– सरकार प्रचंड बहुमत इसलिए उन्होंने आंदोलनकारियों से कभी बात करने की ज़रूरत महसूस नहीं की । 
– मध्य प्रदेश की सरकार गिरते ही 4 घंटे के नोटिस पर पूरा देश बंद कर दिया
– चुनी हुई सरकारों को गिराना , विधायकों / सांसदो से इस्तीफ़ा दिलाकर उन्हें फिर से अपने टिकट पर चुनाव लड़वाना , विपक्षी सरकारों पर राज्यपालों से नकेल कसवाना, कम सीट जीतने के बाद प्रदेशों में सरकार बनानी हो , यह सब तानाशाही नहीं तो और क्या है?
– सरकार किसानो को सुनने की बजाय आंदोलन को पहले दिन से केवल बदनाम करने पर काम कर रही है
– विपक्ष कहाँ है, विपक्ष को हम ने मार डाला।
– लोकतंत्र में सरकार मज़बूत हो तो जनता लाचार और सरकार लाचार हो तो जनता मज़बूत होती है 

अशोक कुमार कौशिक 

कांशीराम अक्सर कहते थे कि मज़बूत सरकार शोषित तबक़े के लिए ठीक नहीं है , सरकारें लँगड़ी लूली होंगी तभी शोषित समाज की सुध लेंगी । आज की सरकार को देखते हुए उनकी बात को और आगे बढ़ाकर लिखा जा सकता है कि मज़बूत सरकार किसी भी तबक़े के लिए ठीक नहीं क्यूँकि मज़बूत सरकार का नेता अगर तानाशाह हो जाए तो वो किसी की नहीं सुनेगा ।

1971 में इंदिरा गांधी 352 लोकसभा सीट जीतकर सत्ता में आयी , इतनी सीट नेहरू जी भी केवल पहले चुनाव में जीत पाए थे । यह तब तक की सबसे मज़बूत सरकार थी । सरकार का विरोध शुरू हुआ । मज़दूर संगठनों से लेकर छात्र संगठन तक सरकार के विरोध में खड़े हो गए । इंदिरा ने विरोध को तानाशाही तरीक़े से कुचलने का प्रयास किया और आपातकाल घोषित कर दिया । आपातकाल घोषित होने से विरोधी और मज़बूत हो गए , पूरे देश में धरने प्रदर्शन शुरू हुए और इंदिरा को आपातकाल वापस लेकर चुनाव कराने पड़े । चुनाव हुए इंदिरा सत्ता से बाहर हुई , उन्हें अपनी सीट भी गँवानी पड़ी । इंदिरा के बाद राजीव गांधी को बहुमत हासिल हुआ लेकिन वो राजनीति में इतने परिपक्व नहीं थे इसलिए तानाशाही नहीं कर पाए । उसके बाद मोदी तक कोई भी प्रधानमंत्री अपने दम पर बहुमत नहीं पा सका । 

मोदी दो बार अपने दम पर प्रचंड बहुमत से जीते । उन्होंने भाजपा सरकार नहीं मोदी सरकार बनायी । 2014 के चुनाव में गलती से एक बार राजनाथ सिंह ने ‘अबकि बार भाजपा सरकार’ ट्वीट कर दिया था तो उन्हें यह ट्वीट डिलीट करना पड़ गया था । जनता ने वोट भाजपा को नहीं मोदी को दिया था ।

मोदी का पहला टर्म जैसे तैसे निकल गया । ना वो कोई काम कर सके और ना ही पूरे टर्म में कोई टकराव की स्थिति पैदा हुई । मॉब लिंचिंग , गो रक्षा के नाम पर घटनाएँ हुई लेकिन उसका विरोध सीमित रहा । लोगों की नौकरियाँ गयी , रोज़गार गए लेकिन विरोध नहीं हुआ । अर्थव्यवस्था बिगड़ी , नोटबंदी हुई , जीएसटी आयी लेकिन विरोध नहीं हुआ । चुनाव तक ऐसा लगने लगा कि मोदी की जीत इस बार मुश्किल है लेकिन अचानक पुलवामा हुआ , बालकोट हुआ और ईवीएम  ने फिर से मोदी को प्रचंड बहुमत से देश का प्रधानमंत्री घोषित कर दिया ।

