राम त्याग पर चलते हैं और कृष्ण कर्म पर रामकथा में चमत्कार नहीं, लौकिकता है ‘है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं, उसको इमाम-ए-हिंद।’ अशोक कुमार कौशिक ‘रामो विग्रहवान् धर्म:।’ यह ‘रामतत्व’ का बीज शब्द है। राम धर्म के ‘विग्रह’ हैं, मूर्त नहीं। विग्रह में प्राण होता है। मूर्ति निष्प्राण होती है। रामनाम से धर्म स्पंदित होता है। वाल्मीकि रामायण के ‘अरण्यकांड’ का यह सूत्र राम को संपूर्णता में परिभाषित करता है। यह एक वाक्य समग्र कालखंड, धर्मशास्त्र, ऋषि वचनों पर भारी पड़ता है। यह सूत्र इतने कालातीत अर्थों के साथ ध्वनित होता है कि इसमें समूची विश्व-संस्कृति के ‘रामतत्व’ की अनंत व्याख्याएं व्यक्त होती हैं। हमारी मानवीय, जातीय, लोकागम, ऐतिहासिक, वैदिक, पौराणिक चेतना में जो भी सर्वश्रेष्ठ है, सर्वानुकूल है, सर्वयुगीन है, सर्वधर्म है, वह सब ‘रामतत्व’ में समाता है। विश्व संस्कृति में फैले रामतत्व तक मनुष्य के लिए जो भी सर्वोत्तम है, वह ‘राम’ है। राम कौन हैं? क्या हैं? शायद यह सवाल ऋषि वाल्मीकि को भी मथ रहा था। ‘चारित्रेण च को युक्त: सर्वभूतेषु को हित:।’ जीवन में चरित्र से युक्त कौन है? जो सभी प्राणियों के कल्याण में रुचि रखता हो। जो देखने में भी सुखद और प्रियदर्शी हो। देव, दानवों, यक्षों, योद्धाओं, ऋषियों, संतों, मुनियों की भीड़ के बीच यह सवाल वाल्मीकि ने नारद से किया था। ऐसा बेदाग चरित्र, जो सभी प्राणियों के हित में हो और उसे विद्वानों का भी समर्थन मिले। राम ‘शरीरधारी धर्म’ हैं। वह धर्मज्ञ, धर्मिष्ठ से ‘धर्मभूतावरं’ (धर्म के प्राणिमात्र प्रतीक) हो जाते हैं। यानी राम जो करते हैं, वह धर्म हो जाता है। मन, वाणी, कर्म और आचरण से राम जो कुछ भी करते हैं, उससे धर्म की व्याख्या होती है। राम राजा हैं। राम वनवासी हैं। राम सहृदय भाई हैं। राम संवेदनशील पति हैं। राम सबके हैं। राम सब में हैं, वे ईश्वर होकर भी मनुष्य हैं। ईश्वर जब मनुष्य होगा, तभी मनुष्यों की गरिमा बढ़ेगी। उनके सारे काम मानवीय हैं। स्त्री के विरह में वे दु:खी हैं। भाई के वियोग में रोते हैं, इसलिए वे लोक से सीधे जुड़ जाते हैं। हर मनुष्य उनसे अपनापन मान लेता है। उसे लगता है, राम हमारी तरह ही हैं। शायद इसलिए राम के लिए ‘पुरुषोत्तम’ और ‘नरोत्तम’ जैसी उपमाएं बनीं। राम ‘धीरोदात्त नायक’ की सबसे बड़ी मिसाल हैं। इहलोक के राम : राम अदृश्य नहीं थे। राम मिथक नहीं थे। राम ने इसी धरती पर जन्म लिया। राम ने मनुष्य का जीवन जीते हुए ईश्वरत्व को प्राप्त किया। राम का जीवन बिल्कुल मानवीय ढंग से बीता। उनके व्यक्तित्व में दूसरे देवताओं की तरह किसी चमत्कार की गुंजाइश नहीं है। आम आदमी की मुश्किल उनकी मुश्किल है। वे लूट, डकैती, अपहरण और भाइयों से सत्ता की बेदखली जैसी उन