सुरेश सिंह बैस “शाश्वत” वैसे तो दीपावली हिन्दुओं का सबसे बड़ा पर्व माना जाता है पर दीपावली अपने साथ चार अन्य पर्वों को भी साथ लेकर आती है। जिसमें सबसे प्रथम है “धनतेरस” दूसरा “नरक चौदस” तीसरा “गोवर्धन पूजा” और सबसे अंत में “भाई दूज” का पर्व आता है। इसके बाद ही दीपावली महापर्व की समाप्ति मानी जाती है। दीपावली- के दूसरे दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल के प्रथम दिन सारे भारत में गोवर्धन पूजा की जाती है। खासकर उत्तर-मध्य भारत में तो गोवर्धन पूजा का विशेष महत्व माना गया है। गोवर्धन पूजा के दिन महिलाएं अपने घर के आंगन द्वार के समीप गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाती है, उसके आसपास ही गोबर के ही गौ, ग्वाल, खेत आदि बनाये जाते हैं। इस दिन अनेक प्रकार के पकवान भी बनाये जाते है। गोवर्धन को पकवान चढ़ाकर उसकी पूरे विधिपूर्वक अर्चना की जाती है। गोवर्धन पूजा के दिन शाम होने पर उत्तर भारत में पुरुष वर्ग भी इसमें शामिल हो जाते है। और वे टोलियां बनाकर कौड़ियों से युक्त पोषाक पहनकर नाचते-गाते हैं। वे इस मौके पर विशषेतः राम या कृष्ण से संबंधित दोहे या गीत गाते है। जैसे एक गीत कुछ इस प्रकार है। “अरे धनुष चढ़ाये राम ने, चकित भये सब धूप रे। अरे भगन भई श्री राम जानकी देख राम”!! इस अवसर पर स्त्रियां भी उनके साथ मिलकर लयताल के साथ मुकाबले पर उतर आती हैं, और उनके गीत दोहों का जवाब देती हुई अपने मधुर कण्ठों से वातावरण को गुंजित कर देती है। देर रात तक उनकी यह प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। जिसका सभी लोग आनंद उठाते है। भागवत पुराण के अनुसार गोवर्धन पूजा पर्व का प्रारंभ तब से हुआ जब द्वापर में गोकुल- वृंदावन क्षेत्र में दीपावली के दूसरे दिन देवों के देव इन्द्र की पूजा की जाती थी तब नटखट श्री कृष्ण ने ब्रजवासियों को इंद्र की पूजा की तैयारी करते देखा तो वे पूछते हैं, कि आप लोग किसका पूजन करने की तैयारी कर रहे हैं ,इस पर ब्रजवासियों ने उन्हें बताया कि देवराज इंद्र की पूजा कर रहे हैं, इंद्र हमें जल देता है, हमारी प्यास और हमारे खेतों में फसल उन्ही के आशीर्वाद से लहलहाती हैं। इसलिये हम सभी उसी जल देवता इंद्र की पूजा करते हैं। इस पर अपना विरोध प्रगट करते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि गोवर्धन पर्वत हमारी रक्षा करता है, हमारे गांवों को हरी-हरी दूब देता है। तुम लोग गोवर्धन की पूजा क्यों नहीं करते। तब सबने उनकी बात पर अपनी सहमति देकर इंद्र की बजाये. गोवर्धन की पूजा अर्चना की। इस बात का पता चलने पर देवराज इंद्र कोधित हो उठते हैं। और वे काले काले वर्षा के बादलों को आज्ञा दे देते हैं कि ब्रज पर इतना बरसों कि पूरा ब्रज ही बह जाये। बस वर्षा वह भी घनघोर शुरु हो जाती है, लोग हाहाकर कर उठते है। सभी ब्रजवासी कृष्ण के समक्ष जाकर बोलते हैं कि तुम्हारे ही कहने है से हम लोगों ने इंद्र के बदले गोवर्धन की पूजा की थी, फलत: इन्द्र का क्रोध हम पर टूट पड़ा है। अब तुम ही हमें इस महावृष्टि अतिवर्षा से बचाओ। तब कृष्ण ने अपनी सबसे छोटी उंगली से गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। सारे ब्रजवासी उसके नीचे शरण ले लेते है। उधर कुपित इंद्र ने पूरे सात दिन और रातों तक घनघोर वर्षा की, परंतु ब्रजवासियों का बाल भी बांका नहीं होता। तब जाकर इंद्र को ज्ञात होता है कि श्री कृष्ण कोई और नहीं स्वयं भगवान विष्णु ही तो हैं। तब वह मेघों सहित श्री कृष्ण के शरण में आकर क्षमा प्रार्थना करते हैं। तब कृष्ण गोवर्धन को पुनः भूमि पर रखते हैं। बस यहीं से गोवर्धन पूजन की प्रथा प्रारंभ हो गई। “गिर न परे मोरो बारो गिरधारी एक हाथ हर मुकुट संवारे, एक हाथ में पर्वत लये अडो।।” अर्थात गिरधारी कहीं गिर न जायें एक हाथ से वह अपना मुकुट सम्हाले है। ऐसे ऐसे स्तुति गान करके समस्त गोकुल वासी कृष्ण की लीला का आनंद लेते हुए अपने-अपने घरों को प्रस्थान करते हैं। Post navigation खुशियां और सफाई को तरस रहे प्रदेशवासी दीपावली पर्व पर अलग-अलग स्थानों से अवैध शराब सहित 08 आरोपी काबू ………