आकर अपनी आराधना संपूर्ण करते थे। एक रात्रि को हनुमान जी ने तुलसीदास को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि अपने निवास के पास मेरी स्थापना करके मेरी आराधना करो मैं तो मैं वहीं पर दर्शन दूंगा। वहां जाने की आवश्यकता नहीं है। तब तुलसीदास जी ने ठीक वैसा ही किया। उन्होंने स्वप्न के अनुसार गांव के बाहर एक स्थान को पवित्र करके मालवा गिरि चंदन को घिस करके उससे हनुमान जी की मूर्ति उत्कीर्ण की और उनकी आराधना करने लगे। तब हनुमान जी ने वहीं पर उन्हें दर्शन देकर तुलसीदास जी के मनोरथ को सफल किया था।      

 इस स्थान में एक और अद्भुत चमत्कार सुना जाता है। यहीं पर हनुमान जी की मूर्ति दक्षिणा मुख विराजमान है, वैसा कम ही देखने को मिलता है और इस मूर्ति का एक चरण पृथ्वी के अंदर तक प्रविष्ट है। एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने हनुमान जी के चरण की थाह लेने की इच्छा से वहां खुदाई करवाई। किंतु काफी गहरा खोदने के बाद भी जब चरण का अंत नहीं मिला तो आखिरकार वह थक हार कर खुदाई बंद करवा के वापस चला गया। तभी से इस स्थान की मान्यता और महत्वता और अधिक बढ़ गई।      

श्री राम जो साक्षात ईश्वरावतार हैं। उनका रावण के विरुद्ध महायुद्ध और लंका विजय में ऐसा माना जाता है की हनुमान के बिना असंभव और नामुमकिन होता। निश्चित ही भगवान श्री राम की लंका विजय में बहुत बड़ी भूमिका का निर्वहन हनुमान ने किया। वे इस युद्ध में श्री राम के साथ ना होते तो रावण के विरुद्ध युद्ध जीतना अत्यंत कठिन हो जाता। राम और रावण के बीच जब महायुद्ध चल रहा था तब हनुमान रावण की नगरी लंका गए थे, वहां के भेद जानने। भगवान राम ने उन्हें वहां अपना गुप्तचर और दूत बना कर भेजा था। तब हनुमान ने जब वहां के सारे भेद जान लिए। इसके पश्चात वह वहां से वापस लौटने का उपक्रम कर रहे थे तभी रावण के सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया  ,और उन्हें रावण के सामने राज दरबार में प्रस्तुत किया। रावण ने हनुमान को सजा के तौर पर उनके पूंछ पर आग लगा देने का आदेश दे दिया। तब हनुमान ने अपनी जलती पूंछ से पूरी लंका को ही जला डाला था। लंका दहन के पश्चात अग्नि की ज्वाला से ज्वलित हनुमान जी ने श्रीराम से अग्नि की ज्वाला को शांत करने के लिए उनसे स्मरण करते हुए निवेदन किया-       

–हे राघव मेरे पूरे शरीर में जलन व्याप्त है । हे राघव मेरी इस जलन और पीड़ा को शांत करिए। तब श्री राम ने उनकी पूछ के आग बुझाने और जलन की पीड़ा को शांत करने के लिए उपाय बताया और उन्हें पीड़ा से मुक्ति दिलाई। अब जबकि हनुमान जी की पूंछ की बात चल निकली है तो यह जान लें कि हनुमान जी के पूंछ पर माता पार्वती का वास माना जाता हैं। वह इसलिए कि, जो लंका में  सोने का महल था जिसमें रावण निवास करता था, वह दरअसल माता पार्वती के द्वारा शिव शंकर सहित अपने निवास के लिए कुबेर से कहकर बनवाया गया था। इस भव्य महल को जब रावण ने देखा तो उसकी नियत डोल गई। रावण ने सोचा ऐसा भव्य महल तो तीनों लोकों में कहीं भी नहीं है। और उसने छल से भगवान शंकर के पास दरिद्र ब्राह्मण का रूप लेकर दान में इस महल को मांग लिया। इस बात की जब माता पार्वती को जानकारी हुईं तो वह रावण पर बहुत कुपित हुई । उन्हें शांत करने के लिए भगवान शंकर ने उन्हें कहा कि– हे पार्वती त्रेता युग में जब  रावण के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर रही मानव जाति की रक्षा के लिए श्री हरि विष्णु के अवतार श्री राम के कार्य को सफल करने अर्थात श्रीलंका विजय और रावण के नाश के लिए मैं उनके सहयोगी रूप में वानर अवतार लूंगा। तब तुम उस समय मेरी पूंछ में रहना और रावण को सजा के रूप में उसके इस महल को भस्म कर देना।     

 साथियों प्रायः (हनुमानजी)  बजरंगबली की आपने जहां-जहां भी मूर्ति देखी होगी हर जगह सिंदूरी  और भगवा रंग में ही देखी होगी। लेकिन सारे विश्व में उनकी लंका दहन के समय की आग से अत्यंत काली पड़ गई मूर्ति जो पूर्ण रूप से काली है, वह दो ही जगह आज देखी जाती है। पहला धनुष्कोटी यानी रामेश्वरम के क्षेत्र में हनुमान जी की काली मूर्ति विराजमान है। दूसरी छत्तीसगढ़ प्रदेश के शिवरीनारायण धाम में हनुमान की काली मूर्ति का दर्शन किया जा सकता है। साथ ही शिवरीनारायण धाम में अगर आप जाते हैं तो वहां भगवान राम और अनुचरों द्वारा निर्मित रामसेतु के रामनामी एक पत्थर का भी दर्शन कर सकते हैं। यह पत्थर पानी के ऊपर तैरता हुआ आज भी शिवरीनारायण में देखा जा सकता है।

    “राम सिया के काज संवारे,    दानव दल चुन चुन कर मारे
  कोई ना इनसे बलवान शक्तिमान,  बोलो जय जय बालाजी हनुमान”

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