• भारत-नेपाल के रिश्तों में निरंतर संवाद और सहयोग बनाये रखना दोनों देशों की, सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र की और एशिया की आवश्यकता.
• भारत सरकार की अदूरदर्शिता से चारों ओर पड़ोसियों से विवाद, परंपरागत मित्र पड़ोसियों के साथ भी संबंधों में आ रही खटास.
• भारत-नेपाल मैत्री को बचाने के लिए भारत सरकार सीमा-प्रबंधन संवाद आयोजित करने के नेपाली आग्रह को तुरंत स्वीकार करे.
• नेपाल में चीनी हस्तक्षेप के कारण भारतीय और नेपाली लोगों के मधुर संबंध कमज़ोर नहीं होने दिया जाएगा
• नेपाल के साथ विवाद के जरिये आपदा से ध्यान भटकाने की कोशिश न की जाए

भारत और नेपाल द्वारा कालापानी क्षेत्र के प्रकाशित विरोधाभासी मानचित्र को लेकर पैदा विवाद दोनों देशों के नागरिकों के लिए चिंता का विषय है।जिस समय चीन लद्दाख क्षेत्र में सीमा के अतिक्रमण का प्रयास कर रहा है उसी समय इस विवाद का तूल पकड़ना इसके तुरंत समाधान की मांग करता है। स्वराज इंडिया का मानना है कि इस विवाद के अंतर्राष्ट्रीय आयामों को देखते हुए भारत सरकार को दोनों देशों के बीच सर्वोच्च स्तर पर तत्काल संवाद की पहल करनी चाहिए ताकि इससे भारत नेपाल के अनूठे रिश्ते की निर्मलता बनी रह सके।

भारत और नेपाल का रिश्ता सिर्फ दो देशों की विदेश नीति का मामला नहीं है। एशिया में भारत और नेपाल दो ऐसे पडोसी देश हैं जिनके बीच के रिश्तों की बुनियाद में भूगोल और राजनीति से जादा संस्कृति की एकता, आर्थिक अभिन्नता, और विदेशी और देशी शोषकों (भारत में ब्रिटिश राज और नेपाल में राणाशाही ) से स्वराज के लिए संघर्ष में ऐतिहासिक साझेदारी के ताज़ा इतिहास का ज्यादा योगदान है। आकार और जनसँख्या की अतुलनीयता के बावजूद दोनों देशों के साधारण स्त्री-पुरुष दरिद्रता, अशिक्षा, बीमारी, बेरोजगारी और पर्यावरण प्रबंधन की लगभग एक जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। दुनिया की महाशक्तियों की दखलंदाजी की कोशिशों और सरहद की १८०० किलोमीटर की लम्बाई के बावजूद दोनों देशों के नागरिकों के निर्बाध आवागमन की व्यवस्था होना बाकी देशों के लिए अनुकरणीय माना जाता रहा है। इसलिए भारत-नेपाल के रिश्तों में निरंतर संवाद और सहयोग के आधार पर निर्मलता बनाये रखना दोनों देशों की, सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र की और एशिया की आवश्यकता है। नेपाल में चीनी हस्तक्षेप के कारण भारतीय और नेपाली लोगों के बीच मधुर संबंध को कमज़ोर नहीं होने दिया जाएगा।

