त्रिपुरा के डीएम द्वारा शादी समारोह में की गयी हरकत बहुतों को नागवार लगी, अब उसे जातिगत रंग दिया जा रहा है।
यह डीएम के संस्कार नहीं होते कि वह एक थानेदार की तरह गाली गलौज व मारपीट पर उतर आए।
एक अन्य सिरफिरे कलेक्टर निमाड़ी आशीष भार्गव के तुगलक़ी फ़रमान ने कोरोना संक्रमित घरों पर ताले जड़ दिए।
कलेक्टर नाम को इतना बड़ा हव्वा बना दिया गया है कि ज्यादातर कलेक्टर घमंड में चूर रहते हैं।
पब्लिक कानून तोडे तो बख्शा नहीं जाता, इसके विपरीत बड़े ओहदेदार, रसूखदार एवं वीआईपी के लिए कोई कानून नहीं?

अशोक कुमार कौशिक 

बात त्रिपुरा के या निमाड़ी के कलेक्टर की करें उससे पहले लेख की शुरुआत में चर्चा करते हैं साल 2004 से । देश में लोकसभा चुनावों को लेकर माहौल गर्म था। एनडीए व यूपीए दोनों ने अपनी ताकत झोंक रखी थी। यूपीए की कमान सोनिया गांधी के हाथ में थी। और एनडीए की तरफ से मोर्चा संभाल रखा था लालकृष्ण आडवाणी ने, जो उस वक्त देश के गृहमंत्री के साथ साथ उप-प्रधानमंत्री भी थे। लालकृष्ण आडवाणी उन दिनों देश भर में ‘भारत उदय यात्रा’ कर रहे थे। देश के तमाम राज्यों से होती हुई उनकी यह यात्रा बिहार की राजधानी पटना पहुंची। एक मेगा रोडशो के बाद गांधी मैदान में जनता को संबोधित करने का कार्यक्रम था।

आडवाणी की जो यात्रा शाम को छह बजे शुरू होनी थी, वो साढ़े तीन घण्टे की देरी से साढ़े नौ बजे शुरू हुई। यात्रा के बाद लालकृष्ण आडवाणी गांधी मैदान के मंच पर पहुंचे। देश के गृहमंत्री का भाषण शुरू ही हुआ था कि ब्लू शर्ट पहना एक नौजवान उनके मंच पर चढ़ गया । नौजवान सीधे देश के गृहमंत्री से मुखातिब हुआ। उनके माइक्रोफोन पर हाथ रखा और बोला श्रीमान आपका समय खत्म हो चुका है और आप अपना भाषण रोक दीजिए। Your time is up Sir, You must stop your speech now.

आडवाणी के साथ साथ मंच पर आसीन तमाम नेता हक्के बक्के रह गए। नौजवान से कारण जानने की कोशिश की गयी। नौजवान ने भारत के ‘चुनाव आयोग’ द्वारा जारी मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट की कॉपी निकाल कर थमा दी, जिसमें साफ़ लिखा था कि रात 10 बजे के बाद कोई नेता किसी रैली को संबोधित नहीं करेगा।

आडवाणी की नजर अपनी कलाई घड़ी की तरफ गयी।घड़ी 10 बजा रही थी। आडवाणी स्टेज से उतर गए।उस नौजवान का नाम था गौतम गोस्वामी और वो उस वक्त पटना के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट थे। एनडीए वो चुनाव हार गयी थी। लेकिन गौतम गोस्वामी को उनकी कर्तव्यपरायणता का दंड मिलना अभी बाकी था।

सात महीने बाद राज्य में विधानसभा चुनाव हुए। त्रिशंकु विधानसभा बनी और फरवरी 2005 में राज्यपाल बूटा सिंह ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी। फिर वही हुआ जो एक कर्तव्य परायण अधिकारी के साथ नही होना चाहिए था। 2004 की जुलाई में बिहार में जो बाढ़ आयी थी, उसमें गौतम गोस्वामी पर 17 करोड़ रूपये की हेरफेर का आरोप लगा। नाम दिया गया बाढ़ राहत घोटाला।

विजिलेंस कमीशन ने रिपोर्ट बनायी। राज्यपाल ने अनुशंसा की और गौतम गोस्वामी निलंबित कर दिए गए। हालांकि 2008 के दिसम्बर में गोस्वामी की खराब सेहत के मद्देनजर उनका निलम्बन रद्द कर दिया गया। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। एक महीने के बाद, जनवरी 2009 में गोस्वामी की मृत्यु हो गयी । देश ने अपने एक होनहार नौजवान को असमय खो दिया। आज भी हमारे देश में ऐसे होनहार आईएएस अपवाद हैं जो कुछ अलग से करने का जज्बा रखते हैं। क्योंकि वह राजनेताओं के मनमाफिक नहीं चल पाते इसलिए उनको “खुडडे” लगा दिया जाता है।

