– यानी चित भी मेरी,पट भी मेरी,अंटा मेरे बाप का!
— मृतक कभी आंदोलित नही होते, आंदोलन जीवनदर्शन है , जो आंदोलित नही रहेगा वह मर जायेगा ।
– आन्दोलनजीविता, चैत्यन्तता का प्रमाण है।
— आंदोलनों के बूते तो वो लोग जिंदा रहते हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी जनहित के लिए कुर्बान कर दिया होता है।

अशोक कुमार कौशिक

 शब्द गढ़ने की आदत ने बेहद खूबसूरत शब्द गढ़वा दिया , ” आंदोलनजीवी ” । यथास्थितिजीवी का इससे अच्छा विपरीतार्थक शब्द नही हो सकता । आंदोलन प्रकृति का गुण है । प्रकृति निरंतर आंदोलन में रहती है , द्वंद में रहती है । प्रकृति आंदोलन जीवी होती है , मनुष्य को भी होना ही चाहिये । बीज और मिट्टी के परस्पर द्वंद से प्रकृति निर्मित भी होती है और विकसित भी  … मृतक कभी आंदोलित नही होते । आंदोलन जीवनदर्शन है । जो आंदोलित नही रहेगा वह मर जायेगा ।

सुनिये साहेब, हमारे गांधी से बड़ा ‘आंदोलनजीवी’ दुनिया के इतिहास में कोई दूसरा नहीं हुआ। वही गांधी जिसकी मूरत पर दुनिया भर में आप भी मत्था टेकते हैं। ख़ैर आप नहीं समझेंगे। आंदोलनों के बूते तो वो लोग जिंदा रहते हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी जनहित के लिए कुर्बान कर दिया होता है। जो दबे-कुचलों, शोषितों की आवाज़ बन जाते हैं। ऐसे लोगों का रहना-सोना, खाना-पीना सब आंदोलनों में ही होता है।

 अच्छी बिल्डिंग्स छोड़ आश्रम बना कर रहने वाला गाँधी कौन था? अफ्रीका से लेकर इंडिया तक एक के बाद एक आंदोलन खड़ा करके जिसने ब्रितानी हुकूमत की हालत ख़राब कर दी। निरंतर आंदोलन करने और सालों जेल में सड़ने वाला मंडेला, अश्वेतों का लूथर कौन था? सुभाष अपने घर से खर्च लेकर आंदोलन कर रहे थे? टीशर्ट पर छपा चे कौन था? दुनिया आंदोलनजीवियों के बूते ही बेहतर हो सकी है। 

1973 में अटलबिहारी बाजपेयी केरोसिन, पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमतों पर विरोध जताने बैलगाड़ी से संसद पहुंचे थे। तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। पता नहीं लालकृष्ण आडवाणी समेत वो सभी नेता क्या थे, जिन्होंने राम मंदिर के नाम आंदोलन करके देश में नफरत फैलाई? आंदोलनकारी थे या आन्दोलनजीवी? भारत के जाने पहचाने आंदोलन जीवी… जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी के 30 वर्ष आंदोलन में ही निकाल दिए.. ये अलग बात है की वो उस समय भीख मांग कर खाते थे। जय प्रकाश नारायण क्या थे, जिनके पीछे आरएसएस लगा हुआ था? आंदोलनजीवी जयप्रकाश नारायण। सन, 1974, पटना का गांधी मैदान। लोकनायक जयप्रकाश के आह्वान पर सम्पूर्ण क्रांति का आगाज़ हुआ। साल भर चले आंदोलन के बाद इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया। आपातकाल लोकतंत्र की काल रात्रि साबित हुआ। जेपी और उनके जैसे आन्दोलनजीवी डटे रहे और 1977 में दुबारा लोकतंत्र का सवेरा हुआ। अन्ना हज़ारे क्या थे, जिनकी पीठ पर सवार होकर प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे? आंदोलनकारी या आन्दोलनजीवी?

