‘देखो रूठा ना करो, बात मित्रों की सुनो……’

अजीत सिंह

रूठना, मनाना और मान जाना मानवीय व्यव्हार की कुछ अजीब सी मानसिक क्रियाएं हैं। इनका चलन यूं तो आदि काल से देखा जा सकता है पर स्मार्टफोन और व्हाट्सएप के आने के बाद इनका अलग ही रूप देखने को मिल रहा है।

रूठने की शुरुआत किसी बात पर नाराज़ होने से होती है। प्रारम्भिक लक्षण बोलचाल बंद होने के रूप में देखे जा सकते हैं।

व्हाटसएप के कारण क्योंकि संवाद का दायरा बहुत बढ़ गया है, इसीलिए रूठने, मनाने और मान जाने के अवसर भी बढ़ गए हैं।

आजकल दूर चले जाने पर भी व्यक्तियों का संपर्क नहीं टूटता। व्हाटसएप , फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया रूप उन्हे जोड़े ही रखते हैं। मित्रता का दायरा बहुत ही व्यापक हो गया है। सस्ता और आसान भी हो गया है।

आजकल बच्चे, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष घण्टों स्मार्टफोन पर व्यस्त देखे जा सकते हैं। वे अपने आप ही मुस्कुराते और उत्साहित हो अपना उत्तर टाइप करते रहते हैं। इस प्रक्रिया से व्यक्ति का नज़रों से दूर बैठे व्यक्तियों से संपर्क बढ़ा है, पर नज़रों के सामने आसपास और पड़ोस के व्यक्तियों से बहुत ही कम हो गया है। इसे वर्टिकल यूनिटी बढ़ने और हॉरिजॉन्टल यूनिटी घटने के रूप में भी समझा जा सकता है।

खैर बात सोशल मीडिया के दौर में रूठने, मनाने और मान जाने की हो रही थी, तो उसी पर लौटते हुए कह सकते हैं कि आजकल पट दोस्ती और चट नाराज़गी का दौर भी चलने लगा है। अक्सर दोस्त किसी विषय को लेकर बहस में उलझते रहते हैं। फटाफट संदेशों के छक्के लग रहे होते हैं। मित्रता है तो अनोपचारिकता भी होगी और थोड़ी बहुत टांग खिचाई भी चलेगी। बस यही समय होता है कि कोई भाई कुछ कह कर या बिना कहे ही ‘लेफ्ट’ हो जाता है, यानि ग्रुप छोड़ जाता है। जो बिना कहे छोड़ जाते हैं, उनके बारे में पहले तो यही समझा जाता है कि उनसे कोई ग़लत बटन दब गया होगा तो उन्हे ‘इन्वाइट रिक्वेस्ट’ भेज कर अक्सर मना लिया जाता है।

जो मेसेज छोड़ कर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए चले जाते हैं, उन्हे मनाने का दौर शुरू होता है, जो चंद घंटे या चंद दिनों तक चल सकता है। आने वाले अक्सर आ जाते हैं पर उनका पुराना जोश वापिस नहीं आता या फिर उसे आने में लंबा समय लग जाता है।

नाराज़गी का अक्सर कारण फरवार्डेड मेसेज होते हैं यानि ऐसे संदेश जो हमारे पास कहीं से आते हैं और हम बिना कुछ गंभीर विचार के उसे अपने ग्रुप में धकेल देते हैं जहां कोई मित्र उस पर आपत्ति उठा देता है और इस बहसबाजी में कोई न कोई नाराज़ हो ग्रुप छोड़ जाता है। ये उड़ते फिरते मेसेज कई दोस्तियां खराब कर जाते हैं। इनसे बचना जरूरी है। यह न सोचें कि आप यह कह कर बच जाएंगे कि आपने तो केवल फॉरवर्ड किया था। आपकी कानूनी ज़िम्मेदारी भी उतनी ही है जितनी उस व्यक्ति की जिसने वह आपत्तिजनक मेसेज बनाकर पहली बार भेजा था। भेजने का सीधा मतलब है आप सहमति के साथ वह संदेश आगे भेज रहे हैं। आप निरपेक्ष नहीं हो सकते। सावधान रहिए। मित्रों को नाराज़ न करें।

आइए अब लगे हाथ पुराने ज़माने में रूठने, मनाने और मान जाने की बात करते हैं। यह अदा अक्सर युवा प्रेमियों में देखी जाती थी। अक्सर प्रेमिका नाराज़ होती थी और प्रेमी उसे मनाता था। आपने वह गाना तो सुना होगा,

‘रूठ कर पहले उनको सताऊंगी मैं, जब मनाएंगे तो मान जाऊंगी मैं…..’