देश की सर्वोच्च परीक्षा का टॉपर, जिसके बाढ़ राहत मैनेजमेंट की तारीफ में टाइम मैगजीन ने अक्टूबर 2004 में तारीफों के पुल बांधे थे और एशिया के 20 प्रभावशाली शख्सियतों में जिसे शुमार किया था, उसकी जान उसी बाढ़ राहत में लगे घोटाले ने ले ली।

अब बात करते हैं वर्तमान ऐसे ही सिंघम बने एक और डीएम की। त्रिपुरा के डीएम द्वारा शादी समारोह में की गयी हरकत बहुतों को नागवार गुजर रही है। मुझे भी।तरीके बहुत थे उनके पास। एक डीएम का थानेदार स्तर पर उतर जाना अति निंदनीय है। शब्दों का चयन भी बेहतर हो सकता था (जैसा कि एक अफसर से अपेक्षित किया जाता है)। उन्होंने उन बेगुनाह युवा दंपत्ति के साथ बदतमीजी की जो शादी के पवित्र बंधन में बनने जा रहे थे। डीएम का उस पंडित के साथ भी मारपीट करना बहुत गलत था जिसका कोई कसूर नहीं था। सबसे बड़ा सवाल तो यह खड़ा होता है कि उनके ही प्रशासन के द्वारा जारी किया गया परमिशन पत्र उन्होंने इस तरह से फाड़ दिया जिस तरह से राहुल गांधी ने संसद में मनमोहन सरकार के दस्तावेजों को फाड़ा था। अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मचारियों के साथ गाली गलौज करना क्या शोभनीय व्यवहार कहा जा सकता है?

त्रिपुरा वेस्ट के डीएम शैलेश कुमार यादव के बर्ताव पर आखिर लोग अचंभित क्यों हैं? ऐसा ही एक और मामला भी सामने आया है। जहां एक सिरफिरे कलेक्टर ने कोरोना संक्रमित घरों पर ताले जड़ दिए। निमाड़ी कलेक्टर का तुगलक़ी फ़रमान क्या किसी बेगुनाह को कैद करना भादस के तहत अपराध नहीं है? मामला मप्र के जिला निवाड़ी का है। पहले कलेक्टर का नाम जान लें, नाम है आशीष भार्गव। अगरतला वाला ‘यादव’ था तो बहुत लोगों को पेट में पीर हो रही है कि ओबीसी है इसलिये आलोचना हो रही है। अब देखते हैं कितने ब्राह्मण संगठन ‘भार्गव’ पक्ष में हैशटैग चलाते हैं, उन्हें अग्रिम लानत।

अब मुद्दे की बात। निवाड़ी जिले के चार वार्डों में करीब 179 लोग कोरोनो से संक्रमित मिले । इन्हीं में से 22 मरीज़ घर में ही आइसोलेट हैं। दूध,किराना या दवा आदि लेने के लिये इनमें से कुछ लोग घर की देहरी पर देखे गए। संक्रमितों के घर के बाहर देखे जाने की बात प्रशासन तक पहुंची। बस फिर क्या था कलेक्टर आशीष भार्गव ने फ़रमान जारी कर दिया कि इन घरों में बाहर से ताला लगा दिया जाए। इस तुग़लकी हुक्म की तामील में नगर परिषद के सीएमओ आर एस अवस्थी , तहसीलदार अनिकेत चौरसिया, टीआई नरेंद्र सिंह परिहार 28 अप्रैल को लाव लश्कर के साथ मौके पर पहुंचे और सबके घरों पर बाहर से ताले लगा दिए। इन घरों की चाभियाँ वार्ड प्रभारी को दे दी गईं, वो इन्हें साथ लेकर चलता बना।

नजरबंद किये गए घर के लोगों को कहा गया कि अगर कोई ज़रूरत हो तो वार्ड प्रभारी को फोन करके बुलवा लें। परिजनों ने बाहर से ताला नहीं लगाने के लिये ख़ूब मिन्नत की लेकिन सरकारी अमला कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुआ। अब सवाल उठता है कि यदि तालाबंद लोगों को रात बिरात कुछ हो जाये तो? कलेक्टर के इस बेहूदा फ़रमान से 22 घरों के दर्ज़नों परिजनों की ज़िंदगी ख़तरे में पड़ गयी है। स्थानीय नागरिकों का कहना है कि अगर इन घरों में बंद किसी भी व्यक्ति को किसी भी समय कोई आपात स्थिति का सामना करना पड़े तो वो बाहर कैसे निकलेगा?