दोनों देशों के बीच कालापानी-लिम्पियाधुरा-लिपुलेख ला त्रिकोण के ४०० वर्ग किलोमीटर भूभाग को लेकर विवाद कोई नई बात नहीं है। महाकाली नदी के उद्गम, कैलाश-मानसरोवर तीर्थयात्रा और भारत-नेपाल-तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के मिलन बिंदु के रूप में यह  भूभाग भारत, नेपाल और चीन तीनों के लिए अत्यधिक महत्त्व का है। इस विवाद को सुलझाने की कोशिश भी बहुत समय से चल रही है। इस सन्दर्भ में भारत और नेपाल द्वारा १८१६ के ब्रिटिश राज के दौरान के सुगौली समझौता से आगे जाने के लिए १९८१ की ‘सीमा सम्बन्धी संयुक्त तकनीकी समिति’  से लेकर १९९६ के महाकाली समझौता तक सीमा-प्रबंधन के बारे में की गयी पहलों ने भारत-नेपाल संवाद की व्यवस्था को मजबूती दी है। इधर के वर्षों में कालापानी और कोसी जलप्रबंधन समेत सीमा क्षेत्र के कुछ प्रश्नों को लेकर संबंधों में तनाव आया है।  नेपाल की राजनीति में इसे ‘भारत के विस्तारवाद’ के रूप में और भारत में इसे नेपाल को ‘चीनी कूटनीति का मुहरा’ बनने के उदाहरण बताने की एक चिंतनीय प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा है। इस पृष्ठभूमि में भारत द्वारा २ नवम्बर २०१९ को प्रकाशित मानचित्र और नेपाल द्वारा १८ मई २०२० को प्रकाशित मानचित्र को लेकर पैदा विवाद और इसके अंतर्राष्ट्रीय आयामों ने दोनों तरफ से सर्वोच्च स्तर पर तत्काल संवाद की पहल को अनिवार्य बना दिया है।

इस मामले में पहल भारत सरकार को करनी होगी। बेशक, भारत-नेपाल सम्बन्ध के हर मुद्दे की तरह यह विवाद भी नेपाल की राजनीती के अंदरूनी समीकरण में उलझा हुआ है। बेशक, नेपाल की तरफ से प्रधान मंत्री श्री के. पी. ओली की तरफ से संसद में यह सार्वजनिक बयान आना चिंताजनक है कि भारत कालापानी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख ला के मामले में सत्य की बजाय शक्ति का रास्ता अपनाने पर तुला हुआ है। इस प्रसंग में नेपाल के विदेशमंत्री श्री प्रदीप कुमार ग्यावली का यह वक्तव्य तो और भी आश्चर्यजनक है कि हमारी सरकार  इस मामले में नेपाल के विरोधपत्रों की उपेक्षा करती रही है। एक बड़ा देश होने के नाते भारत की जिम्मेवारी है की वह इस मामले को शांत कूटनीति से सुलटा ले। इसकी बजाय भारत सरकार की तरफ से भड़काऊ बयानों ने स्थिति को और बिगाड़ दिया है। हमारे सेनाध्यक्ष द्वारा नेपाल के खिलाफ चीन से इशारे पर काम करने का खुला आरोप अप्रत्याशित और अमर्यादित प्रतीत होता है। यह आशंका बढ़ रही है कि भारत सरकार की अदूरदर्शिता से परंपरागत मित्र पड़ोसियों के साथ भी संबंधों में खटास पैदा हो रही है। इसी रवैये के चलते इधर के वर्षों में श्रीलंका और भूटान की भारत से दूरी और चीन से नजदीकी बढ़ी है। नागरिकता कानून के विवाद में बेवजह बांग्लादेश को घसीटने से वहां भी तनाव पैदा हुआ है। अब नेपाल से भी तनातनी का मतलब होगा एक और पड़ोसी मित्र से झगड़ा मोल लेना। चारों ओर पड़ोसियों से विवाद में घिरने को विदेश नीति की घोर असफसलता के रूप में देखा जाना चाहिए। साथ ही देश की जनता इस बात को नहीं स्वीकारेगी कि नेपाल के साथ विवाद के जरिये आपदा की विफलताओं से ध्यान भटकाने की कोशिश हो।

इसलिए स्वराज इंडिया भारत सरकार से मांग करती है कि भारत-नेपाल मैत्री को अविश्वास और आशंका से बचाने के लिए सीमा-प्रबंधन संवाद आयोजित करने के नेपाल सरकार के आग्रह को तुरंत स्वीकार किया जाय। यह भारत की ‘हिमालय नीति’ में लम्बे अरसे से व्याप्त खतरनाक अधूरेपन को भी दूर करने की शुरुआत होगी। हम दोनों देशों के नेतृत्व से आग्रह करते हैं कि अविलम्ब सर्वोच्च स्तर पर संवाद को प्राथमिकता दी जाये। हम भारत और नेपाल के शुभचिंतक व्यक्तियों, संगठनों और संस्थाओं से भी इस काम में रचनात्मक योगदान की अपील करते हैं।

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