— आंदोलन में लोगों की व्यक्तिगत संपत्तियों को क्षति पहुंचाने का अधिकार किसने दिया
— यही जाबांज दिल्ली पुलिस वकील आंदोलन के आगे क्यों विवश हो गई थी?
— आमतौर पर पुलिस भी ऐसे षड्यंत्र नहीं करती, स्वयं सरकारें करवाती हैं : भगत सिंह

अशोक कुमार कौशिक 

भारत में बहुत लोगों को, अधिक सटीक होगा यदि कहा जाए कि अपवाद छोड़कर लगभग सभी लोगों को यह सुनकर बहुत अटपटा लगेगा मेरी बात से असहमत होंगे, यदि मैं यह कहूं कि किसी सभ्य-लोकतंत्र में पुलिस कैसे लोगों को किसी सार्वजनिक सड़क का प्रयोग करने से वंचित कर सकती है, यदि यह कहूं कि पुलिस सार्वजनिक बसों, ट्रकों व वस्तुओं का प्रयोग बैरियर बनाने के लिए कैसे कर सकती है। यदि किसी लोकतंत्र में पुलिस को इस तरह के अधिकार हासिल हैं तो उस देश में पुलिस सुधार की आमूलचूल जरूरत है।

यदि किसी लोकतंत्र में पुलिस को, लोगों की व्यक्तिगत संपत्तियों को क्षति पहुंचाने का अधिकार है तो वह लोकतंत्र तो बिलकुल भी नहीं हो सकता, उसे पुलिसतंत्र कहना बेहतर होगा।

26 जनवरी को सारी मीडिया व राजनैतिक-पूर्वाग्रह व स्वार्थ के कारण किसान-आंदोलन के विरोधी बने लोगों ने किसानों को गुंडा कहा, आतंकी कहा, लुटेरे कहा। पता नहीं क्या-क्या कहा। बहुत गर्व के साथ कहा। खुद को देशभक्त मानने के दंभ के साथ कहा। अनेक लोगों ने तो किसानों को अलोकतांत्रिक व हिंसक भी कहा।

सवाल यह है कि यदि किसान सार्वजनिक सड़कों पर अपने ट्रैक्टर या वाहन पर बैठकर या पैदल चलना चाहते थे तो पुलिस या सरकार को भी रोकने का कौन सा लोकतांत्रिक या नैतिक अधिकार था। किसानों का दायित्व सिर्फ इतना कि उनको सूचना देनी थी ताकि बड़ी संख्या के कारण होने वाली असुविधाओं के लिए पुलिस व सरकार इंतजाम कर ले। किसी सभ्य-लोकतंत्र में किसानों का बस यही दायित्व होता।

लेकिन पुलिस द्वारा बैरियर लगाना, सार्वजनिक बसों ट्रकों व अन्य वस्तुओं का लोगों को चलने से रोकने के लिए प्रयोग करना। लोग यदि बैरियर तोड़कर चलने लगे तो उन पर हिंसक कार्यवाही करना, आंसू गैस के गोले दागना, बर्बरता के साथ लाठी चलाना, ऐसी दहशत पैदा करना कि लोगों की मौत तक हो जाए, लोग मरणासन्न हो जाएं। लोगों के वाहनों को तोड़ना। 

यदि किसानों द्वारा बैरियर तोड़ना गलत था, तो पुलिस द्वारा बैरियर लगाना गलत था। यदि लोगों द्वारा बैरियर में लगाई गई बसों ट्रकों इत्यादि को तोड़ते हुए आगे बढ़ना गलत था तो पुलिस द्वारा सार्वजनिक संपत्तियों का इस तरह गैरजिम्मेदारी व गैरजवाबदेही के साथ दुरपयोग करना भी गलत था। पुलिस ने लोगों को प्रोवोक किया कि लोग सार्वजनिक संपत्तियों को क्षति पहुंचाएं। यदि पुलिस ने बैरियर नहीं लगाए होते, यदि पुलिस ने बैरियर के रूप में बसें ट्रक इत्यादि नहीं लगाए होते तो लोगों ने न बैरियर तोड़े होते न ही बसें ट्रक इत्यादि तोड़े होते।

