वोटों के लिए मंच से वायदों की झड़ी लगाने का पराक्रम 74 साल में कोई प्रधानमंत्री साहेब की तरह नहीं कर पाया।चेहरे बदलने से व्यवस्थाएं नहीं बदलेगी, मनमोहन या मोदी के बदलने से भी नही। साहेब सिर्फ नेहरू की सीरत का 10 प्रतिशत ही ले आइये तो आप इस सूरत में भी देश को स्वीकार हैं, इसीलिए कहा आसान नहीं है नेहरू होना। अशोक कुमार कौशिक आरएसएस के प्रचारक रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्रीय रणनीति नेहरू फोबिक है। उन्हें लगता है कि उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को बदनाम कर दिया तो देश को वो ये एहसास करवाने में कामयाब हो जाएंगे कि देश ने 1952 में आरएसएस और जनसंघ को ठुकरा कर गलती की। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनका मूल सन्गठन नेहरू की शुरुआती कार्य तो क्या उनके अंतिम कार्यकाल की भी बराबरी नहीं कर पाएंगे। नेहरू बनने के लिए सच्चाई की रोशनी में आना होगा। झूठ के आडम्बर को ओढ़कर कोई भी नेता ये सोचे कि वो नेहरू बन जायेगा तो वो एक बड़े मुगालते में है। नेहरू और मोदी के बीच के जमीन और आसमान के अंतर को समझने के लिए जवाहरलाल नेहरू द्वारा भारत के पहले लोकसभा चुनाव से पहले 12 दिसम्बर 1951 को इलाहाबाद में चुनाव सभा में दिए गए उनके भाषण पर एक नजर डालना होगा। इस भाषण की नरेंद्र मोदी के हर चुनावी भाषण से तुलना करते ही नेहरू के आगे नरेंद्र मोदी के कद के बौनेपन का अहसास हो जाएगा। इस भाषण में नेहरू ने कहा था, ‘ मैं आपसे ये नहीं कह सकता कि मैं लोकसभा का चुनाव लड़ रहा हूँ, इसलिए मुझे वोट दीजिये। मैं यहाँ यह भी नहीं कह सकता कि अगर आप मुझे वोट नहीं देंगे, तो मैं आपको छोड़कर चला जाऊंगा। आपको वोट देना है तो दीजिये, नहीं देना है तो मत दीजिये। मुझे कोई एतराज नहीं है। मैं यहां वोटों की भीख मांगने नहीं आया हूँ। ये बात अच्छी तरह से समझ लीजिये, चाहे वह इलाहाबाद हो, चाहे कोई दूसरी जगह, मैं कहीं भी न तो अपना बचाव करूंगा और न वोट देने की अपील करूंगा। यह बिल्कुल अजीब बात है कि जब मैंने अपना पूरा जीवन जनता की सेवा में बिता दिया और काफी अच्छा काम किया है। कुछ गलतियां भी की हैं। तो अब जब मेरी जिंदगी के चंद साल बाकी है तो मैं झूठे वायदे क्यों करूँ। ‘ये नेहरू थे जो अपनी गलतियों को भी स्वीकार रहे हैं और जीवन के अंतिम पड़ाव पर भारतीयों को धोखा देने के पाप से भी बच रहे हैं। इसके उलट नरेंद्र मोदी द्वारा उनकी लोकसभा कन्स्टिट्यूएन्सी में दिया गया पहला भाषण याद कीजिए। बनारस को क्योटो और मां गंगा द्वारा बुलाये जाने के कारण गंगा को निर्मल बनाने का वायदा। कितने पूरे हुए सर्वविदित है। देश से तो उन्होंने हर भाषण में बड़े बड़े वायदे किये। कितने प्रतिशत ये जमीन पर उतरे ये सामने हैं। वोटों के लिए मंच से वायदों की झड़ी लगाने का पराक्रम 74 साल में कोई प्रधानमंत्री उनकी तरह नहीं कर पाया। ये बात अलग है कि इनको मूर्त रूप मिला या नहीं मिला इसके निष्पक्ष आंकलन के लिए आवश्यक दस्तावेजों को भी ये छिपाए बैठे हैं। मां गंगा में कोरोना काल में तैरते शवों और बनारस में बैड के अभाव में दम तोड़ते लोगों के दर्द और मलहम रखते हुए भी उन्होंने ये बात स्वीकार नहीं की कि कोरोना में उनसे मैनेजमेंट की कमी हुई है। इसके उलट आरएसएस को इमेज थैरेपी पर लगाने के लिए विचार विमर्च करने लगे गए। आसान नहीं है नेहरू होना। देश की आज़ादी और उसके लोकतंत्र की नींव रखने वाले महापुरुष पंडित जवाहरलाल नेहरू, ऐसी हस्ती थे जिसके पार पाना किसी के बस की बात न थी। खुले विचारों के बाद भी धार्मिक, वामपंथी होकर भी सामाजिक, सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय का सिद्धांत को समेटे नेहरू जैसा न हुआ न हो सकता था। वे जो थे वही काँग्रेस की विचारधारा थी। देश के लिए सब करके भी कुछ लोगों द्वारा निशाना बनते हैं। 