उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव-2022 पर विशेष श्रृंखला-2
मुजफ्फरनगर से वापस मुजफ्फरनगर तक

अमित नेहरा

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव का पहला चरण 10 फरवरी को सम्पन्न हुआ इसके तहत 11 जिलों की 58 सीटों पर मतदान हुआ। इस चरण में मुजफ्फरनगर भी शामिल था, वही मुजफ्फरनगर जिसने 27 अगस्त 2013 में एक साम्प्रदायिक दंगे के मार्फ़त बीजेपी के लिए पूरे उत्तरप्रदेश के लिए एक बहुत बड़ी चुनावी उर्वर जमीन मुहैया कराई थी। इस दंगे ने इस क्षेत्र में गढ़ रही भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चौधरी चरणसिंह की विरासत वाली पार्टी रालोद (राष्ट्रीय लोकदल) की राजनीति खत्म सी कर दी। वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों व 2017 के विधानसभा चुनाव में रालोद को इस दंगे का खामियाजा भुगतना पड़ा। हालांकि इस दंगे से रालोद का कोई लेना-देना नहीं था लेकिन इस दंगे से वोटों के हुए ध्रुवीकरण से बीजेपी की बल्ले-बल्ले हो गई और रालोद का जनाधार खिसक गया। स्थिति ऐसी हो गई कि 2017 में रालोद का केवल एक ही विधायक जीत पाया और जीतने के बाद वह भी बीजेपी में शामिल हो गया, 2019 के लोकसभा चुनाव में भी रालोद का कोई भी प्रत्याशी जीत नहीं पाया। अब रालोद का न तो विधानसभा में और न संसद में कोई प्रतिनिधि नहीं था।

ऐसे में रालोद के लिए किसान आंदोलन अचानक संजीवनी बनकर आया, 26 जनवरी 2021 को लालकिले वाले प्रकरण के बाद 28 जनवरी की रात गाजीपुर बॉर्डर पर जब सरकार द्वारा किसान आंदोलन को कुचलने की योजना का पता चला तो चौधरी अजित सिंह अकेले ऐसे राजनेता थे जिन्होंने सरकार को इस तरह की कार्यवाही का अंजाम भुगतने की चेतावनी दी थी और रातोंरात अपने हजारों समर्थकों को गाजीपुर बॉर्डर कूच करने का आदेश जारी कर दिया। उनके इस कदम से किसान आंदोलन की उखड़ती सांसें न केवल रुक गईं बल्कि आंदोलन पहले से कहीं ज्यादा मजबूती से जम गया।

किसान आंदोलन को नई मजबूती देने के कारण पश्चिम उत्तरप्रदेश में चौधरी अजित सिंह और रालोद फिर से मजबूत हो गए। लेकिन कोविड के कारण 6 मई 2021 को चौधरी अजित सिंह का स्वर्गवास हो गया। अब पश्चिम उत्तरप्रदेश में और रालोद के नेतृत्व की जिम्मेवारी उनके पुत्र जयंत चौधरी के कंधों पर आ गई थी। अब बदला उतारने की बारी किसान नेताओं पर थी। उन्होंने ने भी निराश नहीं किया।

5 सितंबर 2021 को मुजफ्फरनगर एक नए घटनाक्रम का साक्षी बना। इस दिन यहाँ पूरे देश के हर धर्म और हर जाति के लाखों किसान एक महापंचायत के रूप में जुटे और उन्होंने मिलकर हर-हर महादेव व अल्लाह हू अकबर के नारे लगाकर 27 अगस्त 2013 के दागों को धो डाला। इसकी गूँज ने सारे उत्तरप्रदेश के साथ-साथ पूरे देश की राजनीति में एक बार फिर से नए बदलाव के संकेत दे दिए।

इस बदली हुई परिस्थितियों व किसान आंदोलन में किसानों की जबरदस्त जीत के बाद 8 जनवरी 2022 को उत्तरप्रदेश में चुनावी बिगुल बज उठा जिसके तहत 10 फरवरी से 7 मार्च तक 7 चरणों में चुनाव हो रहे हैं।

पहले चरण में 10 फरवरी 2022 को शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, हापुड़, अलीगढ़, बुलंदशहर, आगरा और मथुरा यानी 11 जिलों की 58 सीटों पर मतदान हुआ। ये 58 विधानसभा क्षेत्र कैराना, थाना भवन, शामली, बुढ़ाना, चरथावल, पुरकाजी, मुजफ्फरनगर, खतौली, मीरापुर, सीवालखास, सरधना, हस्तिनापुर, किठौर, मेरठ कैंट, मेरठ, मेरठ साउथ, छपरौली, बड़ौत, बागपत, लोनी, मुरादनगर, साहिबाबाद, गाजियाबाद, मोदीनगर, धौंलाना, हापुड़, गढ़मुक्तेश्वर, नोएडा, दादरी, जेवर, सिकंदराबाद, बुलंदशहर, स्याना, अनूपशहर, दीबाई, शिकारपुर,  खुर्जा, खैर, बरौली, अतरौली, छर्रा, कोइल, अलीगढ़, इगलास, छाता, मार्ट, गोवर्धन, मथुरा, बलदेव, एक्तमात्पुर, आगरा कैंट, आगरा दक्षिण, आगरा उत्तर, आगरा ग्रामीण, फतेहपुर सिकरी, फतेहाबाद, खेरागढ़, बाह हैं। इन 58 सीटों पर कुल 61.63 प्रतिशत मतदान हुआ जिसमें सबसे ज्‍यादा कैराना सीट पर 75.12 प्रतिशत वोटिंग हुई है।