लोगों ने तो सार्वजनिक बसें व ट्रक इत्यादि उतने ही तोड़े जितने तोड़ने से निकलने की जगह बनती थी। लेकिन पुलिस ने तो लोगों के वाहनों व संपत्तियों को जानबूझकर तोड़ा। जितना लोगों ने क्षति पहुंचाई, उससे सैकड़ों गुना अधिक क्षति पुलिस ने पहुंचाई। पुलिस के यह क्रियाकलाप का यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पूर्व देश मेंअनेक आंदोलनों में वैसा कर चुकी है। पंचकूला में डेरा सच्चा सौदा की निहत्थे और शांतिप्रिय अनुयायियों पर कहर व निरंकुशता एक उदाहरण थी। उस समय भी सरकारी संपत्ति के साथ निजी संपत्ति को भी पुलिस ने बड़ी बेरहमी से तोड़फोड़ की थी। 
लोगों की संपत्ति देश की संपत्ति व GDP का हिस्सा होती है। इसी GDP के कारण देश चलता है। पुलिस GDP नहीं पैदा करती है, लोग पैदा करते हैं। पुलिस यदि लोगों की संपत्तियों को क्षति पहुंचाती है तो यह राष्ट्रदोह है। किसान मजबूरी में करे तो राष्ट्रद्रोह, पुलिस जानबूझकर करे तो भी राष्ट्रद्रोह नहीं। पुलिस ने जो लोगों के वाहनों से तिरंगों को लाठी मारकर या हाथों से अपमान जनक तरीके से नीचे जमीन पर गिराया। क्या यह तिरंगे का अपमान नहीं था, राष्ट्रद्रोह नहीं था।

मैं जानता हूं कि मेरी बात शायद ही किसी को समझ आए, क्योंकि भारत उन जैसे देशों की श्रेणी में आता है जहां लोकतंत्र केवल चुनाव में किसी तरह मतदान कराने/करने, 15 अगस्त व 26 जनवरी जैसे अवसरों पर झंडा फहराने, सैन्य परेड करने, सरकारी नौकरशाहों द्वारा चयनित की गई कुछ झांकियों को दिखाने इत्यादि तक ही सीमित होता है। वहां लोकतंत्र को वास्तविक रूप से स्थापित करने की बात छोड़िए, सुगबुगाहट तक नहीं होती है।

मैं जानता हूं कि चंद अपवाद लोगों को छोड़कर मेरी बात किसी के समझ में ही नहीं आएगी। बहुतों के पास समझने लायक दृष्टि ही नहीं होगी। लेकिन यह एक तथ्य है कि 26 जनवरी को हुई घटनाओं में यदि किसान गुंडे थे तो पुलिस भी गुंडा थी, यदि किसान लुटेरे थे तो पुलिस भी लुटेरी थी, यदि किसान देशद्रोही थे तो पुलिस भी देशद्रोही थी। यदि किसानों ने तिरंगे का अपमान किया तो पुलिस ने भी तिरंगे का अपमान किया। यदि किसान नेताओं पर मुकदमें व एफआईआर दर्ज हुई तो पुलिस उच्चाधिकारियों पर भी उन्हीं धाराओं में मुकदमें व एफआईआर दर्ज होना चाहिए।

मेरी बातें अटपटी लग रहीं होंगी, लेकिन जिन लोगों को वास्तव में लोकतंत्र की गहराईयों की समझ है, उन्हें पता है कि मैं बिलकुल ही वाजिब बात कर रहा हूं। दुनिया के सभ्य लोकतांत्रिक समाज ऐसे ही हैं, वहां लोक सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। सरकार व सरकारी तंत्र लोक के लिए होता है। सरकार व सरकारी तंत्र को लोक के अधिकारों का हनन करने का अधिकार नहीं होता है। जो गलती करता है वह दंडित होता है।

