सत्संगियों के लिए सबसे बड़ा त्यौहार होता है सत्संग : कंवर साहेब
राधास्वामी सत्संग दिनोद की लाखो की संगत 25 को गुरु ताराचंद का 98वां जन्मदिवस मनाएगी

दिनोद धाम जयवीर फौगाट,

23 सितंबर, सत्संगियों के लिए सबसे बड़ा त्यौहार सत्संग होता है और सत्संग अगर किसी संत महापुरुष के अवतरण दिवस पर हो तो उसकी पवित्रता और महता और ज्यादा बढ़ जाती है। हम भी कुल मालिक अवतार ताराचंद जी महाराज का अवतरण दिवस मनाने यहां एकत्रित हुए हैं। सत्पुरुष के सत्संग में सेवा करना ही सबसे बड़ी भक्ति है। यह सत्संग विचार परम संत सतगुरु कंवर साहेब जी महाराज ने 25 सितंबर को राधास्वामी सत्संग दिनोद के अधिष्ठाता परमसंत ताराचंद जी महाराज के अवतरण दिवस पर होने वाले सत्संग की सेवा कार्यों के लिए जुटे सेवादारों को दर्शन और सत्संग देते हुए फरमाए। उल्लेखनीय है कि राधास्वामी सत्संग दिनोद की लाखों की संगत अपने गुरु का 98वां जन्मदिवस मनाएगी। राधास्वामी सत्संग दिनोद में सत्संग शुरू करने वाले ताराचंद महाराज जी का जीवन करोड़ों जीवों को प्रेरणा देने वाला रहा।

स्वतः सन्त थे परम संत ताराचंद जी महाराज : संक्षिप्त जीवन परिचय

किसने सोचा था कि हरियाणा प्रांत के जिला भिवानी के गांव दिनोद की ऊसर मरुभूमि में अध्यात्म का ऐसा बीज पनपेगा कि कालांतर में विशाल वटवृक्ष के रूप में कल्पतरु की भांति काल व माया की उष्णता से त्राहि त्राहि कर रहे जीवों को ना सिर्फ रूहानी छाया देगा अपितु उनके हर भाव व हर आकांक्षा को भी तृप्त करेगा। दिनोद गांव में 16 अगस्त 1925 देसी कैलेंडर के अनुसार आसौज मास की अमावस्या को ताराचंद महाराज ने चौ॰ मूलाराम मलहान के घर माता चावली देवी की कोख से देह धारी। राधास्वामी आश्रम दिनोद की संगत उनको बड़े महाराज जी के आदर भाव से भी पुकारती है। बड़े महाराज जी का जीवन कष्टों से अछूता नहीं रहा बल्कि यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्होंने पूरा जीवन अपने से पूर्व और समकक्ष सन्त महात्माओं से ज्यादा ही कष्ट सहे। कष्टों का यह सिलसिला उनके होश सम्भालने से पूर्व ही तभी से प्रारम्भ हो गया था जब उनके सर से मां का साया उठ गया था। दादी की गोद मिली लेकिन ये आँचल भी ज्यादा समय नहीं रहा और बचपनावस्था में ही दादी भी उन्हें जीवन के प्रारंभिक कष्टों के झंझावत में अकेला छोड़ गई। इसके पश्चात् तो उनके जीवन में सामाजिक अपमानों और तिरस्कारों की मानो झड़ी लग गई, जिन्होंने उनके जीवन को दुष्कर तो बनाया लेकिन उनके आलोक को डिगा नहीं पाए। उनमें पांच वर्ष की अल्पायु में ही भक्ति की हिलोर उठने लगी थी। भक्त प्रह्लाद और ध्रुव की भांति आप भी आसपास के इलाके में भगत के नाम से जाने जाने लगे। अबोध अवस्था में ही उन्होंने अपने गांव व आसपास के साधु संतों का संग करना शुरू कर दिया। हरियाणा प्रांत के गांव जुई में रहने वाले संत रामसिंह अरमान से 1946 में नाम की दीक्षा देकर सुरत-शब्द के योग से आप सन्तमत की भक्ति करने लगे। अरमान साहब ने नाम दान देने का और सत्संग करने का हुक्म सुनाया तो दिनोद की गांव से धाम में परिवर्तन की यात्रा भी प्रारम्भ हो गई। राधास्वामी मत की सुगंध फैलने लगी। जब फूल खिलता है तो उस पर दूर-2 से आकर भंवरे मंडराने लग जाते हैं। अतः दूर-2 से भारी संख्या में स्त्री-पुरुषों ने उनका आशीर्वाद व शुभ वचन प्राप्त करने के लिए उनके पास एकत्र होना शुरू कर दिया। इसके बाद गिने दिनों में देश के विभिन्न भागों में ही नहीं वरन अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन आदि देशों में भी सत्संग फैल गया। हुजूर ताराचंद जी महाराज ने अपने जीवन काल में विदेशों की 20 यात्राएं कीं। उनकी अनमोल वाणी ‘अनुभव प्रकाश’ नामक पुस्तक में प्रकाशित है। यह पुस्तक उनकी आध्यात्मिक अवस्था का परिचय कराती है। उन्होंने इस पुस्तक में ‘कंवल भेद’ नामक शीर्षक के अंतर्गत मानव संरचना के सभी आंतरिक मंडलों का वर्णन किया है। ऐसा वर्णन पहले  केवल दो सन्तों कबीर साहब और उनके बाद में स्वामी जी महाराज की बाणियों के अंतर्गत ही मिलता है। उनकी शिक्षाओं का सार है कि जीव का कल्याण उसके अपने शरीर व घर परिवार से ही आरम्भ होता है। उन्होंने सहज भक्ति पर ही बल दिया। वे इंसान को भक्ति से पहले सामाजिक पाठ पढ़ाते थे। वे माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी सेवा बताते थे।  प्रेरणादायी सत व्यक्तित्व के धनी परम सन्त ताराचन्द जी महाराज ने अपने जीवन में उच्च कोटि के नियम निर्धारित कर रखे थे। आप सच्चे अर्थो में कर्मयोगी परम पुरुष थे। कुल मालिक के इस अवतार ने 3 जनवरी 1997 को अपनी दौलत अपने परम गुरुमुख शिष्य परम संत हुजूर कंवर साहेब जी महाराज को सौंप कर अपने निज धाम की राह ली। संसार उनके दिखाए रास्ते पर उत्तरोत्तर चलकर अपने जगत-अगत को सुखमय बनाता रहेगा।