1917 में राजनीतिक सफर की शुरुआत की, यही वह साल था जब मोहनदास करमचंद गांधी ने चम्पारण के मोतिहारी में राजकुमार शुक्ल के आग्रह पर सत्याग्रह किया था। दो साल बाद मुलाकात हुई और गांधी-नेहरू जोड़ी के रूप में स्थापित हो गए। मोहनदास को महात्मा बनाने वाले नेहरू थे, उनकी मेहनत थी। कुछ लोग नेहरू को गांधी का शिष्य कहते हैं जो सरासर गलत है, वे उनके जोड़ीदार थे। उनके सर्वधर्म समभाव की नीति ने काँग्रेस को नई धार दी। लेनिन, माओत्से तुंग, बिस्मार्क, लिंकन आदि जनवादी नेताओं से प्रभावित नेहरू ने उन्हीं की तरह देश को संचालित किया। नेहरू के विचार उदार थे, लोकतांत्रिक थे, उनका मानना था कि विचारों को जितना दबाया जाएगा वे और मुखर लौटेंगे। इसीलिए वे कभी दबाने पर विश्वास नहीं रखे। चाहते तो प्रिंट मीडिया के 4 गुट की जगह एक से दो ही गुट को कायम रखते, जैसे टेश्री करते हैं। वामपंथ, दक्षिणपंथ, समाजवाद, पूंजीवाद, सामंतवाद के प्रवर्तकों को जीतेजी साथ लेकर चले। उन पर आरोप लगाने वाले उन्हें पढ़ेंगे समझेंगे तो जानेंगे वे क्या थे। आधुनिकीकरण राजीव लाए लेकिन आधुनिक भारत का निर्माण नेहरू ने किया। जिस चीज़ की आवश्यकता देश को थी वह दिया। विज्ञान, आयुर्विज्ञान हर क्षेत्र में भारत को अग्रणी कर गए। उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं का उपयोग आज भी विदेशी करते हैं। नेहरू व उनकी लोकतांत्रिक सोच के विरोधी राजतंत्र सोच के लोग थे। उन्हीं सामन्तवादी व पूंजीवादी व्यवस्था के पुजारियों ने हर तरह से प्रयास करके झुकाने का प्रयास किया पर विफल रहे। कभी करपात्री महाराज के रामराज्य परिषद का हिस्सा बने, वहाँ विफल रहे तो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से ‘स्वतंत्र पार्टी’ बनवाकर उसमें शामिल हो गए। उसमें भी विफल हुए तो जनसंघ का हिस्सा बनकर झुकाना चाहा। नेहरू के जीते जी वे कभी काँग्रेस को व देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को क्षति नहीं पहुँचा पाए तो उनके देहान्त के बहुत साल बाद 1976 में पार्टी में घुसकर पार्टी व देश को खोखला कर रहे हैं। आज तक कर रहे हैं। नेहरू जो नाम थे वह इस दूसरी तस्वीर में देखकर जान सकते हो क्या थे। पूरा भारत उनकी मृत्यु के शोक में डूब गया था। नेहरू के बाद शायद ही किसी नेता को जनता अंतिम दर्शन करने इस तरह सड़क पर उतरी होगी। यह नाम नेहरू ने कोई मीडिया के दम पर नहीं कमाया था, अपने बूते अपने कलेवर से कमाया था। आज उनके देहान्त के 57 सालों बाद उनके, उनके वंश व पार्टी के नाम पर जो झूठ प्रसारित है यदि वे रह ज़िन्द भी सुनते तो कहते किसी की घृणा व मानसिकता को कैद कैसे किया जाए? किन्तु उनके जीते ज़िंदगी कभी विरोधी इतने ताकतवर हुए ही नहीं। चेहरे बदलने से व्यवस्थाएं नहीं बदलेगी। मनमोहन या मोदी के बदलने से भी। साहेब सिर्फ नेहरू की सीरत का 10 प्रतिशत ही ले आइये तो आप इस सूरत में भी देश को स्वीकार हैं। इसीलिए कहा आसान नहीं है नेहरू होना। Post navigation राष्ट्र के प्रति समर्पण ही सच्ची राष्ट्र सेवा: डा. अभय सिंह मांदी से लहरोदा तक रोड भी होगा फोरलेन