—  किसान आंदोलन और पुलिस की भूमिका 

किसान आंदोलन के दौरान 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के लाल किले में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुयी। एक तो लाल किले में तिरंगा ध्वज से कुछ दूर हट कर सिख धर्म का प्रतीक निशान साहिब फहराया गया और वहां उपस्थित किसानों की भीड़ और पुलिस के बीच झड़प हुयी। अखबार और मीडिया की मानें तो, कुल 400 पुलिसजन घायल हुए। शुरू में यह भ्रम फैलाया गया कि वहां से तिरंगा को हटा कर उसकी जगह निशान साहब को फहराया गया लेकिन कुछ ही देर में जब स्थिति स्पष्ट हुयी तो यह साफ हो गया कि तिरंगा अपनी जगह है और निशान साहब को कुछ दूर एक अलग पोल पर फहराया गया है।  पुलिस ने, लाल किला पर जो विवाद और हंगामा हुआ उसके बारे में किसान नेताओ के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए और कुछ की गिरफ्तारी भी गई, हालांकि इसमें कोई महत्वपूर्ण किसान नेता नहीं है। बाद में इस पूरी घटना को अंजाम देने वाले, दीप सिद्धू का नाम सामने आया, जो गुरुदासपुर से भाजपा सांसद सन्नी देओल का करीबी है और उसकी निकटता, प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री से भी है। अब इस विवाद ने राजनीतिक रंग ले लिया, और यह कहा जाने लगा कि, यह सारा हंगामा भाजपा के लोगों के साथ मिलकर किसान आंदोलन को तोड़ने के लिये सरकार की शह पर कराया गया है और इस मामले में दिल्ली पुलिस की भी मिलीभगत है।

इस घटना पर कुछ वरिष्ठ पुलिस अफसरों की भी प्रतिक्रिया आयी। पंजाब के डीजीपी रह चुके देश के सम्मानित पुलिस अफसर जेएफ रिबेरो ने दिल्ली पुलिस के राजनीतिकरण पर सवाल उठाते हुए यह कहा कि ऐसे जनांदोलनों में पुलिस की भूमिका एक प्रोफेशनल पुलिस बल की तरह होनी चाहिए। यह बात सबको समझ लेनी चाहिए कि, सरकार की भी यह जिम्मेदारी है कि वह पुलिस बल को किसी भी राजनैतिक विवाद से बचाये और कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये पुलिस का गैरराजनीतिक और प्रोफेशनल स्वरूप बनाये रखे। एक नागरिक बल होने के कारण, पुलिस, सेना की तरह अराजनीतिक बल तो नहीं हो सकती है, लेकिन जन आंदोलन के दौरान बिना किसी राजनीतिक झुकाव के अपने दायित्व का निर्वहन तो कर ही सकती है, और उसे ऐसा करना भी चाहिए। 

लाल किले की घटना के बाद 29 जनवरी को सिंघू बॉर्डर पर प्रदर्शनस्थल ने सौ मीटर दूर करीब सौ-डेढ़ सौ लड़के आए और प्रदर्शनकारी किसानों की ओर पत्थर फेंकने लगे। जब किसानों ने भी जवाब दिया तो, दोनों तरफ से पत्थर चलने लगे। फिर पुलिस ने हस्तक्षेप तो किया पर पत्थर फेंकने वालों को, भगाया नहीं। वे सौ मीटर दूर खड़े होकर रह – रह कर पत्थर फेंकते रहे। 

