भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस की घटना गले नहीं उतरती। इकसठ दिन से शांतिपूर्ण आंदोलन चला रहे किसान यकायक गणतंत्र दिवस पर 62वें दिन अपने चरित्र से कैसे भटक सकते हैं? यदि उनके स्वभाव में अराजकता होती तो वे पछले 61 दिनों में कभी ना कभी उच्छृंखलता, उदंडता या अनुशासनहीनता अवश्य दिखाते। लेकिन, देश के किसी भी व्यक्ति को इस आंदोलन में अनुशासन के अलावा कुछ नहीं दिखा था। 

केंद्र और राज्य सरकारों को यही बात परेशान कर रही थी कि इनकी भलमनसाहत  आंदोनकारियों की बड़ी ताकत बनती जा रही है; जनता उन्हें भरपूर समर्थन दे रही है। नतीजतन, आंदोलन लगातार मजबूत हो रहा था जो सरकारों को रास नहीं आ रहा था। 

पूरे घटनाक्रम पर नज़र डालेंगे तो एक ऐसी तस्वीर उभरती है जो किसानों को सीधे तौर पर दोषी नहीं मानती। किसान सोची समझी रणनीति के तहत बुने जाल में फंसे हुए दिखते हैं। एक तरफ दिल्ली पुलिस बड़ी आसानी से किसानों को ट्रैक्टर रैली की अनुमति देती है। दूसरी ओर हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने उपद्रव की आशंका देखते हुए किसानों को दिल्ली की ओर कूच करने से रोकने के लिए पूरी ताकत झोंक रखी थी। आशंका को यकीन में तब्दील करने के लिए सरकारों के पास  आधार और साधन दोनों ही होते हैं  और उनका इस्तेमाल करने में सरकारें कभी हिचकती भी नहीं है क्योंकि उसे जनता में यह सन्देश देना होता है कि सरकार की आशंका निर्मूल नहीं थी। 

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारें किसानों को दिल्ली क्यों नहीं जाने दे रही थीं जबकि दिल्ली की पुलिस किसानों की ट्रैक्टर रैली की अनुमति दे चुकी थी। दिल्ली पुलिस को आपत्ति नहीं है लेकिन राज्य सरकारों को आपत्ति है। इसके पीछे चाल यह हो सकती है कि किसान जबरन रास्ते खुलवाने की कोशिश करेंगे और बैरिकेड तोड़ेंगे तो किसानों को उपद्रवी साबित करने में राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को आसानी हो जाएगी। 

दिल्ली पुलिस और राज्य सरकारों की नीति में विरोधाभास कोई इत्तेफाक नहीं है। केंद्र सरकार की रणनीति के तहत ऐसा किया गया लगता है। हालांकि, इसके सीधे सबूत तो नहीं हैं लेकिन हालात इस बात को साबित कर रहे हैं कि केंद्र के इशारे पर जानबूझकर विरोधाभास रखा गया था। 

 दिल्ली पुलिस से किसानों की ट्रैक्टर रैली की अनुमति दिलवाकर केंद्र सरकार लोकतांत्रिक अधिकारों की पोषक बन गई क्योंकि दिल्ली पुलिस सीधे केंद्र सरकार के अधीन है। यदि दिल्ली पुलिस अनुमति नहीं देती तो केंद्र सरकार का भय साफ दिखाई देने लगता और शांतिपूर्ण रैली करने के लोकतांत्रिक अधिकार की हत्या करने का कलंक लगता। केंद्र सरकार को भरोसा था था कि हरियाणा और उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकारें किसानों को बॉर्डर पर ही रोक लेंगी; किसानों को दिल्ली पहुंचने ही नहीं देंगी तो राजधानी की कानून-व्यवस्था स्वतः दुरुस्त रहेगी। इसके अलावा, राज्यों की पुलिस से किसान भिड़ेंगे तो उनके ‘शांतिप्रिय’ चेहरे से नक़ाब उतर जाएगा। थोड़ा-बहुत नक़ाब हरियाणा और उत्तर प्रदेश के बॉर्डर बचा रह जाएगा, वो दिल्ली में उतार दिया जाएगा।  

रैली के निर्धारित रूट का अनुसरण ना करने को लेकर किसानों पर आलोचनाओं की बौछार हो रही है। दरअसल, रूट रैली से कुछ घंटे पहले ही तय किया गया था जिसकी जानकारी किसानों तक ठीक से नहीं पहुंच पाई। यह भी मान लिया जाए कि किसानों तक जानकारी पहुँच गई थी, तब भी किसानों से भूल की प्रबल आशंका थी क्योंकि आंदोलनकारी किसानों के लिए दिल्ली शहर  नया था। सबसे आगे का जत्था जिधर मुड़ जाएगा सभी को उस रूट पर जाना लाज़िमी हो जाता है। पुलिस को ऐसा बंदोबस्त करना चाहिए था कि रैली किसी अन्य रूट पर जा ही नहीं पाए। पुलिस अपनी नाकामी का ठीकरा किसानों पर फोड़ रही है। 

 लाल किले पर धार्मिक झंडा लगाने को लेकर सबसे अधिक आपत्ति जताई जा रही है। इसमें लेशमात्र भी शक नहीं है कि वो धार्मिक झंडा लगाना असंवैधानिक था; राष्ट्र विरोधी था। लेकिन, यह भी महज इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि कार्यक्रम के विपरीत रैली लाल किला पहुंच जाती है; वहाँ तिरंगे के बगल में धार्मिक झंडा लगाया जाता है। यह भी कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि यह झंडा वही दीप संधू लगाता है जिसे किसान अपने आंदोलन से काफी पहले अलग कर चुके हैं। लाल किले पर पुलिस का खासा बंदोबस्त था। पुलिस की मौजूदगी में दीप संधू ऊपर कैसे चढ़ा। उड़ कर तो गया नहीं। यह भी कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि दीप संधू बीजेपी सांसद सनी देओल का करीबी है और वह प्रधानमंत्री के साथ उनके आवास पर फ़ोटो भी खिंचवाता है। उस फ़ोटो में सनी देओल भी हैं। यह फोटो वायरल भी हो रही है। भले ही सनी देओल झंडा प्रकरण के लिए ज़िम्मेदार दीप संधू से पल्ला झाड़ रहे हैं। लेकिन सनी देओल से एक अहम सवाल है- दीप संधू से आपका कोई रिश्ता नहीं है तो उसे प्रधानमंत्री आवास में कौन लेकर गया? उसकी एक फोटो धर्मेंद्र और बीजेपी सांसद हेमा मालिनी के साथ भी वायरल हो रही है। 

रही बात तोड़फोड़ और हिंसा की तो सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में उपद्रवियों के चेहरे दिख रहे हैं, उनकी भी पहचान होनी चाहिए। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि वे भी दीप संधू की तरह ‘कनेक्शन’ वाले हो सकते   हैं। यह आशंका बहुत पहले से जताई जा रही थी कि किसानों के बीच असामाजिक और अराजक तत्त्व घुस कर आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश कर सकते है और ऐसा हो भी गया। लिहाजा, इस घटनाक्रम की उच्चस्तरीय निष्पक्ष जांच होनी चाहिए ताकि देश की जनता को यह तो पता चले कि असली खलनायक कौन है? किसने देश के संविधान का अपमान किया है? 

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