महज़ एक आंदोलन से सामाजिक असमानता ख़त्म नहीं हो जाती है और न ही आंदोलन 2-4 दिन का विरोध होता है। सामाजिक समानता की फ़िक्र करने वाले आंदोलन ही सोते-पहनते-ओढ़ते हैं। सच्चे मायनों में आंदोलनजीवी ही आंदोलन की रीढ़ होते हैं। भारतीय लोकतंत्र के तमाम आंदोलनों में एक चीज कॉमन है कि सब सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े होते हैं। ऐसे में सत्ता के दमनात्मक रवैये का विरोध करने वाला बागी मन स्वाभाविक तौर पर ऐसे किसी भी आंदोलन से जुड़ाव महसूस करेगा। आंदोलन को अपनी सेवायें देगा, सहयोग देगा। सत्ता के परेशानी की मूल वजह यही है कि तमाम आंदोलनजीवी सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े मिलते हैं। यकीन मानिये, न ये जमात नई है और न ही ये बिरादरी। सारे काम छोड़ सत्ता की छाती पर मूँग दलने वाले मुट्ठी भर लोग हमेशा से दुनिया में रहे हैं। और इन जैसों ने ही दुनिया को हर बार थोड़ा बेहतर और बेहतर बनाया है। आंदोलनजीवी बनने के लिए रास्ते ढूंढ़ने की नहीं, बल्कि हिम्मत जुटाने की जरूरत होती है। शोषकों से भरी भेदभावपूर्ण दुनिया में आंदोलन के अनंत रास्ते हैं।

– हमला थ्योरी

मोदी जी की नवीनतम हमला थ्योरी। यह नया आविष्कार है-भाजपा की आईटी सेल का। भारत की छवि पर हमला।भारत को बदनाम करने की साजिश। भारत के योग पर हमला। भारत की चाय पर हमला।भारत के चाय मजदूरों की रोजीरोटी पर हमला। हमला ही हमला।साजिश ही साजिश। दुश्मन ही दुश्मन। जित देखूँ,तित हमला। यानी भारत के एकमात्र हितचिंतक ये ही बचे हैं।भारत के चौकीदार, भारत के सेवक,प्रधान सेवक, केवल यही हैं।

तो इस बार असम, बंगाल तमिलनाडु, केरल आदि के चुनावों में हमला थ्योरी बेचेंगे। बिक गई तो इसे ही बेचते रहेंगे वरना हिंदू मुसलमान तो है ही इनके तरकश का आखिरी तीर। तो  ये अब हमला- थ्योरी बेचेंगे। अभी कहा यह अंतरराष्ट्रीय हमला है। फिर कहेंगे कि विपक्ष इनकी मदद कर रहा है। विपक्ष देश के विरुद्ध षड़यंत्र कर रहा है।अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है। ये हवा में तीर चलाकर एक हवाई शत्रु को मारते रहेंगे, वोट  बटोरते रहेंगे।

तो साहब इस हमला थ्योरी से सावधान। दिलचस्प यह है कि भारत की छवि पर हमला करनेवाले ही हमला-हमला चिल्ला रहे हैं। ये संघ का सिद्धांत है। भारत के सांप्रदायिक सद्भाव को नष्ट करो और कहो कि विपक्ष ऐसा कर रहा है। किसानों को मरने तड़पने के लिए छोड़ दो और कहो कि विपक्ष भड़का रहा है। अंतरराष्ट्रीय हस्तियां विरोध करें तो यह भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है। यानी चित भी मेरी,पट भी मेरी,अंटा मेरे बाप का!

विपक्ष सब कर रहा है,ये बेचारे हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं।हाय हाय, कितने भोले हैं ये गरीब! और भाइयो बहनो भारत की छवि को तो ये सड़क पर कीलें बिछाकर, बेरिकेड्स पर बेरिकेड्स खड़े करके बहुत सुधार रहे हैं न!गोहत्या, लव जिहाद, नफरत के नये नये आविष्कार करके ये सुधार रहे हैं न!अर्थव्यवस्था को गड्ढे में डालकर, प्रेस की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ करके,मानवाधिकारों का हनन करके,कुपोषण को बढ़ावा देकर ये भारत की ‘ छवि ‘ सुधार रहे हैं। हमलावर ही हमला -हमला चिल्ला रहा है। एक दिलचस्प कथा याद आ रही है। चोर को पकड़ने वालों में शामिल होकर चोर भी चिल्ला रहा था -पकड़ो चोर,पकड़ो चोर।

-आन्दोलनजीविता, चैत्यन्तता का प्रमाण है 

आन्दोलनजीविता ज़िंदा रहने की पहली पहचान है। मुर्दे कभी आंदोलित हो ही नहीं सकते हैं। यह जीवंतता ही है जो हर समय  अपने अधिकारों, समाज से जुड़े सवालों, और भविष्य के प्रति सजग और सचेत रखती है। यही चैत्यन्तता है जो चेतना से जुड़ी है और जड़ता के निरन्तर विरोध में खड़ी रहती है। भारत के हज़ारो साल के बौद्धिक इतिहास में यही आन्दोलनजीविता सम्मान पाती रही है। पर यह चैत्यन्तता और आन्दोलनजीविता, सत्ता को अक्सर असहज भी करती रही है, और वह सत्ता चाहे, धार्मिक सत्ता हो, या राजनीतिक सत्ता या सामाजिक एकाधिकारवाद की सत्ता।