दिल्ली पुलिस पागल हो गयी है, या फिर उनके उपर मंत्रालय का दबाव ज्यादा बढ़ गया है, एक तरफ तो सारी दुनिया ने देखा की कैसे जब दीप सिन्धु के नेतृत्व में हुल्लड़बाज किसान लाल किले पर चढ़ कर घण्टों मनमानी करते रहे तब ये हाथ पर हाथ धरे खड़े रहे, और एक दिन के बाद जब नरेला बवाना से आये बीजेपी समर्थित गुण्डे किसानों पर पत्थर बरसा रहे थे तब ये लोग कैसे तमाशा देख रहे थे, वहीं दुसरी तरफ ये लोग अपने हिसाब से सेलेक्टिव मुकदमे कर रहे हैं, बेकसूर लोगों और पत्रकारों को बिना वजह गिरफ्तार कर रहे हैं, पत्रकार #मन्दीप_पुनिया और #धर्मेंद्र_सिंह को पुलिस के काम में बाधा डालने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया, और दिल्ली पुलिस उनके परिचितों को ये तक नहीं बता रही है की उन्हें रक्खा कहां गया है।  मन्दीप और धर्मेंद्र जैसे पत्रकार कोई बडी चैनल में बैठने वाले पत्रकार नहीं है, इनके पीछे सत्ता या बडे नेताओं और बिजनेस टायकूनों का वरदहस्त नहीं होता है, इन पत्रकारों को सिर्फ़ हम जैसे लोगों का सहारा होता है, जो बडे चैनल वालों के झुठे और मैनुप्लेटेड खबरों से तंग आकर इनकी लाइव्स देखते हैं, इनके पेज को फॉलो करते हैं, इनका यूट्यूब चैनल सब्सक्राइब करते हैं । इनके जरिये हमें जमीनी खबरें मिलती है, ये निर्भीक पत्रकार बिना सत्ता की चाटूकारी किये हम तक सत्य पहुंचाते हैं, बदले में इन्हे जो मिलता है, वो उन दल्ले पत्रकारों की कमाई का पॉइंट वन परसेन्ट भी नहीं होता है। 

यह सवाल उठता है कि पुलिस ने उन्हें वहां जाने से रोका क्यों नहीं, जहां पीने का पानी ले जाने पर भी पाबंदी है ? इन्हें दिन भर मीडिया, ‘नाराज स्थानीय लोग’ बताता रहा, पर वे हिंदू सेना के लोग निकले, जिन्होंने, विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था। ऑल्टनयूज़ ने अपनी एक जांच पड़ताल में विस्तार से इस घटना और साज़िश का उल्लेख किया है। 

ऐसी ही एक घटना पिछले साल, जेएनयू में हुयी थी, जहां पुलि‍स संरक्षण में गुंडे घुसे थे, दंगे हुए, और आज तक दंगे करने वाले गुंडे पहचाने जाने के बाद भी गिरफ्तार नहीं किये गए। इसी प्रकार की साज़िश, दिल्ली दंगो के दौरान भी हुयी थी। कपिल मिश्र और रागिनी तिवारी के भड़काऊ भाषणों के बावजूद भी आज तक दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नही की। क्या यह पुलिस का राजनीतिक एजेंडे के अनुसार सेलेक्टिव कार्यवाही करना नहीं कहा जायेगा ? 

किसान आंदोलन के दौरान ऐसे अनेक वीडियो और खबरे सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे है, जिनमे पुलिस कार्यवाही पर लगातार सवाल उठ रहे हैं।  यह आंदोलन, निश्चित रूप से, सरकार के खिलाफ है और सरकार द्वारा बनाये गए कुछ कानूनो के खिलाफ है। आंदोलन, धरना, प्रदर्शन, जुलूस आदि जन अंसन्तोष के लोकतांत्रिक अधिकार हैं। यदि यह आंदोलन शांतिपूर्ण है और सरकार बदलने की मंशा से भी है, तो भी पुलिस का दायित्व यह है कि वह इस आंदोलन को शांतिपूर्ण ढंग से चलने दे। लेकिन जब आंदोलन विरोधी असामाजिक तत्व इस आंदोलन को जानबूझकर कर उकसा रहे हैं और पुलिस उनके साथ खड़ी दिखती है तो, जितने सवाल असामाजिक तत्वों की भूमिका पर नही उठेगे, उससे अधिक सवाल पुलिस की भूमिका पर उठेंगे और यह सवाल उठ भी रहे है। एक महत्वपूर्ण विंदु यह भी है कि क्या गुंडों के दम पर किसी लोकतांत्रिक जन आंदोलन को खत्म या दबाया जा सकता है ? 