दूसरा टर्म मिलते ही वो तानाशाही शुरू हुई जिसके लिए कांशीराम कहते थे । चुनाव जीतते ही मोदी ने कश्मीर से धारा 370 हटा दी और पूरे कश्मीर को बंद कर दिया । वहाँ का इंटरनेट बंद , वहाँ की विधानसभा भंग , कश्मीर को प्रदेश से केंद्र शासित बना दिया। विरोध हुआ लेकिन विरोध केवल कश्मीर में हुआ , इंटरनेट बंद था इसलिए खबरें वहाँ से नहीं निकली । उमर अब्दुल्ला , फारूक अब्दुल्ला , महबूबा मुफ़्ती समेत सभी नेता नज़रबंद थे या जेलों में बंद थे ।इसलिए विरोध बड़े स्तर पर दिखाई नहीं दिया , गोदी मीडिया ने वहाँ की केवल ऐसी खबरें दिखायी जिससे सरकार को फ़ायदा हो ।

फिर नागरिकता कानून आया । देश में भूचाल मच गया । नागरिकता से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है , अगर वो ही ना रही तो क्या करेंगे , इस डर से लोग सड़कों पर निकले , जगह जगह विरोध प्रदर्शन हुए , पूरा देश प्रदर्शनों का देश बन गया लेकिन प्रधानमंत्री ने एलान कर दिया कि प्रदर्शनकारियों को उनके कपड़ों से पहचानिये । इशारा साफ़ था कि देश के बहुसंख्यक चिंतित ना हो , यह सारी बेचैनी केवल मुसलमानो की है । देश के गृहमंत्री अलग अलग टीवी चैनल पर , चुनावी रैलियों में क्रोनोलोजी समझाने लगे कि कैसे पूरे देश में एनआरसी आएगा । हालाँकि एनआरसी का रिज़ल्ट असम में आ चुका है और समझ में आ गया है कि भारत जैसे विशाल और गरीब देश में एनआरसी लागू करना बहुत मुश्किल है लेकिन फिर भी एक बड़ा वर्ग केवल इस पर ही ख़ुश था कि विशेष धर्म के लोग सड़कों पर है और परेशान हैं । जगह जगह धरने देने वालों पर लाठियाँ चली , गोली चली , गोली से 21 लोग शहीद हुए , हज़ारों लोग जेल गए , अनगिनत लोगों पर मुक़दमे लगे जो आज भी कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं लेकिन सरकार प्रचंड बहुमत की थी इसलिए उन्होंने आंदोलनकारियों से कभी बात करने की ज़रूरत महसूस नहीं की । 

फिर कोरोना आ गया और यह मामला कुछ दिन के ठंडे बस्ते में चला गया । कोरोना से निबटने में भी तानाशाही दिखी । नमस्ते ट्रम्प और मध्य प्रदेश की सरकार गिराने के चक्कर में कोरोना की ख़बरों को दबाया गया। याद कीजिए कुछ कांग्रेसी सांसद राज्य सभा में मास्क लगाकर आ गए थे तो वैंकय्या नायडू कितने नाराज़ हो गए थे । मध्य प्रदेश की सरकार गिरते ही 4 घंटे के नोटिस पर पूरा देश बंद कर दिया गया । करोड़ों मज़दूर सड़क पर हज़ारों किमी पैदल चलकर अपने घर पहुँचे , सेंकड़ो मज़दूर मारे गए लेकिन सरकार प्रचंड बहुमत लिए हुई थी इसलिए परेशान नहीं हुई । पीएम केयर फंड बना जो इतना पवित्र है कि उस पर कोई उँगली उठाने की जुर्रत नहीं कर सकता । जो एक प्राइवेट फंड है इसलिए उसकी जानकारी नहीं मिल सकती लेकिन PSUs से उसमें पैसा डाला जा सकता है । यह प्रचंड बहुमत का ही असर है कि प्रधानमंत्री लॉक्डाउन लगाने से पहले देश के सभी बड़े सम्पादकों , पत्रकारो को बुलाकर उन्हें आदेश दे देते हैं कि कोरोना काल में सब कुछ पॉज़िटिव ही दिखाना है ।

