विजय गर्ग 

आज दुनिया के हर देश में लोप होती जा रही मानवीयता के चलते वास्तव में किसी मनुष्य को खोज पाना काफी मुश्किल होता जा रहा है। मगर इसके लिए जरूरी है कि हम मनुष्य होने के बुनियादी तत्त्वों की पहचान कर सकने में सक्षम हो सकें। अगर इंसानियत के तकाजे के मुताबिक देखें तो वास्तव में मनुष्य कहे जाने वाले लोगों की संख्या बेहद कम होती जा रही है । कोई भी क्षेत्र हो, वहां इंसानियत से लैस इंसान नहीं मिलते हैं। अगर कहीं कोई भला आदमी दिख जाता है, तो उसे ‘मूर्ख’ या ‘दुनियादारी का ‘पागल’ करार दे दिया जाता । आज हर क्षेत्र की आपाधापी और बेलगाम दौड़ में, प्रतिस्पर्धा के इस दौर में मनुष्य दिखाई नहीं देते। किसे हम मनुष्य कहें, यह प्रश्न पैदा होता है । जिसमें अन्य के प्रति दया और परोपकार का भाव हो, मुसीबत या कठिनाइयों से घिर जाने पर परस्पर निस्वार्थ सहयोग की भावना हो, जिसमें सत्य, अहिंसा, त्याग, दया, प्रेम, शुद्धता, नैतिकता, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के भावों से युक्त मनुष्यत्व हो, उसे मनुष्य कहा जा सकता है।

भूमध्य सागर के तट पर बसे यूनान की राजधानी एथेंस सुकरात जैसे दार्शनिक और उनके शिष्य प्लेटो की जन्म भूमि रही। वहां का एक प्रसंग बेहद महत्त्वपूर्ण है । एक दिन एक दार्शनिक संत डायोनिसिस दिन के उजाले या तेज धूप में लालटेन लेकर कुछ ढूंढ़ते हुए जा रहे थे, तो उन्हें देख कर धीरे-धीरे कुछ लोगों की भारी भीड़ इकट्ठा होती गई। चौराहे पर जब वे पहुंचे तो भीड़ ने उन्हें घेर लिया। भीड़ में से एक मनचले ने उनसे पूछा कि दिन की इस तेज धूप में जलती लालटेन लेकर तुम क्या ढूंढ़ रहे हो । संत ने उत्तर दिया कि मैं मनुष्य को ढूंढ़ रहा हूं, इंसान को ढूंढ़ रहा हूं। एक उद्दंड व्यक्ति ने कहा कि क्या हम तुम्हें इंसान दिखाई नहीं देते। इस पर डायोनिसस ने कहा कि नहीं, तुम मानव नहीं हो… तुममें से तो कोई किसी का स्वामी है, दास है, पिता है, बेटा है, नेता है, पदाधिकारी, रसूखदार है, अंध धार्मिक है, लेकिन मनुष्य नहीं है; मैं मनुष्य और उसकी मानवीयता को ढूंढ़ रहा हूं ।

इंसानियत और मानवीयता की चाह में हर सामान्य आदमी को अपने और पराए स्वत्व की रक्षा के लिए संभल कर ही चलना होगा, क्योंकि धुरीहीनता संगठन के हर क्षेत्र व्याप्त है और मतलबपरस्तों की काई हर ताल तलैया पर जम चुकी है। हर जगह विवेकहीन भीड़ दिखती है, जो न तो कुछ वास्तविक संदर्भ समझ पाती है, न उसके मुताबिक अपनी प्रतिक्रिया दे पाती है। अब नारे-उ – जलूस और सभाओं से आम आदमी की आस्था उठ गई है ।

वह इनमें राजनीतिक स्वार्थ और आचरण की मक्कारी देख रहा । जबकि आज एक व्यवस्था में रहते हुए मनुष्य का जीवन राजनीतिक ढांचे से ही तय होता है। दूसरी ओर, ऐसी भीड़ खड़ी हो रही है, या कहें कि भीड़ खड़ी की जा रही है, जिसे वैसे मुद्दों से कोई वास्ता नहीं, जो मानवीयता को बचाने की मांग करते हों । उसे सिर्फ वह उन्माद प्यारा लगने लगा है, जिसमें डूब कर वह वैसी सारी समस्याओं को भूल जाए, जो उसकी और समूचे समाज और देश को प्रभावित करती हों । उसकी जिंदगी की गुणवत्ता निम्नतर हो जाए, लेकिन वह अफवाह और आक्रामकता के प्रभाव में जीना पसंद करने लगता । दरअसल, मनुष्य और मानवीय मूल्यों के प्रति निष्ठा का जहां अभाव हो जाता है, वहां किसी की वाणी भी अर्थहीन हो जाती है ।

यह विडंबना है कि आज मानव मूल्यों का इतना पतन होता जा रहा है कि समस्याओं के प्रति हमारी संवेदनाएं कुंद हो गई लगती हैं । इसी का परिणाम है कि हम स्थितियों को सही संदर्भ, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की क्षमता खोते जा रहे हैं और परस्पर किसी भी व्यक्ति, राष्ट्र या समाज की अस्मिता पर चोट करने से बाज नहीं आते। सामाजिक और मानवीय व्यवहार भूलकर व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएं या अनुशासन की आड़ में एकाधिकारशाही थोपने लग जाते हैं। अपनी ठिठुरन दूर करने के लिए दूसरों को मिटाकर उनकी आग में हम अपनी ठंडक को मिटाने लग जाते हैं। हम मनुष्य जन्म लेने भर से यह समझने लगते हैं कि हम मनुष्य हैं। जबकि सही बात तो यह है कि हमारे कर्म, व्यवहार, सद्भावना, कामना और सदाचार की भावना से प्रेरित क्रियाकलाप ही हमें मनुष्य बनाने का आभास कराते हैं। मनुष्य किसी भी पद पर हो या कितना ही रईस हो, है वह एक सामाजिक प्राणी । उसे सबका खयाल रखकर अपना व्यवसाय, कार्य, व्यवहार, नेतृत्व करना चाहिए । नैतिक मूल्यों से रहित होकर चलना खोखलापन है ।

अपने अति कलुषित लोभ में दूसरों के हक को छीनने की प्रवृत्ति और दूसरों के शवों पर अपनी भव्य इमारत खड़ी करना, अपनी विचारधारा के महल खड़े करने की कुप्रवृत्ति छोड़नी होगी। सबके हितों की चिंता करें तो मानवता का पोषण हो सकता है। हम क्यों अपने लिए पक्की सड़क और दूसरों के लिए गहरी खाई और गड्ढों से युक्त बनाएं। मानवता के पोषण के लिए सोचना होगा । मानवता के होते जा रहे ह्रास में कवि दुष्यंत की ये पंक्तियां कितनी सटीक बैठती हैं- ‘इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है/ हर किसी का पांव घुटनों तक सना है । ‘ व्यवहार, व्यवसाय, राजनीति, धर्म के अनुपालन, पद प्राप्ति, जातिगत अहं, सत्ता प्राप्ति की लिप्सा में हर कोई मानवता को ताक पर रखता जा रहा है। बात तो तब बने, जब हम नैतिक मूल्य धारण कर आगे बढ़ें मानवता का राष्ट्रगान हो ।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!