लाल किला और सिंघू बॉर्डर से जुड़े, मुख्य दंगाइयों की फ़ोटो भाजपा नेताओं के साथ सोशल मीडिया पर लगातार आ रही हैं। यह भी एक दुःखद तथ्य है कि, आज तक देश के किसी भी गृहमंत्री के साथ दंगाइयों की इतनी तस्वीरे सोशल मीडिया पर नहीं नज़र आयीं जितनी आज कल नज़र आ रही है। इससे साफ साफ यह निष्कर्ष निकल रहा है कि कानून व्यवस्था से निपटने के लिये पुलिस की यह रणनीति, चाहे वह राजनीतिक दबाव के कारण हो या किसी अन्य स्वार्थ के वशीभूत, कानून व्यवस्था को तो और खराब करेगी ही, साथ ही पुलिस की साख और छवि पर ऐसा बट्टा लगा देगी, जिससे उबरने में बहुत समय लग जायेगा। 

 सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई आदेशों में ऐसे धरना प्रदर्शन को, लोकतांत्रिक अधिकार माना है। पुलिस को प्रोफेशनल रूप से, कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिये बने, उन कानूनो को ही लागू करना है, न कि ऐसा कुछ करना है जिससे वह राजनीतिक तुला पर संतुलन साधने की कोशिश में खुद को ही विवादित कर ले । 

अब यह धारणा बनती जा रही है कि, लगभग 70 दिन से चल रहे किसान आंदोलन को, जब सरकार बातचीत से हल नहीं करा पाई तो, अब वह इस आन्दोलन को, उन असामाजिक तत्वों के भरोसे खत्म कराने की कोशिश कर रही है जिनके फ़ोटो और विवरण सरकार के बड़े मंत्रियों के साथ घटना के तुरंत बाद ही सोशल मीडिया में बवंडर की तरह छा जाते हैं। सारी योजना खुल जाती है। क्या इससे सरकार की क्षवि खराब नहीं हो रही है ? हालांकि, यह भी कहा जा सकता है कि, इस तमाशे से पुलिस की साख और छवि पर कोई बहुत प्रभाव नही पड़ता है। क्योंकि पुलिस की साख और छवि तो, अब जन सामान्य में जो बन चुकी है, उसे यहां बताने की ज़रूरत नही है। हर व्यक्ति उक्त छवि से रूबरू है और अपनी धारणा अपने अनुभवों के अनुसार, बना ही रहा है। लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल की साख और छवि पर ज़रूर असर पड़ रहा है। विशेषकर उस दल पर, जो खुद को अ पार्टी विद अ डिफरेंस कहती रही है।

 मूल समस्या, किसानों द्वारा किया जा रहा, दिल्ली का घेराव नहीं है। वह एक तात्कालिक समस्या है जो यह मूल रूप से प्रशासन से जुड़ी है। पर असल समस्या है इन कानूनों के बाद कृषि और कृषि बाजार पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा ? आंदोलन खत्म कराने के लिये विभाजनकारी एजेंडे और सरकार के नजदीकी गुंडों का साथ लेना एक बेहद गलत परंपरा की शुरुआत है। इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और इसके दुष्परिणाम गुंडे नही झेलेंगे, सरकार और जनता को ही झेलना पड़ेगा।

यदि किसी लोकतांत्रिक जन आंदोलन का समाधान राजनीतिक रूप से निकालने के बजाय उसे किराए के सरकारी गुंडों के द्वारा दबाया जा रहा है तो, यह सत्ता के राजनैतिक सोच और विचारधारा का दिमागी दिवालियापन तो है ही, साथ ही प्रशासनिक अक्षमता का भी प्रदर्शन है।  सरकार में आने के बाद सरकार के मंत्री को ऐसे तत्वों से दूरी बना लेनी चाहिए और सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसे लोकतांत्रिक आंदोलनों का राजनैतिक समाधान ढूंढे। 

