श्रीमति पर्ल चौधरी, वरिष्ठ काँग्रेस नेत्री

एक समय था जब “सीताराम” कहने से जुबां पर श्रद्धा, संतुलन और मर्यादा का भाव स्वतः आ जाता था। सीता और राम—दोनों मिलकर एक ऐसा धार्मिक और सांस्कृतिक आदर्श गढ़ते हैं, जिसमें समर्पण, शक्ति और न्याय समाहित हैं। लेकिन आज, जब “जय श्रीराम” की गूंज सत्ता के गलियारों से लेकर सड़कों तक सुनाई देती है, वहीं “सीता” का नाम लगभग लुप्तप्राय-सा हो गया है।

त्रेतायुग में भगवान राम वनवास गए थे, लेकिन लगता है आज के कलियुग में सीता मइया को ही समाज और राजनीति ने वनवास दे दिया है। यह केवल एक नाम का लोप नहीं है, बल्कि यह हमारे सामाजिक दृष्टिकोण का प्रतिबिंब है—जहाँ नारी को पूजने की बात तो होती है, पर उसके वास्तविक अधिकार और सम्मान को अब भी दरकिनार किया जाता है।

महिला आरक्षण पर लंबे समय से बातें होती रही हैं नए संसद भवन में बड़े तामझाम से इस विधेयक को पारित करवा कर तालियाँ भी बटोरी गईं, पर क्रियान्वयन के मोर्चे पर परिणाम नगण्य हैं। इसी तरह, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” जैसे नारे लगते हैं, लेकिन जब देश के अंदरूनी इलाकों में जाकर देखा जाए, तो सच किसी और दिशा में इशारा करता है।

हरियाणा के पटौदी क्षेत्र के कई गाँव इसका जीवंत उदाहरण हैं। यहाँ की कई बेटियाँ आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हैं, क्योंकि आगे की कक्षाएँ पढ़ाने वाले सरकारी स्कूल पास नहीं हैं। जो थोड़े बहुत विकल्प हैं, वे दूसरे गांवों में हैं—जहाँ तक पहुँचने के लिए कोई सुरक्षित और सुलभ आवागमन की सुविधा नहीं है। ऐसे में गरीब माता-पिता अपनी बेटियों की सुरक्षा और समाज की सोच से डरकर उन्हें घर पर रोक लेते हैं।

इस समस्या की जड़ सिर्फ सुविधाओं की कमी नहीं है, बल्कि एक ऐसी सोच है जिसने नारी को हमेशा ‘दोयम’ माना। जब तक इस सोच में बदलाव नहीं आएगा, तब तक सीता का नाम हमारे नारों, नीतियों और समाज के केंद्र से गायब ही रहेगा।

हमें फिर से “सीताराम” कहना होगा—शब्दों में भी और कर्मों में भी। नारी को सिर्फ मंदिरों में पूजने से नहीं, बल्कि उसे समान अधिकार, शिक्षा और सुरक्षा देकर सशक्त बनाना ही सच्चा सम्मान है।

इसलिए कहिए:
“सीताराम सीताराम, भज प्यारे मन सीताराम”—

ताकि कल की सीता को आज का अधिकारपूर्ण स्थान मिल सके।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!