समस्याओं का शिकार होते हैं, जिन समस्याओं से आज का आम आदमी जूझ रहा है। कृष्ण और शिव हर क्षण चमत्कार करते हैं, लेकिन रामकथा में चमत्कार नहीं, लौकिकता है। दशरथ का पुत्र होना मात्र राम के व्यक्तित्व को नहीं गढ़ता। राम सत्ता, वंश या शक्ति से संपोषित नहीं होते। वे नायकत्व और राजत्व दोनों अर्जित करते हैं। राम परिवार की बदौलत नहीं, प्रयासों की बदौलत हैं। दुनिया के अनेक नायकों के लिए राज्य सबसे बड़ी चीज होती है, पर राम के पास अपने पिता के समृद्ध राज्य अयोध्या से बड़ी चीज खुद में अधिष्ठित है। राम साध्य हैं, साधन नहीं। गांधी का राम सनातन, अजन्मा और अद्वितीय है। वह महज दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा नहीं है। वह आत्मशक्ति का उपासक और प्रबल संकल्प का प्रतीक है। वह निर्बल का एकमात्र सहारा है। उसकी कसौटी प्रजा का सुख है। वह सबको आगे बढऩे की प्रेरणा और ताकत देता है। हनुमान, सुग्रीव, जाम्बवंत, नल, नील, सभी को समय-समय पर नेतृत्व का अधिकार उन्होंने दिया। उनका जीवन बिना कुछ हड़पे हुए सबको सबका हक देने की मिसाल है। वह देश में शक्ति का सिर्फ एक केंद्र बनाना चाहते हैं। रामायण काल में देश में शक्ति और प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केंद्र थे अयोध्या और लंका। अयोध्या सात्विक भक्ति की प्रतीक थी और लंका आसुरी ताकतों का गढ़। राम पाप के विरुद्ध सत्य की शक्ति की स्थापना करना चाहते थे, इसलिए राम अयोध्या से लंका गए। रास्ते में उन्होंने अनेक राज्य जीते। पर राम ने जीते हुए राज्य हड़पे नहीं। उनकी जीत शालीन थी। जीते राज्यों को वहां के योग्य उत्तराधिकारियों को सौंपा। सुग्रीव और विभीषण को जीता हुआ राज्य सौंप आगे बढ़ गए। इसीलिए अल्लामा इकबाल कहते हैं ‘है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं, उसको इमाम-ए-हिंद।’ वीरता के साथ राम के चरित्र में 2 और तत्व जुड़ते हैं, जो उनके जननायक होने का सबसे बड़ा आधार हैं। ये हैं ‘शील’ और ‘करुणा’। राम ईश्वर के अवतार होते हुए भी सामान्य मनुष्य रहे। राम के साथ शील और विनय धर्म बनकर प्रतिष्ठित होता है। राम क्षेत्रवादी नहीं हैं। राम विस्तारवादी नहीं हैं। राम सामंतवादी नहीं हैं। राम जातिवादी नहीं हैं। राम अहंकारी नहीं हैं। तो फिर राम क्या हैं? राम न्यायप्रिय हैं। राम भावप्रिय हैं। राम सत्यप्रिय हैं। राम अनुशासनप्रिय हैं। राम सम्यक् दृष्टि वाले हैं। राम अंत भी हैं। राम ‘कर्मयोगी’ हैं। गीता का समय राम के बाद का है। अगर गीता न होती तो राम की जीवनगाथा ही गीता के कर्मयोग की सुंदर गाथा बनती। राम ‘पुरुषोत्तम’ हैं। 