यह सवाल मन मे  उठ रहा है कि, क्या कानून व्यवस्था बनाये रखने के दौरान, गुंडों का सहयोग लेना अनुचित नही है ? आज तक तो, एक भी जन आंदोलन या जन समागम नही हुआ होगा, जिंसमे अपराधी और गुंडा तत्व घुसपैठ न कर गए हों। यहां तक की धार्मिक मेलों और कुम्भ के मेले में भी चोरों और गिरहकट, लुटेरे आदि आसानी से घुसपैठ कर जाते है। गुंडों और अपराधियों की यह घुडपैठ, हो सकता है उन जनआंदोलनों से जुड़े कुछ नेताओं की मिलीभगत भी हो, और यह भी हो सकता है कि आयोजको को, गुंडों की इन घुसपैठों के बारे में पता ही न हो। यही हाल इस किसान आंदोलन में हुए हिंसा के बारे में कहा जा सकता है। शांतिपूर्ण जुलूसों में भी दुकान आदि लूटने का काम कुछ मुट्ठी भर लुटेरे ही करते है, न कि पूरा जुलूस उक्त अपराध में लिप्त होता है।

पर दिल्ली पुलिस का गुंडों और लफंगों के सहारे किसी भी आंदोलन, धरना और प्रदर्शन को तोड़ने और फिर हिंसा फैला कर उसे तितर बितर कर देने का यह नायाब आइडिया, उन्हें कहां से मिला है, यह तो वे ही जानें। पर गुंडों के बल पर न तो शांति व्यवस्था बनायी रखे जा सकती है औऱ न ही, अपराध नियंत्रित किया जा सकता है। राजनीतिक लाभ के लिए, गुंडों के एहसान पर कानून व्यवस्था को बनाये रखने के कृत्य का मूल्य, पुलिस को ही चुकाना पड़ता है। और जब यह मूल्य चुकाया जाता है तो कोई राजनीतिक आका, पुलिस के हमदर्द के रूप में दूर दूर तक नज़र नहीं आता है। दिल्ली देश की राजधानी है और वहां पर होने वाली एक एक घटना पर दुनियाभर के मीडिया की निगाह रहती है। ऐसी दशा में पुलिस को क़ानून व्यवस्था से निपटने के लिये किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े गुंडों को, अपने साथ नहीं रखना चाहिए। इसी प्रकार की गुंडा नियंत्रित या निर्देशित, अनप्रोफेशनल पुलिसिंग का कोई उदाहरण सामने आता है तो, इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस एएन मुल्ला की एक बेहद अफसोसनाक टिप्पणी भी याद आती है।

सत्ता तो बदलती रहती है। बेहद ऐश्वर्य पूर्ण साम्राज्य भी बदलते रहे हैं। पर यदि पुलिस और गुंडों की मिलीभगत भरी, यह जुगलबंदी कहीं, पुलिस की आदत बन गयी तो इसका खामियाजा सिर्फ और सिर्फ उन लोगों को भुगतना पड़ेगा जो पुलिस से विधिसम्मत कार्य की अपेक्षा रखते हैं। समाज मे आज भी ऐसे लोग अधिक संख्या में हैं जो पुलिस को साफ सुथरा और प्रोफेशनल देखना चाहते हैं। राजनीतिक लोगों की मजबूरी यह हो सकती है कि, वे गुंडों और आपराधिक तत्वों को पालें या उनकी पनाहगाह में पले। क्योंकि हमारी चुनाव प्रक्रिया अब तक अपराधियों की घुसपैठ रोक नहीं पायी है। पर एक वर्दीधारी, औऱ संविधान के प्रति शपथबद्ध पुलिस अफसर की ऐसी कोई मजबूरी नहीं होती है। कानून को कानूनी तऱीके से ही लागू किया जाना चाहिए। पुलिस की निष्ठा, प्रतिबध्दता और शपथ, कानून और संविधान के प्रति है, न कि किसी सरकार के प्रति या किसी व्यक्ति विशेष के प्रति ।

