यहाँ कबीर- वाणी में उनके मंतव्य , उनके सरोकार ध्वनित हो रहे हैं। कबीर ख़ुद कुटिया में रहे। संयोग से एक गीत आजकल वातावरण में घुल- मिल गया है – झोपड़ी में राम के आने का।

त्रिलोक कौशिक

राम को झोपड़ी में आने की बात करने वाला समाज उनको भव्य मंदिर में बिठाकर स्वयं गौरवान्वित महसूस कर रहा है। राम को प्रतिष्ठित करने के महत्व की बजाय सारा बल भव्यता पर है। कबीर, और उनके राम के पास न सुविधा का ताना- बाना था, ना सांसारिक सुख- लिप्सा के मैल से सनी कोई घिनौनी चादर!वे तो निर्लिप्त थे।

झीनी- झीनी बुनी चदरिया, दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी, ज्यों की त्यों रख दीनी चदरिया। देखो कबीर बाबा, आप ठहरे निरगुनियां, आपमें तो वह स्पष्ट ज्ञान- बोध था जिसके बल पर आप कह सकते थे, ‘ घूंघट के पट खोल री, तोहे पिया मिलेंगे। हमारी दिक्कत बड़ी विकट है। हमारे पास अब एक नहीं, कई घूंघट- पट हैं, मतलब अनंत आवरण। एक को उतारूँ तो दूसरा और दूसरे को उतारूँ तो तीसरा।

यह कहना कठिन है कि हम कंबल को नहीं छोड़ रहे, या कंबल हमें! माया प्रधान हो चली है और उससे मुक्ति बस दिखावे भर की।

गली – गली, चौराहे- चौराहे राम के नाम के ध्वजों की बयार बह रही है। इतने कपड़े से बने वस्त्रों को पहनकर तो समूचे विश्व का नंगापन ढक जाता।

बात,केवल कंबल तक की, ताने- बाने तक की होती तो चल जाती। अब बात दूर तक फैले राजनीतिक छल – बल के बीच हम सबके राम की है! राम हमारे तब तक नहीं होने वाले, जब तक हम उनके नहीं हो जाते।

कबीर के बहुरिया होने की बात छोड़िए, वे तो हरि को जननी और स्वयं को बालक बनाए हुए हैं। वे राम से जुड़े नहीं बंधे हैं।
कबीर कूता राम का,मुखिया मेरा नाम, गले राम की जेवढी ( जेवड़ा- जेवडी और रस्सी कहने में बड़ा फ़र्क़ है। मेरी दृष्टि में यह बंधन भक्ति से अधिक प्यार का है।

तुलसी भी प्रीति राम सौं नीति पथ चली पर आकर ही संपन्न होती हैं।

मेरा दुर्भाग्य ही समझिये कि जब समाज का बड़ा वर्ग उनकी प्राण- प्रतिष्ठा में लगा है मुझे तुलसी के, कबीर के, जन – जन के राम फिर से सरयू के किनारे जल – समाधि लेने को विकल खड़े दिखाई दे रहे हैं।

यह विकलता राम को उनके इन तथाकथित भक्तों ने ही दी है। ‘ राम, तुम्हारी जल – समाधि का समय निकट है, जान रहे हो! ‘ कविता की बात फिर कभी। हां, तो कबीर बाबा

आपका राम, यकीन मानिए आज किसी को न भाएगा। जिन्हें भाएगा, वे अपने इस निर्गुण – निराकार के समर्थन में कुछ न कहेंगे।

‘ राम- वियोगी ना जिवै, जिवै सो बवरा होय। ‘ लेकिन हम राम वियोगी नहीं, काम और दाम – वियोगी हैं।

अब राम के नाम का ढोल पीटते की होड़ लगी है। जो इस भीड़ में शामिल हैं, वे रहें। उनसे कुछ भी कहने आप नहीं आएंगे।अब राम के आने, देर – सबेर आने का प्रसंग भी धूमिल हुआ। अब तो निष्प्राण में प्राण- प्रतिष्ठा का झमेला है!

आज तक आपका संबोधन कर्णभेदन कर रहा है।

‘ कबिरा तेरी झोपड़ी गल -कटियन के पास
जो करेगा, सो भरेगा, तू क्यों भया उदास। ‘

एक बात तो समझ आई कि तमाम प्रपंच को देखकर आप भी उदास हैं।

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