उमेश जोशी

केंद्र सरकार और राज्य सरकारें दुविधा में हैं कि लॉकडाउन में लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उद्योगों और मज़दूरों को कितनी ढील दी जाए और कैसे दी जाए। लॉक डाउन का तीसरा चरण खत्म होने तक 54 दिन बीत चुके होंगे। यह डर सभी के मन में सर उठा रहा है कि इस लंबी अवधि में कोरोना संकट से निपटने के लिए की गई मेहनत और उससे मिली कामयाबी पर कहीं पानी ना फिर जाए। यह भय स्वाभाविक है क्योंकि कोरोना मरीजों की संख्या लगातार तेज़ी से बढ़ रही है। गनीमत है कि अभी तक गाँव बचे हुए हैं। हालात बिगड़े तो गाँव भी चपेट में आएंगे। महामारी का अर्थ यही है कि कोई भी सुरक्षा कवच में नहीं है। सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। शहरों में अच्छी बुरी जैसी भी हैं, बीमारी से लड़ने के लिए सुविधाएं तो हैं; गाँवों में तो दूर दूर तक सुविधाएं नहीं हैं इसलिए गाँवों में कोरोना फैलने की कल्पना मात्र से सिहरन होती है।

   कोरोना काल अनिश्चित है। सरकार और जनसाधारण इस सामान्य सच्चाई को समझ गए हैं कि अनिश्चित काल तक घरों में बंद नहीं रहा जा सकता। आय के स्रोत बंद हो गए हैं। अर्थव्यवस्था का पहिया रूक जाने से बेरोज़गारी का रोग कोरोना से भी अधिक रफ्तार से बढ़ रहा है। बेरोज़गारी की दर करीब 30 प्रतिशत हो चुकी है। उद्योगों को फिर से चालू नहीं किया तो हालात और बदतर होंगे। सरकार और जनता दोनों ही चाहते हैं कि उद्योग धंधे फिर से शुरू हों और धीरे धीरे ग़रीबों और मध्यम वर्ग की ओर बढ़ रही भुखमरी के दरवाजे बंद कर दिए जाएं। उद्योग धंधे चालू नहीं हुए तो भुखमरी के कहर को कोई रोक नहीं पाएगा। उसके इलाज के लिए कोई टीका भी नहीं है और बचने के लिए कोई ‘लॉक डाउन’ भी नहीं है। भुखमरी का भय कोरोना के भय से अब बड़ा लगने लगा है। जहान में ही जान होती है। जब जहान ही नहीं होगा तो ‘जान’ रहेगी कहाँ। लिहाजा, जान के लिए जहान ज़रूरी है और जहान के लिए अर्थव्यवस्था बचाना आवश्यक है। अर्थव्यवस्था बचाने के लिए उद्योग धंधे पुनर्जीवित करने करने पड़ेंगे।

यह  सार्वभौमिक सच्चाई हर कोई जानता है लेकिन सभी के सामने यह यक्ष प्रश्न है कि कैसे पुनर्जीवित करें।

अर्थव्यवस्था का पहिया घुमाने के लिए श्रम चाहिए। श्रम देने वाले श्रमिक तो घरों की ओर भाग रहे हैं। लंबे लॉक डाउन के कारण निकट भविष्य में रोजगार मिलने की उम्मीदों ने दम तोड़ दिया। सारी बचत खत्म हो गई। मकान मालिक को किराया देन तक के पैसे नहीं रहे। घर खाली करने की नौबत आ गई। ना रहने को छत और ना ही खाने को रोटी। इन हालात में ‘अपनों’ के पास पहुंचने के अलावा को विकल्प नहीं है। सूरत में मज़दूर कई दिनों से सड़कों पर हैं। उनकी मांग अब रोजगार की नहीं है। वे घर जाना चाहते हैं और उनकी मांग है कि उनकी घर वापसी के लिए मुकम्मल व्यवस्था की जाए। सूरत शहर तो एक बानगी है। ऐसे ही हालात देश में सब जगह हैं। ऐसी सूरत में अर्थव्यवस्था की सूरत बदलना वाकई बहुत मुश्किल है।