पिछले कई सालों से ऐसी घटनाएं घट रही है जिनके कारण, दिल्ली पुलिस के कई फैसलों पर न सिर्फ पुराने और अनुभवी पुलिस अफसरों ने सवाल उठाए हैं, बल्कि अदालत ने भी तीखी टिप्पणियां की है। एक टिप्पणी के काऱण तो दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज साहब का तबादला भी रातोरात कर दिया गया। अभी 2019 में सरकार के दुबारा आने के बाद भी, जबकि अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए हैं, दिल्ली में दो बार दंगे भड़क उठे। गणतंत्र दिवस के समारोह, बीटिंग रिट्रीट के समय, इजरायल दूतावास में बम धमाका हो गया है। बार बार इंटरनेट बंद करना पड़ रहा है।

हरियाणा में पूरा इंटरनेट बंद कर दिया गया है। रेड एलर्ट की तमाम सतर्कताओ के बीच, उपद्रवी लाल किला पहुंच गए। उन्होंने वहां अपनी मनमानी और हिंसा की, 400 पुलिसजन घायल हुए, और उन उपद्रवियों के खिलाफ आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही तक नहीं की गयी। औऱ अब पुलिस संरक्षण में सत्तारूढ़ दल के अराजक तत्वो द्वारा किसानों पर पथराव की घटना ने, दिल्ली पुलिस की कार्यप्रणाली और नेतृत्व पर स्वाभाविक  सवाल खड़े कर दिये हैं। पुलिस की जिम्मेदारी राजनीतिक दल, सत्तारूढ़ दल और सरकार के राजनीतिक दलीय एजेंडे को पूरा करना नहीं है बल्कि हर परिस्थिति में कानून को कानूनी तरह से ही लागू करना है। हो सकता है यह स्थिति सरकार के लिये कभी कभी असहजता उत्पन्न कर दे, पर पुलिस को ऐसे ही मुश्किल भरे लहरों से खुद को निकालना होता है। 

पुलिस के बल प्रयोग और भाजपा के कुछ नेताओं की गुंडई से, किसान आन्दोलन की सड़क भले ही खाली हो जाय, पर उत्तर भारत और कुछ हद तक देश भर के गांवों में जो आक्रोश पनप रहा है, उसे कम होने के आसार नहीं दिख रहे हैं। यदि वह आक्रोश इसी प्रकार बढ़ता रहा तो, उसे नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा। या तो रोज रोज ऐसे ही हंगामे होंते रहेंगे, जिससे,  प्रशासन तथा पुलिस पर अनावश्यक दबाव पड़ेगा या फिर यह चिंगारी और दूर तक फैलती  जाएगी। इसका उदाहरण अतीत में सिर्फ तीन दर्जन वकील ही तो थे तीस हजारी में – जिन्होंने पुलिस को गिरा गिरा कर मारा । उनके वाहन फूंक दिए ।वकीलों ने पुलिस को लॉकअप में बंद करके उनको आग के हवाले करने की भी कोशिश की । पुलिस किसी वकील को गाली तक नहीं दे सकी । हाथ उठाना तो दूर की बात है । अब सोचिये जो पुलिस तीन दर्जन लोगों के सामने खड़ी ना हो सकी , वह पुलिस ट्रैक्टर गणतंत्र रैली निकाल रहे दस लाख किसानों पर लाठी , डंडे , ऑंसूगैस के गोले से हमला करती है ? क्या कुछ सौ या कुछ हजार पुलिस वाले क्या इतनी बड़ी भीड़ को रोक सकते हैं ? जवाब है – नहीं । तो फिर कुछ पुलिस वाले इतनी बड़ी रैली को रोकने में क्यों लगाए गए थे ? कारण साफ है भीड़ को भटकाना था । उग्र करना था ताकि हिंसा हो ।

लेकिन सरकार हिंसा क्यों करेगी ? सरकार का काम तो शांति बनाए रखना है ? जवाब है – किसान आंदोलन की सबसे पहली पंक्ति में अहिंसा खड़ी थी ! दूसरी पंक्ति में संगठन की एकता । यही आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत थी । यही ताकत थी जिससे टकराकर NIA बेअसर वास लौट गई । इस प्रथम पंक्ति को तोड़ना बेहद जरूरी था , ताकि जांच एजेंसियां आंदोलन के भीतर सीधे घुस सकें ।