सत्ता को अक्सर खामोश, सवालों से परहेज करने वाले, पूंछ हिलाते हुए, दुम दबाकर आज्ञापालक समुदाय रास आते हैं। उन्हें श्रोता पसंद आते हैं, पर तार्किक और सवाल पूछने वाले नहीं। जब सवाल पूछा जाने लगता है तो, वे झुंझलाते हुए कहने लगते हैं, मैं तुम्हे यम को दूंगा। पर सवाल पूछने वाला यम से भी जब अवसर मिलता है तो, बिना सवाल पूछे नहीं रह पाता है। जी यह कहानी नचिकेता की है। यह उस समय की कहानी है जब चेतना शिखर पर थी, मस्तिष्क दोलायमान रहा करता था और उस दोलन भरी आन्दोलनजीविता को समाज तथा बौद्धिक विमर्श में एक ऊंचा स्थान प्राप्त था। 

आन्दोलनजीविता, भारतीय परंपरा, साहित्य, धर्म और समाज का अविभाज्य अंग रही है। आज तमाम आघात प्रतिघातों के बावजूद, यदि भारतीय दर्शन, सोच, विचार और तार्किकता जीवित है तो उसका श्रेय इसी आन्दोलनजीविता को ही दिया जाना चाहिए। ऋग्वेद के समय, जैनियों के प्रथम तीर्थंकर अयोध्या के राजा ऋषभदेव हों या चौबीसवें तीर्थंकर महावीर, बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन हो, या बौद्धों की चारो महासंगीतियाँ, या आदि शंकराचार्य का, अद्वैत दर्शन पर आधारित, एक नए युग का सूत्रपात हो, या मध्यकाल का भक्ति आन्दोलन, या ब्रिटिश हुक़ूमत के समय बंगाल और महाराष्ट्र के पुनर्जागरण जिसे इंडियन रेनेसॉ के रूप में हम पढ़ते हैं, और जिसकी शुरुआत राजा राममोहन राय से मानी जाती है या समाज सुधार से जुड़े अनेक स्थानीय आंदोलन, यह सब आन्दोलनजीविता के ही परिणाम रहे है। 

राजनीतिक क्षेत्र में भी चाहे, झारखंड और वन्य क्षेत्रो में हुए आदिवासियों के अनाम और इतिहास में जो दर्ज नहीं है, ऐसे आन्दोलन, 1857 का स्वतंत्रचेता विप्लव, अनेक छोटे मोटे हिंसक और अहिंसक आंदोलनों के बाद गांधी का एक सुव्यवस्थित असहयोग आंदोलन यह सब आन्दोलनजीविता ही तो है। यह सब रातोरात या किसी रिफ्लैक्स एक्शन का परिणाम नहीं था। यह उस आग की तरह थी, जो अरणिमंथन की प्रतीक्षा में सदैव सुषुप्त रह्ती है। विवेकानंद, दयानंद, अरविंदो, से लेकर रजनीश ओशो तक हम जो कुछ भी पढ़ते हैं वह सब इसी चेतना का ही परिणाम है जो देश के लम्बे इतिहास में समय समय पर विभिन्न आंदोलनों के रूप में उभरते रहते हैं। दुनियाभर के इतिहास में, आन्दोलनजीविता की इस चेतना ने सदैव सत्ता को चुनौती दी है। ऐसा भी नहीं है कि यह चेतना सिर्फ हमारे यहां ही प्रज्वलित होती रही हो। ईसा और मुहम्मद का धर्म उनके समय मे उनके समाज की धार्मिक और राजनीतिक सत्ता को एक चुनौती ही थी। इस्लाम का सूफी आंदोलन, मंसूर का अनल हक़, कबीर का धर्म के पाखंड के खिलाफ खड़े हो जाना, नानक का समानता और बंधुत्व पर आधारित सिख पंथ, गोरखनाथ, कीनाराम का अघोरपंथ, यह सब भी ऐसे ही आंदोलनों का परिणाम रहा है। यह भी एक विडंबना है कि जब यही सारे आंदोलन सफल होकर सत्ता में आ गए तो वे जड़ बन गए । अधिकार सुख मादक होता ही है। लेकिन सत्ता तो जड़ बनी रही, पर जनता के मन मे प्रज्वलित चेतना ने फिर सत्ता की जड़ता को ही चुनौती देनी शुरू कर दी। यह एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। यही चरैवेति है, और चरैवेति ही आन्दोलनजीविता है। ज़िंदा समाज की यही पहचान है और यही जिजीविषा है।