ताराचंद नाम को सार्थक करती तारा समाधी:

ताराचंद जी महाराज के परम गुरुमुख शिष्य एवं राधा स्वामी सत्संग दिनोद के वर्तमान गद्दीनशीन परम संत सतगुरु हुजूर कंवर साहेब जी महाराज ने अपने गुरु की स्मृति में तारानुना आकार की अलौकिक समाधि का निर्माण करवाया। यह संत समाधि असंख्य जीवों के जीवन को आलौकिकता प्रदान कर रही है। चूंकि संत समाधि स्थल का निर्माण एक ऐसे परम गुरुमुख शिष्य द्वारा करवाया गया है जिसकी गुरु सेवा, भक्ति, परोपकार व परमार्थ की मिसाल सदियों तक दी जाएगी। ऐसे में समाधि स्थल के कण-कण से श्रद्धा, विश्वास, प्रेम व समर्पण की ऐसी खुशबू आती है जो आंगतुक को हर प्रकार से संतुष्ट व तृप्त कर देती है। परम संत हुजूर ताराचंद जी की पावन स्मृति में निर्मित यह समाधि स्थल तारे की आकृति का है जो परम संत ताराचंद जी के नाम ‘तारा’ चन्द को सार्थक करता है। समाधि स्थल 10000 वर्ग गज में आवेष्ठित है मुख्य समाधि स्थल 1600 वर्ग गज में है। ताराचंद जी महाराज के अंतिम संस्कार स्थल को मुख्य केन्द्र मानकर संगमरमर के आयताकार चबूतरे सहित 101 फीट ऊंची सितारेनूमा समाधि का निर्माण आकाश को धरती पर उतार लाने का सफल प्रयास है। केवल मात्र शीशे व कंक्रीट से बनी इस समाधि स्थल के दाहिनी ओर स्थित कूई तथा बाईं और बनीं कुटिया हुजूर महाराज जी की गहन साधना व अभ्यास की याद दिलाती है। निश्चित तौर पर परम संत ताराचंद जी महाराज की यह संत समाधि एक अनुपम, आध्यात्मिक स्थल व उच्च कोटि के भवन निर्माण कला का बेजोड़ नमुना तो है ही पर इसके साथ-साथ यह एक गुरुमुख शिष्य द्वारा अपने गुरु को दी गई अविश्वसनीय, अकल्पनीय, अभूतपूर्व, अलौकिक श्रद्धांजलि भी है जिसकी मिसाल सदियों तक दी जाएगी।

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