यह प्रचलित युद्ध नीति है । खुद ही वे कारण पैदा करो जिससे दुश्मन पर हमले को जायज ठहराया जा सके । ये नीति समुद्री लुटेरों की ईजाद है , जो दूसरे देश का झंडा और वर्दी लगाकर अपने ही जहाज को लूट लेते थे । बाद में इस नीति को हिटलर ने नए आयाम दिए । अब किसान आंदोलन में जांच एजेंसियां बेधड़क घुस सकती हैं , और वही सब कर सकती हैं जो उनके आका चाहेंगे । इसे  युद्ध नीति की भाषा में “फाल्स फ़्लैग अटैक ” कहा जाता है और आरएसएस के सरपरस्त इसके माहिर खिलाड़ी है !

आज जो इस आंदोलन के खिलाफ, पुलिस को लाठी चलाने के लिये उकसा रहे है, वे सब यह समझ नहीं पा रहे हैं कि, वे एक ऐसे भयावह भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं जहां कानून को कानूनी रूप से लागू करने के लिये गठित, कार्यपालिका का यह सबसे महत्वपूर्ण तंत्र, एक संगठित गिरोह में बदल कर रह जायेगा। कहाँ तो सरकार से उम्मीद थी कि, वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, पुलिस सुधार कार्यक्रमों को लागू कर एक विधिपालक और अनावश्यक स्वार्थी राजनीतिक दबावों से मुक्त पुलिस बल विकसित करती पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकार खुद ही एक राजनीतिक एजेंडा ओरिएंटेड पुलिस को प्रश्रय दे रही है। पुलिस के वरिष्ठ अफसरों को स्वतः पुलिस के इस स्वार्थी राजनीतिकरण के विरुद्ध सचेत और सजग रहना होगा। एक अच्छे और सबल नेतृत्व का यह तकाज़ा है और उनके समक्ष एक गंभीर चुनौती भी।

**चलते-चलते**

पुलिस की भूमिका को लेकर जून 1928 को कीर्ति समाचार पत्र में शहीद भगत सिंह का लिखा लेख –         ” पुलिस की ……. चालें”

आमतौर पर पुलिस भी ऐसे षड्यंत्र नहीं करती, स्वयं सरकारें करवाती हैं। उदाहरणथा जब कभी बड़े भारी आंदोलन की संभावना होती है, उसे दबाने के लिए अत्याचार  करने का बहाना ढूंढने के लिए वह अपने आदमियों को उनमें मिला देती है और वह कोई ना कोई गलती करवा देते हैं, जिससे अत्याचार का बहाना मिल जाता है। दूर जाने की जरूरत नहीं, आजकल जो भी हड़तालें हुई हैं उनमें भी ऐसे आदमी छोड़े जाते हैं जो दंगा करवाने के लिए लोगों को भड़काते रहते हैं और अत्याचार का बहाना ढूंढने का यत्न करते रहते हैं । लेकिन यह आखरी चालें होती हैं,  इनसे राज प्राप्त नहीं होते बल्कि जुल्म करने से जड़ें जल्दी उखड़ जाती है ।”- भगत सिंह

26 जनवरी को दिल्ली में हुई घटनाओं को यदि सामाजिक ईमानदारी व लोकतांत्रिक सभ्यता के दायरे से देखा जाए तो यदि किसान दोषी हैं तो पुलिस किसानों से कई गुना अधिक दोषी है। सार्वजनिक संपत्तियों का निर्माण लोक करता है, पुलिस नहीं। पुलिस हो या सरकार हो किसी को सार्वजनिक संपत्तियों के दुरपयोग का कोई अधिकार नहीं। बिलकुल भी नहीं। जिस भारत में पुलिस को पुलिस होने का मायने तक नहीं पता, आमूलचूल सुधारों की जरूरत है। उस भारत में पुलिस सुधार के नाम पर पुलिस को आम लोगों के ऊपर और अधिक निरंकुश अधिकार दे दिए जाते हैं।

error: Content is protected !!