उमेश जोशी शहरों से गाँवों की ओर मज़दूरों के पलायन से दोहरा संकट खड़ा होने के आसार बन रहे हैं। शहरों में मज़दूरों की किल्लत होगी और गाँवों में रोजगार मांगने वालों की भारी फौज खड़ी हो जाएगी। मतलब यह है कि जहां रोजगार है वहां मज़दूर नहीं होगा और जहां मज़दूर होगा वहां रोजगार नहीं होगा। औद्योगिक इकाइयों में फिलहाल काम करने के लिए मज़दूर नहीं हैं। सब अपने घरों को लौट गए हैं। भारी संकटों और रूकावटों को झेलते हुए अपने परिजनों के पास पहुंचे मज़दूर तब तक शहर का रूख नहीं करेगा जब तक कोरोना का शोर नहीं थमेगा। उनकी पीड़ा सुनकर किसी का भी दिल दहल जाएगा। ऐसे पलों को कोई भी मज़दूर आसानी से नहीं भुला पाएगा। मेडिकल विशेषज्ञों और राजनेताओं के टीवी चैनलों पर रोज़ाना आ रहे बयानों से तो ऐसा लगता है कि देश के हर व्यक्ति को लंबे समय तक कोरोना के भय के साये में जीना पड़ेगा। उनके बयानों से यही संदेश मिलता है कि सभी को कोरोना के साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। अभी इलाज के लिए कोई वैक्सीन भी नहीं है; इसके तैयार होने में कम से कम 6-8 महीने का समय लगेगा। उसके बाद करीब छह महीने टेस्टिंग होगी। फिर उसका व्यावसायिक उत्पादन शुरू होगा। इस लंबी प्रक्रिया में साल-डेढ़ साल का वक़्त लगेगा। कहने का मतलब है कि लंबे समय तक कोरोना का भय बरकरार रहेगा। तब तक अधिकतर मज़दूर जान जोखिम में डाले बिना सीमित संसाधनों में अपने परिवार के साथ ही जीने की कोशिश करेंगे। इन हालात में औद्योगिक इकाइयों में मज़दूरों की किल्लत बनी रहेगी। नतीजतन, उत्पादन प्रभावित होगा। दूसरी ओर गाँवों में पहुंचे मजदूर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में दिहाड़ी की आस लगाएगा। मनरेगा में सभी लोगों को काम मुहैया कराना मुमकिन नहीं होगा। अभी मनरेगा में करीब सात करोड़ 60 लाख रजिस्टर्ड कार्ड धारी हैं। उन सभी को साल में 100 दिन की दिहाड़ी देना ज़रूरी है। सूखा या राष्ट्रीय आपदा की स्थित में 100 दिन से बढ़ा कर 150 दिन की दिहाड़ी करने का प्रावधान है। कोरोना भी एक तरह की राष्ट्रीय आपदा है इसलिए ऐसा प्रस्ताव है कि कोरोना समाप्ति के बाद मनरेगा में 200 दिन की दिहाड़ी दी जाए। सवाल यह है कि करोड़ों मज़दूर गाँवों में पहुंच गए हैं, क्या उन सभी को मनरेगा में काम मिल पाएगा। यदि मिलेगा भी तो क्या सभी को साल में 200 दिन का मिलेगा। यदि 200 दिन से कम मिलेगा तो क्या उस कम राशि में परिवार का भरण पोषण हो पाएगा। मनरेगा में दिहाड़ी का पैसा भी बढ़ाया गया है। अभी तक 182 रुपए दिहाड़ी मिलती थी। इसमें 20 रुपए यानी 11 प्रतिशत का इजाफा कर 202 रुपए कर दिए हैं। मई 2014 में एनडीए की सरकार आने के बाद मनरेगा की मजदूरी में यह सबसे अधिक बढ़ोतरी है। इससे पहले 2015-16 में औसतन बढ़ोतरी सात प्रतिशत थी। पिछले साल महज 1.6 प्रतिशत का इजाफा हुआ था जो नगण्य है। मनरेगा की मजदूरी अकुशल मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी से 40 से 50 प्रतिशत तक कम है। अकुशल मज़दूरों की न्यूनतम मजदूरी 347 से 383 तक है। इसका अर्थ यह हुआ कि न्यूनतम मजदूरी 347 रुपए से कम कहीं नहीं है। इस हिसाब से मनरेगा की मजदूरी में बढ़ोतरी के बावजूद न्यूनतम मजदूरी से 40 से 50 प्रतिशत तक कम है। गाँवों में पहुंच चुके सभी मजदूरों को इतनी कम मज़दूरी पर भी काम मिलना संभव नहीं होगा। पिछले महीने अप्रैल में लॉक डाउन के कारण मनरेगा में मात्र 30 लाख लोगों को रोजगार मिला जो पिछले साल अप्रैल में 1.7 करोड़ के मुकाबले 82 प्रतिशत कम है। कुछ राज्यों ने मनरेगा में एक भी व्यक्ति को रोजगार नहीं दिया। हरियाणा में महज 1005 लोगों को काम मिला। अब सभी राज्य सरकारों को सुझाव दिया गया है कि प्रत्येक परिवार को 10 दिन की मुफ्त दिहाड़ी दी जाए। जब सरकार निजी उद्यमियों को अप्रैल की पूरी तनख्वाह की सलाह देती है तो उसे खुद भी इस पर अमल करना चाहिए। केंद्र सरकार ने 2020-21 के बजट में मनरेगा के लिए 61000 करोड़ का प्रावधान किया है जो पिछले साल के 71002 करोड़ से 13.4 प्रतिशत कम है। यदि सरकार मनरेगा में सभी अतिरिक्त मज़दूरों को काम देना चाहेगी तो उसे मनरेगा के बजट में भारी इजाफा करना पड़ेगा जो शायद मुमकिन नहीं है क्योंकि सरकार पहले भी 20 लाख करोड़ का पैकेज दे चुकी है। Post navigation जीने लायक ‘अर्थ’ के लिए चाक चौबंद ‘व्यवस्था’ लाज़िमी तालाबंदी में याद आया मेरा गांव, मेरा देश