उमेश जोशी

 निकट भविष्य में कोई करिश्मा होने की उम्मीद नहीं है। पूरे देश पर खास तौर से मरघटी मजबूरी में फंसे मज़दूरों पर  नाउम्मीदी की चादर फैली हुई है जिससे वे भारी घुटन महसूस कर रहे हैं। मज़दूरों की पीड़ा का कोई अंत नहीं है। रोज़ाना हज़ारों की संख्या में मजदूर घर जाने के लिए सड़कों पर उतर कर चिलचिलाती धूप में बस मिलने की अपनी बारी का इंतज़ार करते हैं। भूख प्यास उनकी संगिनी हो गई है। सरकार से कोई उम्मीद नहीं है। किसी दयालु से खाने को कुछ मिल गया तो खा लिया वरना सरकारी इंतजामात को कोसते हुए अपनी निगाहें उस दिशा में टिकाए बैठे रहते है जिस दिशा से बस आने की उम्मीद है।   

मज़दूर का अब सिर्फ एक मिशन है कि उसे घर जाना है, चाहे कैसे भी जाए। सैकड़ों किलोमीटर दूर घर जाने के लिए कुछ मज़दूर तो पैदल ही निकल रहे हैं; यह उनका दुस्साहस नहीं है बल्कि सरकारी रवैये से मिली मायूसी का नतीजा है।

एक चार्टर्ड अकाउंटेंट ने अर्थव्यवस्था की भावी तस्वीर पर बातचीत करते हुए अपने भाई की आपबीती का ज़िक्र किया। उनका भाई हिमाचल प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र बद्दी में किसी बड़ी कंपनी में अधिकारी है। उस कंपनी में एक हज़ार से अधिक मज़दूर काम करते हैं। फैक्ट्री परिसर में सभी मज़दूरों को एक एक कमरे का घर दिया हुआ है। फिर भी मज़दूर वहां नहीं रहना चाहते। उन्हें रोकने के लिए कंपनी के यह भी घोषणा कर दी है कि उनको राशन भी दिया जाएगा। इसके बावजूद मज़दूर नहीं रूकना चाहता। वह किसी भी कीमत पर घर जाना चाहता है। आज हालत यह हो गई है कि बद्दी औद्योगिक क्षेत्र में एक मज़दूर नहीं है।    

 मज़दूरों के बिना क्या फैक्टरियाँ चल पाएंगी?  इस सवाल का सीधा और एक ही जवाब है, कतई नहीं। अर्थव्यवस्था की रीढ़ एमएसएमई क्षेत्र ने एक लाख करोड़ के पैकेज की मांग की थी। सरकार ने तीन लाख करोड़ का पैकेज दिया है। त्रासदी यह है कि तीन गुणा पाने के बावजूद उद्यमी फैक्टरियाँ नहीं चला पाएंगे। मज़दूर घर जाने के बाद जल्दी लौटने का नाम नहीं लेगा यानी अनिश्चितकाल के लिए फैक्टरियाँ खुलने के आसार नजर नहीं आ रहे। 

कोई उद्यमी स्थानीय मज़दूरों को जुटा कर फैक्ट्री का गेट खोल भी लगा तो उसे कई और चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। फैक्ट्री चलाने के लिए मज़दूर के अलावा दो और अहम फैक्टर काम करते हैं- कच्चा माल और बाजार। 

क्या गारंटी है कि पर्याप्त कच्चा माल आसानी से मिल जाएगा। हो सकता है कि कच्चा माल तैयार करने वाली इकाइयां भी श्रमिक समस्या से जूझ रही हों। यह भी सम्भावना है कि कच्चे माल की पर्याप्त आपूर्ति ना होने के कारण ऊंचे दामों पर मिले। ऐसे हालात में उत्पादन लागत बढ़ेगी। नतीजतन, दाम भी बढ़ाने पड़ेंगे। जिस अर्थव्यवस्था में क्रय शक्ति लगातार गिर रही हो, उसमें महंगा माल सिर्फ शोरूम की शोभा बढ़ाएगा। माल बिकेगा ही नहीं तो बनेगा भी नहीं। कुछ समय बाद इकाइयां फिर बंद करनी पड़ सकती हैं। चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात।

  परामर्श कंपनी ऑर्थर डी लिटिल का अनुमान है कि कोरोना से उत्पन्न स्थितियों के कारण देश में साढ़े 13 करोड़ लोग बेरोज़गार हो जाएंगे। इनमें से 12 करोड़ गरीबी के गर्त में चले जाएंगे। इनमें से भी चार करोड़ भीषण गरीबी की चपेट में आ जाएंगे। एक मज़दूर औसतन पांच लोगों का पेट पालता है। इस हिसाब से 65 करोड़ से अधिक लोगों से सामने बुनियादी जरूरतों की आपूर्ति का संकट खड़ा होगा; 20 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हो सकते हैं।    

भारी संख्या में लोग बेरोजगार होंगे, नई नौकरियों का सृजन नहीं होगा। मध्यम वर्ग के  लोगों के पास जो थोड़ी बहुत बचत थी वो भी धीरे धीरे खत्म हो रही है। मध्यम वर्गीय लोग भविष्य में एक एक पैसा बहुत फूंक फूंक कर खर्च करेंगे। रोटी और रोजमर्रा की चीज़ों पर खर्च करने के सिवाय कोई सोच भी नहीं पाएगा। इन हालात में बाज़ार में ग्राहक कहीं नहीं दिखेगा। जब ग्राहक ही नहीं होगा तो कोई उद्यमी उत्पादन करने की हिम्मत कैसे जुटाएगा?

सरकार को मौजूदा हालात में दुधारी नीति अपनानी होगी। उत्पादन शुरू करने के साथ आम आदमी की आमदनी  बढ़ा कर क्रय शक्ति बढ़ाने की नीति भी तैयार करनी होगी। सरकार पहले मांग आधारित बाज़ार तैयार करे, उसके बाद उत्पादन शुरू करने की नीति अपनाए।

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