-महाराजा अग्रसेन जी की जयंती पर की पूजा-आरती
-अग्रवाल समाज से महाराजा अग्रसेन जी के पदचिन्हों पर चलने को किया प्रेरित

गुरुग्राम। सोमवार को महाराजा अग्रसेन जी की जयंती के अवसर पर गुरुग्राम के विधायक सुधीर सिंगला ने यहां सदर बाजार के पास महाराजा अग्रसेन चौक पर उनकी प्रतिमा पर उनकी पूजा व आरती करते हुए श्रद्धासुमन अर्पित किए। इस दौरान काफी संख्या में अग्रवाल समाज के लोग मौजूद रहे।

महाराजा अग्रसेन को नमन करने के कार्यक्रम में नरेश गुप्ता, पंकज गुप्ता, मुकेश सिंघल, चंद्रभान गोयल, दविंद्र गुप्ता, रविन्द्र जैन, ईश्वर मित्तल, अमित गुप्ता, अजय, अमित गोयल, अनिल गुप्ता, नवीन गुप्ता, सुनील सिंगला, अभिनव बंसल, प्रिंस मंगला, राजेश गुप्ता, निशांत गर्ग व अन्य गणमान्य मौजूद रहे। अपने संबोधन में विधायक सुधीर सिंगला ने कहा कि महाराजा अग्रसेन एक पौराणिक समाजवाद के अग्रदूत, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक और महादानी तथा समाजवाद के पहले जनक थे। महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। वे अग्रोदय नामक गणराज्य के महाराजा थे। जिसकी राजधानी अग्रोहा थी।

धार्मिक मान्यतानुसार महाराजा अग्रसेन का जन्म सूर्यवंशीय महाराजा वल्लभ सेन के द्वापर युग के अंत में और कलयुग की शुरुआत में आज से लगभग 5185 साल से पहले हुआ था। जो की समस्त खांडव प्रस्थ (दिल्ली), बल्लभ गढ़, अग्र जनपद (आगरा) के राजा थे। यह इतिहास में दर्ज है कि अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ पूरे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह एक शेरनी, एक शावक को जन्म देते दिखी।

कहते हंै जन्म लेते ही शावक ने महाराजा अग्रसेन के हाथी को अपनी मां के लिए संकट समझकर तत्काल हाथी पर छलांग लगा दी। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है, जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। ऋषि-मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण या अग्रोदय रखा गया। जिस जगह शावक का जन्म हुआ था, उस जगह अग्रोदय की राजधानी अग्रोहा की स्थापना की गई। अग्रोहा हिसार जिले में है।

विधायक सुधीर सिंगला ने बताया कि माता लक्ष्मी की कृपा से श्री अग्रसेन के 18 पुत्र हुये। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 गणाधिपतियों के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। यज्ञों में बैठे इन 18 गणाधिपतियों के नाम पर ही अग्रवंश के गोत्रों (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई। उस समय यज्ञों में पशुबलि अनिवार्य रूप से दी जाती थी। जिस समय 18वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा पैदा हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न मांस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणी मात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने अहिंसा धर्म को अपना लिया।  

error: Content is protected !!