भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक गुरुग्राम। आजादी के अमृत महोत्सव में स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखने वाले अमर योद्धा मंगल पांडे को हमारे देशवासी विस्मृत कैसे कर गए, यह प्रश्न मन को बहुत कचोट रहा है। बात 1857 की है। मंगल पांडे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की फौज में नौकरी कर रहे थे। उन्होंने सर्वप्रथम यह आवाज उठाई कि जो कारतूस उन्हें दिए जा रहे हैं, वह सूअर और गाय की चर्बी से निर्मित हैं और उन्हें चलाने से पहले मुंह से खोलना पड़ता है। इस नौजवान को यह बात गवारा नहीं हुई। इसने इसके विरूद्ध आवाज उठाई कि यह हिंदू और मुस्लिम दोनों के धर्म को भ्रष्ट करता है। और इन्होंने हिंदू-मुस्लिम सिपाहियों के साथ 29 मार्च 1857 को दो अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतारा और वहीं से स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ हुआ। उसके बाद पूरे देश में फैल गए और इसी ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का रूप लिया।अंग्रेजी हुकूमत ने 8 अप्रैल 1857 को बैरकपुर में 30 वर्ष से भी कम आयु के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी को फांसी पर लटका दिया। आपको बता दें कि मंगल पांडे का जन्म 19 जुलाई 1827 को फैजाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ था। आज देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। हरियाणा में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बहुत शिद्दत से कह रहे हैं कि कांग्रेस ने आजादी के अनेक शहीदों को भुला दिया और हम उन सभी को याद कर पूरे प्रदेश में जय हिंद, इंक्लाब जिंदाबाद, मेरा रंग दे बसंती चोला, वंदे मातरम के नारों से वातावरण देशभक्तिमय कर देंगे। याद दिला दें कि प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ ने अपनी टीम के साथ काला पानी से भी शहीदों को याद करने के लिए मिट्टी लाए थे। इसी प्रकार भगत सिंह को याद करते वक्त एलफर्ड पार्क की मिट्टी लाए थे। अब प्रश्न बड़ा यह उठता है कि जब यह विस्मृत शहीदों को भी याद करने का दावा कर रहे हैं तो फिर आज स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ करने वाले मंगल पांडे को कैसे भूल गए? इसी प्रकार यही प्रश्न भाजपा जिला कार्यकारिणी के लिए भी उठता है। यहां का युवा मोर्चा कश्मीर फाइल्स फिल्म दिखाने का तो बड़ा प्रचार करता है लेकिन मंगल पांडे स्वतंत्रता संग्राम के जनक उनको याद नहीं करता। आप ही सोचिए, क्या ये इवेंट करते हैं या वास्तव में शहीदों को याद करते हैं? Post navigation गुरूग्राम जिला में सरस मेला शुरू, 20 अप्रैल तक सैक्टर-29 स्थित लेजरवैली ग्राउंड में लगेगा मेला श्रवण कुमार के देश में जरूरी है संस्कृति, संस्कारों का बोध: बोधराज सीकरी