मनुमुक्त ‘मानव’ ट्रस्ट द्वारा ‌अंतरराष्ट्रीय हिंदी-संगोष्ठी आयोजित दस देशों के विद्वानों ने किया हिंदी की प्रासंगिकता पर विचार-मंथन

 डॉo सत्यवान सौरभ,  

आज हिंदी विश्व की जरूरत बन गई है तथा हर देश भारत के साथ मैत्री संबंधों की खिड़की हिंदी भाषा के माध्यम से ही खोलना चाहता है। यह कहना है केंद्रीय हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, धर्मशाला (हिप्र) के कुलपति डॉ एचएस बेदी का। मनुमुक्त ‘मानव’ मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा सेक्टर 1, पार्ट 2 स्थित अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक केंद्र ‘मनुमुक्त भवन’ में ‘वैश्विक परिदृश्य में हिंदी की प्रासंगिकता’ विषय पर आज आयोजित वर्चुअल अंतरराष्ट्रीय हिंदी-संगोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि उन्होंने कहा कि नए भारत का संकल्प भी विश्व के तमाम देशों की सांस्कृतिक चेतना को हिंदी के माध्यम से ही प्रमाणित कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय संबंध परिषद, नई दिल्ली के निदेशक नारायण कुमार ने हिंदी के वैश्विक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि हिंदी ही वह सूत्र है, जो विदेशों में बसे करोड़ों प्रवासी भारतीयों और भारतवंशियों को मजबूती से अपनी साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत से जोड़े हुए है।

अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, नारनौल के अध्यक्ष डॉ जितेंद्र भारद्वाज द्वारा प्रस्तुत प्रार्थना-गीत के उपरांत चीफट्रस्टी डॉ रामनिवास ‘मानव’ के प्रेरक सान्निध्य तथा डॉ पंकज गौड़ के कुशल संचालन में संपन्न हुई इस संगोष्ठी के प्रारंभ में पटियाला (पंजाब) के वरिष्ठ कवि नरेश नाज़ ने अपने गीत के माध्यम से हिंदी के महत्त्व को स्पष्ट किया-‘अगर देश में हिंदी भाषा का सम्मान नहीं होगा, तो फिर हिंदुस्तान यकीनन हिंदुस्तान नहीं होगा।’ विश्वबैंक, वाशिंगटन डीसी (अमेरिका) की अर्थशास्त्री डॉ एस अनुकृति द्वारा विषय-परिवर्तन किए जाने के बाद बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय, रोहतक के कुलपति डॉ रामसज्जन पांडेय, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला के पूर्व निदेशक डॉ पूर्णमल गौड़, सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राज) के कुलपति डॉ उमाशंकर यादव, नॉर्वे (ओस्लो) के वरिष्ठ कवि और पत्रकार डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल, त्रिभुवन विश्वविद्यालय, काठमांडू (नेपाल) की हिंदी-प्रोफेसर डॉ श्वेता दीप्ति, ऑकलैंड (न्यूजीलैंड) की पत्रिका ‘भारत-दर्शन’ के संपादक रोहितकुमार ‘हैप्पी’ और चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी के हिंदी-विभागाध्यक्ष डॉ बाबूराम महला ने हिंदी भाषा के स्वरूप और स्थिति पर प्रकाश डालते हुए समकालीन वैश्विक परिदृश्य में उसके महत्त्व, उपादेयता और प्रासंगिकता को रेखांकित किया। संगोष्ठी में हुए गंभीर विचार-मंथन का निष्कर्ष था कि हिंदी नए भारत की आवाज तथा भविष्य की वैश्विक भाषा है। हिंदी भारत की राष्ट्रीय अस्मिता तथा सांस्कृतिक चेतना की अभिव्यक्ति में भी पूर्णतया सक्षम है।

लगभग अढाई घंटों तक चली इस महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक संगोष्ठी में दुबई (यूएई) की स्नेहा देव, दोहा (कतर) के बैजनाथ शर्मा, मास्को (रूस) की श्वेता सिंह, वैंकूवर (कनाडा) की प्राची रंधावा, सिस्टल की डॉ मीरा सिंह तथा वाशिंगटन (अमेरिका) के सिद्धार्थ रामलिंगम, नौसोरी (फिजी) की सुएता चौधरी, मेलबर्न (आस्ट्रेलिया) की मंजुला ठाकुर तथा भारत से‌ मुंब‌ई (महाराष्ट्र) के सुरेश‌ कटारिया, आईआरएस, तलश्शेरी (केरल) के डॉ पीए रघुराम, भोपाल (मप्र) की अंतरा करवडे़ और डा वसुधा गाडगिल,‌ लखनऊ के मृत्युंजयप्रसाद गुप्ता और मथुरा (उप्र) के डॉअंजीव अंजुम, समस्तीपुर के डॉ प्रफुल्लाचंद्र ठाकुर और अररिया (बिहार) के डॉ जनार्दन यादव, दोसा (राज) के डॉ संजीव रावत, बरेटा (हिप्र) के रमेश मस्ताना, जालंधर (पंजाब) के डॉ राजेश कोछड़, फतेहाबाद की डॉ कृष्णा कंबोज, हिसार के डॉ राजेश शर्मा, डॉ जितेंद्र पानू ,अशोक वशिष्ठ और यशवंत बादल, सिवानी मंडी के डॉ सत्यवान सौरभ और प्रियंका सौरभ तथा नारनौल के डॉ सुमेर सिंह यादव, प्रो हितेश गौड़, डॉ सुनील कुमार, कृष्णकुमार, एडवोकेट आदि की उपस्थिति विशेष उल्लेखनीय रही ।  

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