चुनी हुई सरकारों को गिराना हो , विधायकों / सांसदो से इस्तीफ़ा दिलाकर उन्हें फिर से अपने टिकट पर चुनाव लड़वाना हो , विपक्षी सरकारों पर राज्यपालों से नकेल कसवाना हो , कम सीट जीतने के बाद प्रदेशों में सरकार बनानी हो , यह सब तानाशाही नहीं तो और क्या है ? पांडिचेरी इसका नवीनतम उदाहरण है। सीबी , ईडी , न्यायालय , चुनाव आयोग , मीडिया समेत किसी भी निष्पक्ष संस्था का इस प्रचंड बहुमत में क्या हाल हुआ है , यह किसी से छिपा नहीं है ।

आज किसान सड़क पर है । आज़ाद भारत में शायद ही किसान कभी इतनी बड़ी तादाद में सड़क पर निकले हो । आज़ाद भारत का इतिहास उठा लीजिए , किसी सरकार में इतनी हिम्मत नहीं रही कि किसानो के इतने लम्बे आंदोलन को झेला हो । सरकार किसानो को सुनने की बजाय आंदोलन को पहले दिन से केवल बदनाम करने पर काम कर रही है । किसानो को पाकिस्तानी , ख़ालिस्तानी, टुकड़े टुकड़े गैंग बताया जा रहा है । उन्हें परजीवी आंदोलनजीवी बोला जा रहा है । वहाँ बैठी किसान महिलाओं के लिए सोशल मीडिया पर सरकार समर्थक अभद्र भाषा लिख रहे हैं । यह ताक़त प्रचंड बहुमत से ही तो मिली है सरकार को ।

निजीकरण के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू हो चुके हैं , सरकार लगभग सभी सरकारी संस्थानो को बेचने पर आमादा है । जनता अभी भी तिलिस्म में है , वो शायद समझ नहीं पा रही है कि यह सरकारी संस्थान वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों के नहीं आपके हैं । इससे तकलीफ़ केवल कर्मचारियों को नहीं होगी आपको भी होगी । जनता सोचकर देखे कि आज तक किस एक क्षेत्र के निजीकरण से उन्हें लाभ मिला है ? शिक्षा , स्वास्थ्य , खेती जैसे क्षेत्रों पर भी अगर निजीकरण का पूरा क़ब्ज़ा हो गया तो आने वाली स्थिति क्या होगी इसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है । प्रचंड बहुमत की सरकार जिसे पाँच साल बाद फिर से वोट माँगने आना है अगर वो इतनी तानाशाही दिखा सकते हैं तो फिर जो इन क्षेत्रों के मालिक बन जाएँगे , जिन्हें वोट भी नहीं चाहिए , जिनका मक़सद ही मुनाफ़ा कमाना है , वो क्या करेंगे ?

–  विपक्ष कहाँ है…

पिछले कई महीनों से देश में किसान आंदोलन, निजी करण व पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स के दामों में वृद्धि को लेकर हाहाकार मचा हुआ है और विपक्ष की तरफ एक अजीब सी ख़ामोशी छाई हुई है। अमूमन देश की विपक्षी पार्टियां ऐसे मौकों की तलाश में रहती हैं । क्योंकि यही उनकी रोजी रोटी है, फिर भी इनकी तरफ से कोई पहल नहीं हो रही। जैसा कि हर बार होता है, और लोगों ने देखा भी है कि किस प्रकार छोटे छोटे मुद्दों को लेकर कभी “भारत बन्द” तो कभी “चक्का जाम” और कभी कभी तो लोकसभा के दोनों सदन हफ़्तों तक स्थगित रहा करते थे। फिर क्या हो गया है विपक्ष को? वह क्यों नहीं सड़कों पर उतर रहा है? क्यों नहीं सरकार को घेर रहा है? आइये जानते हैं।