अगर घर में आग लग जाये, किसी को हार्ट अटैक आ जाये या ख़ुद कोरोना संक्रमित की स्थिति बिगड़े तो ?ऐसी स्थिति में वार्ड प्रभारी का फोन न लगे या उसका फोन नहीं उठे और ऐसी हालत में किसी की जान पर बन आये तो कौन जिम्मेदार?

कानून के विशेषज्ञों का कहना है कि बिना किसी उचित कारण के किसी को भी इस तरह नज़रबंद नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में परिवार के अन्य लोगों को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के अवसर प्राप्त होंगे। कोई भी निर्णय विवेक पूर्ण होना होना चाहिए। कलेक्टर की कार्यवाही भारतीय दंड संहिता की धारा 342 के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में है । यह कार्यवाही आगे जाकर या धारा 344 और 345 को भी कवर करेगी।
  कलेक्टर की इस बेजा कार्यवाही की मीडिया में जमकर आलोचना हुई। कलेक्टर के इस फ़रमान पर मीडिया व सोशल मीडिया पर ख़ूब सवाल उठाये तब काफी छीछालेदर के बाद कलेक्टर ने शुक्रवार को सुबह ताले खुलवा दिए हैं।

मुझे समझ नहीं आ रहा है। आईएएस, आईपीएस, कलेक्टर साहब, डीएम साहब यह सब हमारे ही संबोधन हैं ना? हमने ही तो आईएएस का अर्थ, सबसे बुद्धिमान, राजा जैसी नौकरी, आईएएस ऐसे करते हैं, वैसे करते हैं, क्या खाते हैं, क्या पहनतें हैं आदि फिजूल की बातें कर करके इन्हें सिर पर चढ़ा रखा है।प्राय देखा जाता है कि किसी के घर से कोई आईएएसआईपीएस बन जाए तो कैसे रेलवे स्टेशन पर आसपास के लोग फूल-माला लेकर उसका स्वागत करने जाते हैं, जैसे उसने कोई जनसेवा की मिसाल कायम कर दिया हो या देशहित में कोई बड़ा योगदान दे दिया हो, दरअसल स्वागत की उस भीड़ में खुश होने वालों से ज्यादा अपने स्वार्थ और रुतबा दिखाने वाले लोग होते हैं।  कोई अधिकारी बनता है तो अपने रोजगार, रुतबे और मौज के लिए ना कि जनसेवा करने के लिए। जो लोग जनसेवा किए होते हैं उनका वास्तविक स्वागत और गुणगान सामान्य जन स्वयं करते हैं।

कौन बनता है इस देश में आईएएस आईपीएस? बहुत बड़ी संख्या में ज्यादातर अभिजात्य वर्ग के संपन्न वे लोग जो ज्यादातर बड़े शहरों में रहने वाले होते हैं, जिनकी कॉलोनी के बाहर गेट पर ही भिखारी रोक दिए जाते हैं, जिनके बच्चे जीवन में कभी कोई अभाव देखे ही नहीं होते, गरीबी को वे सिर्फ मूवी या टीवी सीरियल में देखे होते हैं। अब तो मुंशी प्रेमचंद की ‘गोदान’ और ‘पूस की रात’  जैसी कहानियां भी उनके पाठ्यक्रमों में नहीं होतीं,  जिन्हें हैरी पॉटर पढ़ाया जाता है या जो स्पाइडर-मैन देखकर बड़े होते हैं, एजुकेशन माफियाओं के चंगुल में जकड़ी हुई शिक्षा पद्धति से होकर कोचिंग में लाखों की फीस देकर तैयार होते हैं ये लोग।

 क्या कहा? किसी रिक्शावाले के लड़के को भी आईएएस बनते देखा है आपने? जी हां देखा और सुना होगा लेकिन तब वह राष्ट्रीय स्तर के अखबारों की हेडलाइन बनती है। जानते हैं ना खबरों की हेडलाइन कब बनती है? जब घटनाएं दुर्लभ होती हैं। दरअसल इस तरह की खबरों से हमें तसल्ली दे दी जाती है कि कहीं ना कहीं देश में समाजवाद बचा है।

ये वही अधिकारी वर्ग है जो अपना काम ढंग से नहीं करते, लोगों के चप्पल घिस जाते हैं इनके कार्यालयों के चक्कर लगाते-लगाते लेकिन वाह रे लालफीताशाही और बाबू-गिरी । मजाल है कि किसी का काम सहज ढंग से पूरा हो जाए, मजबूर होकर जब आदमी किसी बाहुबली, अपराधी गुंडे-नेता के पास जाता है और जब उस नेता के सिफारिश पर उसका काम तुरंत हो जाता है तो भला वोट देते समय कोई यह क्यों देखे कि उसके वोट देने से राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या इससे देश बर्बाद होगा। जिन समाजवादी सरकारी योजनाओं को धरातल पर पहुंचाने की वास्तविक जिम्मेदारी इन अधिकारियों का होता है उसका थोड़ा सा भाग धार्मिक बाबा और पाखंडी धर्मगुरु पूरा कर देते हैं जिससे गरीब असहाय जनता को थोड़ी राहत मिलती है। बाद में जब वही पाखंडी धर्मगुरु शोषण करता है तो हम हाय तौबा मचाते हैं। कहने का लब्बोलुआब यह है कि देश में उत्पन्न समस्याओं के एक बड़े हिस्से को जन्म देने वाला लालफीताशाही ही है।

