सरकार ने जहां सरकारी कर्मचारियों के महंगाई भत्ते (DA) में मात्र 2% की वृद्धि की, वहीं सांसदों के भत्तों और वेतन में 24% की बढ़ोतरी कर दी।

यह विरोधाभास कर्मचारियों और जनता में नाराजगी पैदा कर रहा है। कर्मचारियों के लिए 2% DA वृद्धि ऊंट के मुंह में जीरा समान।

 सांसदों को पहले से ही कई सुविधाएँ मिलती हैं, फिर भी वेतन में बड़ी बढ़ोतरी।  सरकार जब आम जनता की राहत की बात आती है, तो “बजट की कमी” बताती है, लेकिन सांसदों के लिए खजाना खुला रहता है।

-प्रियंका सौरभ

देश में महंगाई की मार लगातार बढ़ रही है। सब्जियों के दाम आसमान छू रहे हैं, पेट्रोल-डीजल की कीमतें जेब हल्की कर रही हैं और आम आदमी सोच रहा है कि “अगली सैलरी आएगी तो कौन-कौन से खर्चे टालने पड़ेंगे?” लेकिन इस बीच सरकार ने दो अलग-अलग वर्गों के लिए दो अलग-अलग राहत पैकेज जारी कर दिए— सरकारी कर्मचारियों के लिए महज 2% महंगाई भत्ता (DA) बढ़ाया गया।

 सांसदों के भत्तों और वेतन में 24% की बढ़ोतरी की गई।

यानी एक वर्ग को ऊंट के मुंह में जीरा, तो दूसरे को भरपूर दावत! यह विरोधाभास कर्मचारियों और जनता के बीच गहरी नाराजगी पैदा कर रहा है। सवाल यह उठता है कि महंगाई सिर्फ सांसदों के लिए ही क्यों बढ़ी दिखती है? यह फैसला साफ तौर पर सत्ता पक्ष के हितों को साधने के लिए लिया गया है, जबकि आम जनता और कर्मचारियों को उनके हक से वंचित रखा गया है। मीडिया में भी यह मुद्दा सुर्खियों में है। प्रमुख समाचार चैनलों और अखबारों में “2% बनाम 24% का भेदभाव” जैसे शीर्षक देखने को मिल रहे हैं। विशेषज्ञ इसे सरकार की जनविरोधी नीति करार दे रहे हैं।

सरकारी कर्मचारियों के लिए सिर्फ 2%—क्या यह मजाक है?

महंगाई भत्ते (DA) का मकसद कर्मचारियों को बढ़ती महंगाई से राहत देना होता है। लेकिन जब खुदरा महंगाई दर 6-7% के पार जा चुकी है, तब महज 2% DA वृद्धि से कर्मचारियों को क्या राहत मिलेगी? यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी भूखे इंसान को एक बिस्किट देकर कह दिया जाए—”यही बहुत है!”

सरकारी कर्मचारियों के संघों और यूनियनों का गुस्सा जायज़ है। वे लंबे समय से उचित वेतन वृद्धि और महंगाई भत्ते में वाजिब बढ़ोतरी की मांग कर रहे थे, लेकिन सरकार ने इसे टालने योग्य खर्च मानकर नाममात्र की वृद्धि कर दी। अब कर्मचारी संगठनों के सामने कुछ बड़े सवाल खड़े हो गए हैं— क्या महंगाई सिर्फ सांसदों के लिए बढ़ी है?

 जब कर्मचारियों का DA बढ़ाना हो, तो खजाना खाली क्यों दिखता है? क्या आम कर्मचारियों का योगदान सरकार के लिए कम हो गया है?

सांसदों को 24% की राहत—किसके पैसे से?