ऐसा रूठना केवल नखरे दिखाने की अदा होती है। ऐसी अदाओं से प्रेम गहरा होता है। और बानगी देखिए…

‘तुम रूठी रहो,
मैं मनाता रहूं,
तो मज़ा जीने का
और आ जाता है…’
या फिर,
‘देखो रूठा न करो,
बात नज़रों की सुनो,
हम न बोलेंगे कभी,
तुम सताया न करो..’
और यह भी,
‘अजी, रूठ कर अब
कहां जाएगा,
जहां जाइयेगा,
हमें पाएगा….’

पंजाबी के शीर्ष कवि प्रो मोहन सिंह की एक कविता में प्रेमिका लंबे समय बाद लौटने वाले अपने प्रेमी से नाराज़ हो रूठने का मन बनाती है पर जब वो सामने आता है, तो खिड़ खिड़ हंस पड़ती है…

एक और बात। कभी किसी एक के रूठने पर दूसरे को भी नहीं रूठ जाना चाहिए। वो गीत है ना….

‘असिं दोवें रूस जाईए,
ते मनाऊ कौन वे…’

लगता है रूठने का अधिकार जैसे महिलाओं का ही एकाधिकार है। तभी तो हमारे पिताजी बचपन में हमें धमकाते हुए कहते थे, ‘क्यों औरतों की तरह टसुए बहा रहा है’।

बस ऐसी ही बातों से हम रोना भूलते गए और पत्थर दिल बनते गए। औरतों के दिल आज भी ज़्यादा मानवीय हैं। वे झट से आंसू बहा मन हल्का कर लेती हैं।

एक बात और बताऊं। हमारे गांव में लड़के की शादी के वक्त भाई बंधुओं के रूठने का बड़ा रिवाज़ था। लड़के का पिता साथियों और बुजुर्गों को लेकर नाराज़ व्यक्ति को मनाने जाता था। उसकी शिकायत सुनता था। हाथ जोड़ कर सब बातों की माफी मांगता था। यह ज़रूर कहता था, ‘भाई, तेरे भतीजे का ब्याह है और तुझे ही करना है। तेरे बिना मैं कुछ नहीं कर सकता’। बस इतनी सी बात पर सारे गिले शिकवे फुर्र हो जाते थे। फिर तो नाराज़ हुआ व्यक्ति ही सबसे आगे शादी के प्रबंध देखता था।

कहां गए वो दिन जब कहते थे, ‘फटे को सीये नहीं,

और रूठे को मनाएं नहीं,
तो काम कैसे चलेगा!’

आजकल कोई पूछता भी नहीं कि शादी में कोई आया भी कि नहीं…

आखिर में मैं यह भी बताता चलूं कि एक दो बार मेरा भी मन किया है कि मैं यह ग्रुप ‘लेफ्ट’ कर दूं। पर फिर खयाल आया कि अगर किसी ने न मनाया तो फिर क्या होगा। कोई कह सकता है, ‘गुड रिडैंस यानि अच्छा हुआ, छुटकारा मिला’।

यह तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी। इतने प्यारे, इतने सारे दोस्तों को छोड़ कर जाने पर। बस इसी ख्याल से नाराज़गी का घूंट पी कर हम चुप रहते हैं। यारों को पता भी नहीं लगने देते कि हम नाराज़ हुए थे।

और फिर दो चार दिन में ऐसा मौका आता है कि हम खिड़ खिड़ हंस पड़ते हैं।
या फिर कोई लेख लिख लेते हैं।
तो मित्रो, रूठिए मत, कोई रूठ जाए तो मनाते रहिए और मान जाते रहिए…

….(लेखक हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे दूरदर्शन हिसार के समाचार निदेशक रह चुके हैं।)

You May Have Missed

error: Content is protected !!