‘कलेक्टर’ शब्द कलेक्ट करने से लिया गया है। जिले से टैक्स कलेक्ट करने के लिए अंग्रेजों के समय कलेक्टर प्रथा एवं डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के अधिकारी नियुक्त किए जाते थे क्योंकि उन्हें पब्लिक को दबाकर रखना होता था और टैक्स कलेक्ट करने के बाद भी शांति स्थापित रहे यह भी देखना होता था इसलिए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट तथा कलेक्टर के साथ-साथ एक ही व्यक्ति को कई शक्तियां दे दी जाती थीं। न्यायपालिका के कारण मजिस्ट्रेट की शक्तियों में तो कुछ परिवर्तन हुआ परंतु अन्य अधिकारों की बात करें तो आजादी के बाद भी लगभग संपूर्ण देश में वही व्यवस्था है।

जिला दंडाधिकारी या कलेक्टर नाम को इतना बड़ा हव्वा बना दिया गया है कि ज्यादातर कलेक्टर घमंड में चूर रहते हैं और पूरी तरह भ्रष्ट हो चुके हैं। ये लोग आम आदमी तो छोड़िए, विधायक और सांसदों की नहीं सुनते। किसी भी देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहली शर्त यह होनी चाहिए की शक्ति का विकेंद्रीकरण किया जाए, किसी भी एक व्यक्ति के हाथ में आप असीम शक्तियां दे देंगे तो उसके भ्रष्ट एवं निरंकुश होने की संभावना प्रबल होती ही है। ऐसा नहीं है कि अच्छे अधिकारी नहीं हुए हैं, हम कई उदाहरण ले सकते हैं जिन्होंने अपना कर्त्तव्य सीमाओं से बाहर जाकर भी निभाया है, कुछ तो अपनी नौकरियां छोड़कर एनजीओ तक ज्वाइन किए हैं। लेकिन अफसोस ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है।

हमारे देश में यदि पब्लिक कानून तोड़ती है तो उसे नहीं बख्शा जाता, इसके विपरीत बड़े ओहदेदार एवं रसूखदार वीआईपी के लिए कोई कानून नहीं है। जिस प्रकार का बर्ताव त्रिपुरा के कलेक्टर के द्वारा किया गया वह सख्त ऐतराज के काबिल है, आप कानून का पालन करा सकते हैं, चालान काट सकते हैं, कार्यवाही कर सकते हैं, लेकिन मारने-पीटने का आपको कतई अधिकार नहीं है, किसी को अपमानित करने का अधिकार किसी को नहीं है। ऐसा बर्ताव किसी वीआईपी नेता या मंत्री के यहां करके दिखाए तब हम मानें।   

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने का अधिकार सम्मिलित किया गया है। अपने विभिन्न ऐतेहासिक फैसलों के माध्यम से भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी परिभाषा को बहुत व्यापक किया है। जीवन का मतलब पशुओं की तरह  केवल सांसो का चलना नहीं है। मनुष्य जैसे प्राणी के लिए समाज में सम्मान पूर्वक जीना भी जीवन होता है। जहां एक ओर इस अनुच्छेद में स्वच्छ वायु-जल तथा वातावरण को सम्मिलित किया गया है वहीं दूसरी ओर प्रत्येक नागरिक को समाज में सम्मान पूर्वक जीवन जीने के अधिकार को भी बराबरी का दर्जा दिया गया है। यदि किसी व्यक्ति  से उसका सम्मान कोई छीन ले तो वह, उसके जीवन जीने के अधिकार का हनन होता है ।

ऐसे घटिया सोच के डीएम/कलेक्टर या कोई अन्य अधिकारी हों, इनके विरुद्ध माननीय सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय  में रिट लगाना चाहिए और हमारे न्यायपालिका को भी ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाना चाहिए कि देश भर के ऐसे अधिकारियों की हेकड़ी निकल जाए और साहब बने रहने के बजाए वे जनता के सेवक के रूप में कार्य करें।

अब वक्त आ गया है कि हम सब एकजुट हों, केवल किसी सरकार को बदलने के लिए नहीं बल्कि व्यवस्था को बदलने के लिए। हमारे पूर्वज लड़े थे गोरों से हमें लड़ना पड़ेगा इन काले अंग्रेज चोरों से।

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