खैर, जंग-ए-आज़ादी की लड़ाई में तुम न आंदोलनकारी थे, न आन्दोलनजीवी। तुम क्या थे, ये इतिहास में दर्ज है।

– ये है सियासत 

वे आज कह रहे हैं कि,एमएसपी रही है, एमएसपी है, और एमएसपी रहेगी, 
मुझे बशीर बद्र का यह शेर याद आता है, 

सियासत की अपनी अलग इक ज़बाँ है, लिखा हो जो इक़रार, इनकार पढ़ना…!

ग़लत के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले इंसान को या तो महज़ एक आंदोलन कर शांत हो जाना चाहिए या नेता बन जाना चाहिए। क्योंकि नेता और चाहे जो हो, आंदोलनजीवी नहीं हो सकता है। वह सीरियल किलर हो सकता है। मास मर्डर हो सकता है। रेपिस्ट हो सकता है। आतंकवादियों का सहायक हो सकता है। हर राज्य हर पेशे से अंतरंग संबंध रख सकता है। सत्ता से बाहर रहने पर तमाम जन-आंदोलनों का नाजायज़ आईटी सेल-धारी टूलकिटिया नेता हो सकता है। लेकिन आंदोलनजीवी नहीं हो सकता है। क्योंकि उसका खर्चा-पानी नागपुर से आता है। मालेगांव के बाज़ार से आता है। दंगों में लूटे गये सामानों से जीवन चलता है। वह आंदोलनों के बूते जिंदा नहीं रहता है। दरअसल वह आंदोलन पर निर्भर नहीं रहता है। कैमरा लेंस का एक्सपोज़र ख़त्म होते ही वह दूसरे आंदोलन की बैनर लेकर चीखने लगता है। और ऐसा तब तक करता है, जब तक कि सत्ता में न जा बैठे। और फिर सत्ता-अवधि तक आंदोलनों से तौबा कर लेता है।

इस मुल्क में सत्ता-केंद्र का सामीप्य सुख पा रहे चंद लोगों के अलावा हर इंसान शोषित है। ऐसे में विद्यार्थियों, मजदूरों, वकीलों, सैनिकों, किसानों, शिक्षकों, दलितों, स्त्रियों का आंदोलन जितना स्वाभाविक है, उतना ही स्वाभाविक है बेहतरी की उम्मीद रखने वाले बागियों की इन आंदोलनों में सहभागिता। एक नेता, एक संन्यासी का अपने पथ पर आगे बढ़ना सही है तो एक बेहतरी की उम्मीद रखने वाले आदमी का आंदोलनकारी होना ग़लत कैसे हो जाता है। ऐसा भी नहीं है कि एक सामान्य आदमी अनेक गुणों को धारण करने की क्षमता नहीं रखता है। गाँधी श्रमजीवी भी थे, बुद्धिजीवी भी और आंदोलनजीवी भी। एक संन्यासी राजनीति सकता है। एक नेता परिव्राजक बनने का ढ़ोंग रचा सकता है। एक व्यापारी धर्मशाला खोल धर्मरक्षक बन सकता है। तो श्रमजीवी, बुद्धिजीवी, आंदोलनजीवी, समाजवादी, सेक्युलर में विरोधाभास क्यों ढूंढ़ा जाता है। कारण स्पष्ट है। पहचानों/प्रतीकों को उभार कर उन्हें एक-दूसरे के बरअक्स खड़ा कर देना शोषण में मददगार साबित होता है। यह सत्ता-विरोध को यथासंभव अवधि तक विलंबित रखने में सहायक होता है। शोषण तब तक जारी रहता है, जब तक एक सच्चा आंदोलनजीवी, एक बागी आकर आमजन के तमाम पहचानों को झकझोर वास्तविक सत्ता-चरित्र दिखलाता है। और वही आंदोलन इतिहास में दर्ज होता है।

हालाँकि यह कोई पहली बार नहीं है। सेक्युलर, इंटेलेक्चुअल, लिबरल ऐसे तमाम शब्द हैं, जिसे प्रचार-तंत्र का इस्तेमाल कर बदनाम कर दिया गया। आज ये शब्द गाली के तौर पर इस्तेमाल किये जा रहे हैं। शब्दों की महत्ता को तार-तार करने वाली विचारधारा से और उम्मीद भी क्या जी सकती है। सदन हो या सड़क, भेड़िया भेड़िया ही होता है।

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