2017 में इन 58 सीटों में से 53 पर भाजपा ने जीत हासिल की थी, सपा और बसपा के खाते में दो-दो सीटें गईं थी, जबकि एक पर रालोद प्रत्याशी जीता, जो बाद में भाजपा में शामिल हो गया।

खास बात यह थी कि 2017 में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। इसके बावजूद उसे बुरी हार का सामना करना पड़ा था। रालोद और बसपा ने अकेले चुनाव लड़ा था। रालोद ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 23 जिलों की 100 सीटों पर चुनाव लड़ा था। 

लेकिन इस बार 2022 में इन 58 सीटों पर समीकरण और हवा बिल्कुल बदली हुई है। किसान आंदोलन और लखीमपुर खीरी कांड के चलते यहाँ माहौल रालोदमय हो चुका था। इसका फायदा उठाया समाजवादी पार्टी ने। उसने फटाक से रालोद से हाथ मिला लिया। समझौते के तहत पहले चरण की 58 सीटों में से 29 सीटों पर रालोद, 28 पर सपा और एक सीट पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी चुनाव लड़ा है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग किसान आंदोलन से भावनात्मक रूप से जुड़े रहे थे। एक साल से भी अधिक समय तक चले किसान आंदोलन को लेकर क्षेत्र के लोगों में जबरदस्त नाराजगी थी। उधर भाजपा को विश्वास था कि योगी आदित्यनाथ माफिया, गुंडों और अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई, पलायन रोकने में सफलता और कट्टरपंथियों पर सख्ती का दावा उसे यहाँ फिर से बढ़त दिला देगा, ध्रुवीकरण तो 2013 में हो ही चुका था। लेकिन इस बार इनमें से कोई भी फैक्टर यहाँ नहीं चल पाया। यही वजह रही कि अपने लिए सबसे मुफीद रहे क्षेत्र को हाथ से न निकलने देने के लिए बीजेपी ने इसे बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास किये। बीजेपी के चुनावी चाणक्य माने जाने वाले और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इसके लिए दिल्ली में 250 से ज्यादा जाट नेताओं का सम्मेलन भी बुलाया। उधर जयंत चौधरी को भी अपने पाले में लाने के प्रयास किये गए लेकिन हाथरस में अपने ऊपर हुए जानलेवा हमले और जिस तरह चौधरी अजित सिंह को सितंबर 2014 में दिल्ली के सरकारी बंगले से अपमानजनक तरीके से बाहर किया गया था उसे जयंत चौधरी भूले नहीं थे। जयंत चौधरी ने बीजेपी को टका सा जवाब दे दिया।

सपा-रालोद गठबंधन ने सत्ताधारी दल के सामने सबसे कठिन चुनौती पेश की है। यह जुगलबंदी भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए सबसे मुफीद साबित हुई है। गठबंधन ने इस गन्ना और खाप बेल्ट में गन्ना किसानों किसानों की दुर्दशा, गन्ने के भुगतान में देरी, खेती के लिए बिजली की महंगी दरों व आवारा पशुओं के आतंक को मुद्दा बनाया। इसके चलते यहाँ सपा-रालोद की जबरदस्त हवा बनी और इस हवा ने सांप्रदायिकता की हवा निकाल दी।

उधर, प्रियंका गांधी की जीतोड़ मेहनत के बावजूद प्रदेश में संगठन न होने का खामियाजा कांग्रेस पार्टी को यहाँ उठाना पड़ा है। इसी तरह बसपा भी बेहद कमजोर हालत में है। पिछले 5 सालों में जनता के मुद्दों पर बसपा का कोई संघर्ष सरकार के खिलाफ नहीं दिखा। मायावती भी इस दौरान कहीं नजर नहीं आई।

साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि बीजेपी, कांग्रेस और बसपा तीनों पार्टियां इस चरण में बढ़त की स्थिति में दिखाई नहीं दे रही हैं।

फिलहाल सपा-रालोद गठबंधन कितनी सीटों पर अपना परचम फहराएगा, सभी की निगाहें इसी पर टिकी हुई हैं।
ग्राउंड पर तो लगता है कि इस बार 2017 वाला पहिया विपरीत घूमने वाला है। उस समय जो स्थिति बीजेपी की थी वह इस बार सपा-रालोद की बन सकती है। हालात यह हैं कि बीजेपी के फायर ब्रांड माने जाने वाले विधायक संगीत सोम अपनी सीट बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। वही संगीत सोम जिसने 2013 में ध्रुवीकरण में महती भूमिका निभाई थी।

पहले चरण का असल परिणाम क्या रहेगा, यह तो 10 मार्च को ही पता चलेगा लेकिन एक बात काबिलेगौर है कि पहले चरण में उठी सत्ता विरोधी लहर के दायरे में निश्चित तौर पर पूरा उत्तरप्रदेश आ गया है।

…और इसके मूल में रहे हैं किसान आंदोलन और स्वर्गीय चौधरी अजित सिंह!

चलते-चलते
पश्चिम उत्तरप्रदेश की यह भूमि दबंगों की भूमि मानी जाती है। यहाँ के निवासी अपने आपको निरंकुश मानते हैं और प्रशासन द्वारा ज्यादती किये जाने पर कानून को खुद अपने हाथों में लेने में ज्यादा विश्वास करते हैं। यही वजह रही है कि इस चरण में सबसे ज्यादा प्रत्याशियों की चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं द्वारा पिटाई की घटनाएं सोशल मीडिया पर वायरल हुईं और इनमें भी वो सबसे ज्यादा शिकार हुआ जो 2017 के विधानसभा चुनाव में रालोद की टिकट पर जीत गया था लेकिन पाला बदलकर बीजेपी में शामिल हो गया था।

…….जारी-(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक, लेखक, समीक्षक और ब्लॉगर हैं)