भगत सिंह, गांधी और सुभाष में वैचारिक मतभेद 

नेताजी सुभाष, डॉ श्यामा प्रसाद और स्वाधीनता संग्राम

संघ और हिन्दू महासभा के लोग, एमए जिन्ना औऱ उनकी मुस्लिम लीग के साथ

अशोक कुमार कौशिक 

भारत के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस पराक्रम दिवस से जुड़े हैं। पराक्रम दिवस हर साल 23 जनवरी को मनाया जाता है। ये साहस को सलाम करने का दिन है। पराक्रम दिवस के अवसर पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों को इस दिन के महत्व के बारे में बताया जाता है और स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन की यादों को ताज़ा किया जाता है। विराट दिवस मनाने की एक खास वजह है। यह दिन सुभाष चंद्र बोस से जुड़ा है। इस दिन सुभाष चंद्र बोस को सलाम किया जाता है और उनके योगदान को याद किया जाता है।

सुभाष चंद्र बोस ने देश को ब्रिटिश दासता से मुक्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका पूरा जीवन साहस और वीरता की कहानी है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने नारा दिया था, ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।’ इस नारे ने भारतीयों के दिलों में आज़ादी की मांग कर रही आग को और तेज़ कर दिया। बहादुरी दिवस और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बीच संबंध और 23 जनवरी को बहादुरी दिवस मनाने का कारण जानें।

पराक्रम दिवस का इतिहास

बहादुरी दिवस हर साल 23 जनवरी को मनाया जाता है। इस दिन को मनाने की शुरुआत भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2021 में की थी। भारत सरकार की घोषणा के बाद हर साल 23 जनवरी को पराक्रम दिवस मनाया जाने लगा।

23 जनवरी को ही क्यों मनाया जाता है विराट दिवस?

भारत सरकार ने इस दिन को सुभाष चंद्र बोस के नाम पर समर्पित किया है। सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी को हुआ था। हर साल उनकी जयंती के मौके पर पराक्रम दिवस मनाकर नेताजी को याद किया जाता है और आजादी में उनके योगदान को श्रद्धांजलि दी जाती है।

बोस की जयंती को शौर्य दिवस के रूप में क्यों मनाया जाता है?

सुभाष चंद्र बोस की जयंती को शौर्य दिवस के रूप में मनाने का एक कारण यह भी है। बोस का पूरा जीवन हर युवा और भारतीय के लिए आदर्श है। बोस भारतीय प्रशासनिक सेवा की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए लेकिन देश की आजादी के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी और घर लौट आए। यहां उन्होंने स्वतंत्र भारत की मांग करते हुए आजाद हिंद सरकार और आजाद हिंद फौज का गठन किया। इतना ही नहीं, उन्होंने अपना खुद का आज़ाद हिंद बैंक स्थापित किया, जिसे 10 देशों का समर्थन मिला। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को विदेश तक पहुंचाया।

नेताजी सुभाष, डॉ श्यामा प्रसाद और स्वाधीनता संग्राम

सावरकर, डॉ हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस, यह सब समकालीन थे। लगभग एक ही उम्र के होंगे। थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है। पर इन नेताओं ने सुभाष के बारे में अपने समय मे क्या लिखा पढ़ा और कहा है यह ढूंढने और जानने की ज़रूरत है। स्वाधीनता संग्राम के समय, चाहे भगत सिंह और उनके साथी आज़ाद आदि हों, या गांधी के नेतृत्व में मुख्य धारा का आंदोलन, या फिर सुभाष के नेतृत्व में, औपनिवेशिक गुलाम भारत पर हमला कर के उसे आज़ाद कराने की एक अत्यंत दुर्दम्य और महत्वाकांक्षी अभिलाषा, इन सबका उद्देश्य एक था, भारत की ब्रिटिश दासता से मुक्ति। सबके तरीके अलग अलग थे, उनकी विचारधाराएं अलग अलग थीं, राजनीतिक दर्शन अलग अलग थे, पर यह तीनों ही धाराएं एक ही सागर की ओर पूरी त्वरा से प्रवाहित हो रही थी, वह सागर था, आज़ाद भारत का लक्ष्य। 