देश में सबसे अधिक रोजगार सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) मुहैया कराते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में कुल छह करोड़ 30 लाख एमएसएमई हैं जो 11 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मुहैया कराते हैं। कृषि क्षेत्र के बाद रोजगार देने वाला यह दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग चाहते हैं कि जल्दी फैक्टरियों के शटर उठें और काम फिर से शुरू हो। लेकिन, सभी औद्योगिक इकाइयां सरकार की ओर आस लगाए बैठी हैं। कुछ अपवाद छोड़ दें तो किसी भी उद्यमी के पास इतनी कार्यशील पूंजी नहीं है कि वे अपने बूते  सामान्य रूप से काम कर सकें। यही वजह है कि इस क्षेत्र ने सरकार से एक लाख करोड़ रुपए के पैकेज की मांग की है। जब तक सरकार कोई पैकेज नहीं देगी तब तक सबसे अधिक रोजगार मुहैया कराने वाला और जीडीपी में करीब 32 फीसदी योगदान करने वाला यह क्षेत्र सक्रिय नहीं हो पाएगा। कुछ लोगों ने तो यह भी सुझाव दिया है कि ‘किसान कार्ड’ की तरह छोटे उद्यमियों के लिए ‘ऋण कार्ड’ बनाने चाहिएं ताकि कम ब्याज दर पर आसानी से कार्यशील पूंजी जुटा सकें।

 एमएसएमई क्षेत्र चालू हो भी गया तो एकदम से पूरी क्षमता से काम शुरू नहीं होगा   क्योंकि बेरोजगारी का स्तर बढ़ने से बाज़ार में मांग ही नहीं है। मांग बढ़ाने के लिए रोजगार बढ़ाना पड़ेगा जिसमें लंबा समय लगेगा।

 छोटे उद्यमी आने वाले समय में बड़े उद्यमियों और कारोबारियों की शर्तों पर काम करने के लिए मजबूर होंगे क्योंकि उनकी सौदेबाज़ी की शक्ति अभी बहुत कमज़ोर है। उनका माल खरीदने वाला व्यापारी लंबे समय का क्रेडिट मांगता है तो उसके सामने फिर पूंजी का संकट खड़ा हो जाएगा। इन हालात में हर कोई दूसरों की मजबूरी का फायदा उठाएंगे। उद्यमी भी मज़दूरों को दिहाड़ी या वेतन  तय करने में अपनी शर्तें रखेंगे। मज़दूरों को भी वो दिहाड़ी या वेतन नहीं मिलेगा जो लॉक डाउन से पहले मिलता था। काम के घंटे भी ज़्यादा हो सकते है। यहां मज़दूरों की सौदेबाजी की शक्ति कमजोर है। इन हालात में मज़दूर फिर से सोचेगा कि क्या उसे इतने कम पैसे पर ज़्यादा घंटे काम करने के लिए घर छोड़ना चाहिए।  मान लो, घर में दो या तीन भाई पहले मजदूरी करते थे तो अब शायद एक ही करे और बाकी भाई घर की खेती और गांव में ही खेतों में मज़दूरी के लिए रूक जाएं। इन हालात में उद्योगों को पर्याप्त मज़दूर ना मिलने का संकट भी खड़ा हो सकता है।

कच्चा माल भी पूरा ना मिलने की समस्या भी गंभीर है। अभी ट्रांसपोर्ट ठप्प पड़ा है। माल ढुलाई के पर्याप्त साधन नहीं हैं। हाल में कुछ राज्यों ने पेट्रोल और डीजल के दामों में भी बढ़ोतरी की है। इससे ट्रांसपोर्ट महंगा होगा। कच्चा माल लाने और तैयार माल बाज़ार तक  भेजने में अधिक ट्रांसपोर्ट लागत चुकानी होगी। नतीजतन, माल महंगा हो जाएगा। बाज़ार में पहले ही कम ग्राहक थे। माल महंगा होने से बिक्री में और दिक़्क़त आएगी इसलिए उत्पादन जारी रखने के लिए उद्यमी को फिर से सोचना पड़ेगा।

सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो बेरोज़गारी के कारण भुखमरी के हालात निकट भविष्य में साफ दिखाई दे रहे हैं। एमएसएमई क्षेत्र में काम करने वाले करीब 11 करोड़ मजदूर औसतन करीब पांच सदस्यों के परिवार को पालते हैं। यूं कहें कि अकेला एमएसएमई 55 करोड़ लोगों का पेट पालता है। इस क्षेत्र में फिर से जान नहीं आईं तो भुखमरी के कारण 55 करोड़ लोगों की जान पर मुसीबत खड़ी हो जाएगी।

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