1947 के विभाजन का दर्द – बुज्रुगों की जुबानी

डॉ. त्रिलोक नाथ आहूजा,… प्रधान, निरामया चैरिटेबल ट्रस्ट, गुरुग्राम

मेरा नाम डॉ. त्रिलोक नाथ आहूजा है | 21 जनवरी को मैं 77 वर्ष का हो जाऊंगा | वैचारिक मंच के आदेशानुसार जो महानुभाव 80 वर्ष या उससे अधिक हो चुके है वे अपनी विभाजन की कहानी इस पर शेयर करें | श्री ओ. पी. भूटानी जी मेरे बड़े भ्राता तुल्य है उनके विशेष आग्रह पर जो इस समय मेरी स्मृति में है कुछ शब्द लिख रहा हूँ |

गुडगाँव जो कि आजकल गुरुग्राम के नाम से है , मैं इसमें पिछले 50 वर्षों से अधिक नेत्र सेवा में संलग्न हूँ और आपके बीच हूँ | पहले 34 वर्ष आर्य वीर नेत्र चिकित्सालय (हर रविवार) और अब 16 वर्षों से अधिक निरामया चैरिटेबल ट्रस्ट के माध्यम से नेत्र चिकित्सा सेवा में लगा हुआ हूँ |

वास्तव में विभाजन की अमर कहानी के बारे में बात करें तो मेरे मन के अन्दर कुछ समय की धुंधली तस्वीर बन जाती है क्योंकि मैं साढ़े तीन साल का था | आहूजा परिवार जिला डेरा गाजी खान, तहसील तौंसा और गाँव मंगरोठा में रहता था | बहुत बड़ा परिवार था | मेरे पिताजी 5 भाई और 2 बहने थी | दादा जी का नाम श्री तोलाराम आहूजा और दादी जी का नाम श्रीमती राम प्यारी जी था | अच्छी तरह याद है जब भारत का विभाजन हुआ हमारा परिवार पूरी तरह से सुरक्षित पानीपत आ गया | परन्तु जीवन यापन के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे और हमें भूख-प्यास और गरीबी का सामना करना पड़ा | भारत के विभाजन के पश्चात् मेरे पिताजी के एक चचेरे भाई दीवान मथुरादास आहूजा करनाल में सब डिवीज़नल मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त थे और उन्होंने इस बड़े परिवार को एक बहुत बड़ा किला नुमा घर पानीपत में आबंटित करवा दिया जो कि बेनामी संपत्ति थी जिसको सरकार ने बाद में बेच दिया | हम एक संयुक्त परिवार के रूप में वहाँ रहे | जैसे – जैसे जिसको जिस शहर में काम मिला वह वहाँ से प्रस्थान कर गया |

मेरे होश में मैं पानीपत में एक सरकारी स्कूल में दूसरी-तीसरी कक्षा में पढ़ता था जिसमें मास्टर थारिया राम दोनों कक्षाओं को एक साथ पढ़ाते थे | आधा समय दूसरी कक्षा को और आधा समय तीसरी कक्षा को | हम तीन भाई और चार बहनों का परिवार है | मेरे पिताजी केवल उर्दू जानते थे उन्होंने पानीपत मॉडल टाउन में एक किरयाने की दुकान खोली हम सारे भाई – बहन, माता-पिता इसी दुकान में सहयोग करते थे | तब ही घर का बड़ी मुश्किल से निर्वाह होता था | नौवीं कक्षा तक मैं तो पिताजी के साथ दुकान में ही रहता था और वहीँ से ही स्कूल आता-जाता था | स्कूल में टायर की चप्पल और फातेदार पजामा पहनते थे | स्कूल की फ़ीस बहुत मुश्किल से दे पाते थे | जिस स्कूल में फ़ीस कम होती थी उस स्कूल में स्थानांतरित करा लेते थे | दसवीं कक्षा तक मुझे तीन स्कूल बदलने पड़े | आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी | परन्तु कुछ बनना भी, एक बहुत बड़ी चुनौती थी | स्कूल फ़ीस न होने के कारण मेरी बहनों ने दूरस्थ माध्यम से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और बाद में नौकरी के साथ-साथ अपनी आगे कि पढ़ाई पूरी की | मैंने जो डॉक्टर की पढ़ाई दिल्ली में रहकर की | मैंने रात्रि में नौकरी की और दिन में डॉक्टर की पढ़ाई की | इस आर्थिक स्थिति को सुधरने में एक पीढ़ी लग गयी |

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