पर उस दौरान, जब कम्युनिस्ट भगत सिंह और उनके साथी, गांधी और उनके अनुयायी और सुभाष और उनके योद्धा, भारत माता को कारा से मुक्ति दिलाने के लिये, अपने अपने दृष्टिकोण से संघर्षरत थे, तब वीडी सावरकर, डॉ हेडगेवार, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, क्या कर रहे थे ? इस सवाल का उत्तर, इन महानुभावों के उन समर्थकों को भी जानना चाहिए। 

इतिहास के किसी पन्ने में भारत की आज़ादी के लिये किये गए किसी संघर्ष की कोई कथा, संघ और हिन्दू महासभा के नेताओं के बारे में दर्ज नहीं है। बस सावरकर एक अपवाद हैं। वे अपने शुरुआती दौर में ज़रूर एक प्रखर  स्वाधीनता संग्राम के सेनानी रहे हैं, पर अंडमान पूर्व और अंडमान बाद के सावरकर में जो अंतर है वह स्पष्ट है। 

भगत सिंह, गांधी और सुभाष में वैचारिक मतभेद 

यह मतभेद उनके राजनीतिक सोच और दर्शन का था। भगत सिंह कम्युनिस्ट और मार्क्स तथा लेनिन से प्रभावित थे। वे न केवल ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी चाहते थे, बल्कि वह साम्राज्यवादी, पूंजीवादी शोषण से मुक्ति चाहते थे। गांधी, यह तो चाहते थे कि भारत आज़ाद हो, पर वह यह लक्ष्य अहिंसा और मानवीय मूल्यों को बरकरार रखते हुए प्राप्त करना चाहते थे। वे ब्रिटिश हुक़ूमत के खिलाफ थे पर ब्रिटिश लोकतंत्र के मूल्यों को सम्मान देते थे। नेताजी एक योद्धा थे। उनके लिये यह संघर्ष एक युद्ध था। वे आक्रामक थे और जब भी, जहां भी उन्हें अवसर मिला, उन्होंने ब्रिटिश के खिलाफ मोर्चा खोला और अपने इस पावन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हिटलर से भी मदद लेने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया। 

पर संघ और हिन्दू महासभा के लोग, एमए जिन्ना औऱ उनकी मुस्लिम लीग के साथ थे। जब देश एक होकर आज़ादी के लिये संघर्षरत था, जिन्ना औऱ सावरकर विभाजनकारी एजेंडे पर काम कर रहे थे। उनका लक्ष्य देश नहीं उनका अपना अपना धर्म था। वे अपने अपने धर्म को ही, देश समझने की अफीम की पिनक में थे। कमाल यह है कि दोनो ही आधुनिक वैज्ञानिक सोच से प्रभावित और नास्तिक थे। आज भले ही संघ के मानसपुत्र नेताजी सुभाष बोस की जयंती मनाये, पर सच तो यह है कि सुभाष के प्रति न तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कोई लगाव था न सावरकर का। मुझे कोई ऐसा दस्तावेज नही मिला जिंसमे इन दोनों महानुभावों ने नेताजी के संघर्ष और उनकी विचारधारा के बारे में कुछ सार्थक लिखा हो। 

नेताजी सुभाष की जयंती मनाने का हर व्यक्ति को अधिकार है और हमे उन्हें याद करना भी चाहिए। पर यह सच भी आज की नयी पीढ़ी को जानना चाहिए कि जब आज़ादी के लिये नेताजी सिंगापुर में आज़ाद हिंद फौज का नेतृत्व ग्रहण कर के अपने मिशन में लगे थे तब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर के लोग, एमए जिन्ना के साथ मिलकर अंग्रेजों की मुखबिरी क्यो कर रहे थे। संघ या संघ के लोग आज चाहे जितनी बार भारत माता की जय बोले, खुद को बात बात पर देशभक्त घोषित करे, पर वे स्वाधीनता संग्राम में अपनी अंग्रेजपरस्त भूमिका के कलंक से कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं। यह आज की पीढ़ी को जानना चाहिए।

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