इस दुनिया में हर (सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, वैज्ञानिक सभी) मसले के जानने के दो तरीके होते हैं- सैद्धांतिक व प्रायोगिक। मसले की सैद्धांतिक जानकारी हमें किताबों से मिलती है। प्रायोगिक पहलू उसी सिद्धान्त का व्यावहारिक स्वरूप होता है। मसलन, हमें यदि किसी को ज्वालामुखी के बारे बताना है तो तो उसके दो तरीके हैं – या तो उस व्यक्ति को सीधे ज्वालामुखी के मुहाने के दर्शन करा दिए जाएं या फिर उसे अनुभवी लेखकों द्वारा लिखी किताबों के माध्यम से समझाया जाये। अब हर किसी को ज्वालामुखी का दर्शन करवाना मुश्किल है। इसलिए किताबी ज्ञान पर ज्यादा जोर दिया जाता है।जाहिर है, जो लेखक ज्वालामुखी के जितने पास तक गया होगा, उसकी किताब उतनी ही ज्यादा विश्वसनीय होगी। अब जरा उस विद्यार्थी के लेवल का अंदाजा लगाइए जिसने किताब भी पढ़ी है और ज्वालामुखी के दर्शन भी किये हैं। यहाँ भी वही हो रहा है।

बीजेपी को विपक्ष में रहने का 60 सालों का अनुभव है और कमोबेश उतने ही सालों तक सरकार चलाने का अनुभव कांग्रेस के पास है। अब समस्या ये है कि जिसे समस्या और समस्या के निदान-दोनों के बारे में पता है वो विपक्ष में है और धरना प्रदर्शन के नाम पर बवाल काटने वाले सत्ता में हैं।
हर छोटी बात पर ट्रेन फूंक देना, आगजनी करना, बन्द बुला देना- सत्तापक्ष ये सब नहीं करता। लेकिन बीजेपी, वो यही सब कर के आज यहाँ तक पहुंची है। सैद्धांतिक रूप से सत्ता बेशक बीजेपी के पास है । लेकिन इन्हें सरकार चलाने का अनुभव नहीं है। विपक्ष (खासकर कांग्रेस) के पास दोनों कामों का अनुभव है। ये अंग्रेजों के खिलाफ विपक्ष में भी रहे हैं और आजादी के बाद देश भी चलाये हैं। इसलिए इनका थ्योरी और प्रैक्टिकल दोनों मजबूत है।

अब सवाल उठता है कि आज विपक्ष सड़कों पर क्यों नहीं है? इसके भी कई पहलू हैं। पहला, तो ये कि जिन्होंने अपने हाथों से देश को सजाया है, संवारा है, वे लोग अपने ही संसाधनों के साथ तोड़फोड़, आगजनी, बन्द, सदन में गतिरोध पैदा करने में हिचकिचा रहे होंगे। दूसरा, कभी कभी एक मिनट की खामोशी घण्टों की बकैती पर भारी पड़ जाती है। देश में नेतृत्व कैसा होना चाहिए ये बताने के लिए आज विपक्ष को कोई विरोध प्रदर्शन, चक्का जाम, हल्ला बोल और भारत बन्द करने की जरूरत नहीं पड़ी।

अपने आप ये मेसेज चला गया कि कैसे 140 डॉलर का कच्चा तेल खरीदकर देश को 65  में जो पेट्रोल उपलब्ध हो रहा था जो आज 65 डॉलर पर भी नहीं हो पा रहा। बुरे से बुरे दौर में भी एलपीजी पर 150-250 रूपये तक की सब्सिडी आ रही थी, आज 50 रूपये भी नहीं आ रही।

बड़ी से बड़ी आपदाओं के वक्त भी ट्रेनों का संचालन नहीं रोका गया। किराया नहीं बढ़ने दिया। आज 6 महीने से बिना फेस्टिवल के फेस्टिवल ट्रेनें क्यों चल रही हैं।

तीसरी महत्त्वपूर्ण बात, हमने सदन को जितना विपक्ष दिया है वो उतना ही उछलेगा न। अब भेजेंगे 100 सांसद और चाहेंगे कि वे 135 करोड़ लोगों की आवाज बन जाएं । ऐसा मुमकिन है? उनका भी अपना क्षेत्र है। वहां की जनता है। आज सदन में यदि सशक्त विपक्ष होता तो टैक्सपेयर के पैसे से चल रही ये फुटानी कब की बन्द हो गयी होती।

लोकतंत्र में सरकार मज़बूत हो तो जनता लाचार होती है और सरकार लाचार हो तो जनता मज़बूत होती है , यह इस सरकार के कर्मों से साबित हो चुका है ।

वैसे सच यह है कि विपक्ष को हमने ही मार डाला है।

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