9 गुणों की प्रस्तावना करते हैं। पहला है ‘जिजीविषा’, अर्थात् जूझने का साहस, परंतु शील और अनुशासन के साथ। दूसरा है ‘रक्षा’, यानी दुर्बलों की दुष्टों से सुरक्षा और दुष्ट-दमन। तीसरा ‘दीप्तिशील’ और ‘सौंदर्य की आभा’। चौथा ‘पुरुषार्थ’, जो त्याग के साथ संयुक्त होता है। पांचवां हैं ‘महाकरुणा’। छठा है ‘प्रचोदन’, यानी भविष्य के लिए प्रेरणा बनने की शक्ति। 7वां है ‘सबलता’, अर्थात् जीवन के विविध क्षेत्रों में विस्तार। 8वां है ‘भूमा’, यानी यश और प्रताप का विस्तार। और नवां है ‘ऐश्वर्य’ या ‘रिद्धि’। इन तत्वों का घनीभूत अवतार ही ‘राम’ होता है। देवताओं में केवल विष्णु ही ऐसे हैं, जिनमें ये नौ गुण विद्यमान हैं। मनुष्य होते हुए भी राम का चरित्र इन 9 गुणों से विभूषित है। रामायण के रूप में महर्षि वाल्मीकि ने भारतीय संस्कृति को वह आधार दिया, जो इतना विराट् और बहुआयामी था कि इसके बाद देवताओं की आवश्यकता ही नहीं रह गई। तुलसी तो 16वीं सदी में आते हैं, और आते ही वह ‘संस्कृत’ की सीमा लांघ भारतीय भाषाओं के दुलारे हो जाते हैं। तुलसी को जो ‘राम’ मिले, वह लोकभाषा में पुरुषोत्तम थे। राम का पूरा चरित्र दिव्य आदर्श था। रामकथा ‘लोकतंत्र की जननी’ है। लोकतंत्र में दो पक्ष होते हैं ‘पक्ष’ और ‘विपक्ष’। राम चौदह बरस सरकार में नहीं, विपक्ष में रहे। उनका यह जीवन विरोध में बीता। राम अयोध्या के राजकुमार थे। इक्ष्वाकु वंश के 64वें राजा थे। सूर्यवंशी सम्राट् थे। पिता की आज्ञा से वनवास को गए। राम अयोध्या से निकलकर आज के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु होकर लंका तक गए। अयोध्या में सरयू के तट से लेकर रामेश्वरम् में समुद्र तट तक प्रभु राम के निशान आज भी मौजूद हैं। अब तो उन 298 स्थानों पर जहां-जहां राम के चरण पड़े, उन्हें चिन्हित कर वहां पहचान के पत्थर लगवाए जा रहे हैं, जिससे रामभक्त आसानी से उस पथ पर चल सकें, जिस पर कभी राम के चरण पड़े। जिस तमिलनाडु से सनातन पर सबसे ज्यादा हमले किए जाते हैं, उसी तमिलनाडु में राम के सबसे ज्यादा प्रमाण हैं। गांधी के दर्शन का आधार राम हैं। गांधी की शक्ति का आधार राम हैं। गांधी की प्रेरणा राम हैं। गांधी को समझने के सूत्र भी राम हैं। गांधी के जीवन-दर्शन से लेकर अंतिम शब्द तक राम ही समाहित हैं, समाविष्ट हैं। राम के चरित्र के अनुरूप ही गांधी का चरित्र है। एक अहिंसा को छोड़ दें तो गांधी राम के अधीन नजर आते हैं। राम की दृष्टि कृष्ण की दृष्टि से भी व्यापक है। क्योंकि कृष्ण एकल कथा के निॢवकारित, निर्लिप्त और अनासक्त नायक हैं; जबकि राम सामंजस्य, सहभाव, समभाव और समझौते के साथ जीने वाले आदर्श। राम त्याग पर चलते हैं और कृष्ण कर्म पर। राम के पास कर्म की रिक्तता नहीं है, लेकिन वे त्याग और संतुलन के परिमार्जन से अपने कर्म को कसौटी पर कसते हैं। Post navigation आखिर क्यों 23 जनवरी को ही मनाया जाता है पराक्रम दिवस ? 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