अब जरा सांसदों की स्थिति पर नज़र डालें। सांसदों को पहले से ही कई भत्ते और सुविधाएँ मिलती हैं—

 फ्री हवाई और रेल यात्रा

 सरकारी बंगले और दफ्तर

 स्टाफ सुविधा और सुरक्षा व्यवस्था

 अलग से चिकित्सा और पेंशन लाभ, इतनी सुविधाओं के बावजूद, उन्हें वेतन और भत्तों में 24% की बढ़ोतरी दी गई। यह एकतरफा फैसला जनता और कर्मचारियों के साथ अन्याय की ओर इशारा करता है। सवाल उठता है कि जब देश की अर्थव्यवस्था सुधारने की बात हो रही है, तब सांसदों के वेतन में इतनी बड़ी वृद्धि का औचित्य क्या है?

जनता और कर्मचारी बोले—यह अन्याय है!

सरकारी कर्मचारियों और आम जनता के बीच इस फैसले को लेकर जबरदस्त आक्रोश है। सोशल मीडिया पर सरकार को घेरने वाले मीम्स और पोस्ट्स की बाढ़ आ गई। ट्विटर और फेसबुक पर लोग कह रहे हैं—”महंगाई सबके लिए बढ़ी है, लेकिन सरकार की नजर में सिर्फ सांसदों को ही राहत चाहिए!”  एक कर्मचारी बोला: “चलो, अब महंगाई को भी VIP और आम आदमी में बांट दिया गया!” एक और ट्वीट: “अगर सांसदों को 24% बढ़ोतरी मिल सकती है, तो कर्मचारियों के लिए भी वही फॉर्मूला लागू हो!” यह सिर्फ वेतन वृद्धि का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह सरकार की प्राथमिकताओं पर सवाल उठाने का समय है। जब भी आम जनता को राहत देने की बात आती है, तब सरकारी खजाना खाली बताया जाता है, लेकिन जब खुद सांसदों की सुविधा बढ़ाने की बात हो, तो बजट की कोई चिंता नहीं होती!

क्या अन्य देशों में भी ऐसा होता है?

अगर अन्य देशों की बात करें, तो विकसित लोकतंत्रों में सांसदों के वेतन वृद्धि पर सख्त नियम होते हैं और यह आमतौर पर महंगाई दर के अनुरूप ही बढ़ाया जाता है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा जैसे देशों में सांसदों के वेतन को वेतन आयोग और स्वतंत्र आर्थिक संस्थाओं द्वारा तय किया जाता है, न कि सरकार द्वारा सीधे। भारत में सांसद अपने वेतन और भत्ते खुद निर्धारित करने की शक्ति रखते हैं, जिससे यह असंतुलन पैदा होता है। यही कारण है कि यह मुद्दा बार-बार जनता के आक्रोश का कारण बनता है।

अब आगे क्या?

सरकारी कर्मचारी यूनियन इस मुद्दे को लेकर विरोध प्रदर्शन करने की तैयारी में है। वेतन आयोग और नीति-निर्माताओं पर दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है ताकि DA वृद्धि को महंगाई दर के अनुरूप किया जाए। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकार इस असमानता को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम उठाएगी या फिर यह मुद्दा कुछ दिनों में दब जाएगा? इस फैसले ने साफ कर दिया है कि जनता की मेहनत की कमाई पर सबसे पहला हक नेताओं का ही बनता है। कर्मचारियों और जनता के साथ ऐसा दोहरा मापदंड क्यों अपनाया जा रहा है?

आपको क्या लगता है—क्या यह फैसला जायज़ है, या कर्मचारियों के साथ मजाक? सरकार की प्रतिक्रिया पर भी नजरें टिकी हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से, यह मुद्दा जनता के असंतोष को बढ़ा सकता है, जिससे विपक्ष को सरकार पर हमला करने का अवसर मिलेगा। अगर सरकार इस फैसले को सही ठहराने की कोशिश करती है, तो यह कर्मचारियों और मध्यम वर्ग के बीच और ज्यादा नाराजगी पैदा कर सकता है।

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