बिशन दास चुटानी… ……गुडगाँव

मैं नुतकानी का रहने वाला हूँ मेरा गाँव दरियाए सिन्धु तुग्यानी का शिकार हो गया था और बर्बाद होने के बाद दूसरी जगह सिन्धु नदी से उचित दूरी तथा सुरक्षित स्थान पर बसाया गया था | ऐसा ही डेरा गाजी खान के बारे में बताया जाता है कि इसी गाँव को भी दुबारा बड़ी सूझ-बुझ से बसाया गया था | इसकी गलियां सीधी और चौड़ी थी, एक सिरे पर खड़ा हो, दूसरा सिरा बखूबी नज़र आता था | इसकी गलियां एक दूसरे को 90 डिग्री के कोण पर काटती थी | इस सीधा और लम्बा चौड़ा बाज़ार था, जिसमें किरयाना, कपड़ा, हलवाई, सुनार, दर्जी तथा नसवार की दुकाने उपलब्ध थी | गाँव में डी. बी. मिडिल स्कूल, सिविल डिस्पेंसरी और गुरुद्वारा मौजूद था | गाँव के अंदरूनी हिस्से में हिन्दू बस्तियां तथा बाहरी हिस्से में मुस्लिम आबादी आबाद थी |

मेरे गाँव निकट की छोटी बस्तियों की आवश्यकता पूरी करता था जैसे कि गाँव फ़तेह खान तुमन, चूनी. काटगढ़, कुहर आदि | मेरे गाँव में वकील, डॉक्टर, हकीम, ब्राह्मण आदि सभी मौजूद थे | जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है वकील बंसीधर डोरा (जो बाद में क्लेम ऑफिसर भी रहे ), डॉ. चिमनलाल, डॉ. मोहन राम, हकीम बेलाराम, हकीम चेलाराम, गोसाईं बन्नुराम, गोसाईं रामचन्द्र, पंडित आलम चन्द आदि | मेरे पिता लाला मोतीराम चुटानी एक थोक विक्रेता थे | मूंगफली, तेल अव्वल दर्जा की डीलरशिप थी | इस तेल का चलन बहुत कम होता था क्योंकि लोग देसी घी ज्यादा प्रयोग करते थे | कुछ गरीब मुस्लिम परिवार ही इस अव्वल दर्जा तेल का प्रयोग करते थे | उस समय मैं स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ता था और मेरे उस्ताद का नाम जिन्दवडा खान था | जिसको डाकखाने का काम भी सौप रखा था | गाँव में हिन्दुओं की सारी जातियां जैसे आहूजा, गाबा, सीकरी, चुटानी, माटा, चावला, डोरा आदि मौजूद थी |

जहाँ तक मुस्लिम समुदाय का सवाल है तो उनमे आराई, बलूच, तेली, नाई, दरखान, कूटाने और फ़क़ीर आदि मौजूद थे | हिन्दू समुदाय में एक नम्बरदारी थी, जो केवल राम माटा नम्बरदार को मिली हुई थी | सभी सरकारी अहलकार नम्बरदार के घर आकर रुकते थे | मेरा गाँव रेलवे से जुड़ा हुआ नहीं था | रेल सफर के लिए हमें लैया जाना पड़ता था | मेरा गाँव और लैया आमने-सामने थे | बीच में दरिया सिंध था, जिसका पाट कई किलोमीटर में फैला हुआ था जिसमें खुश्क और दरियाई भाग दोनों ही शामिल थे | दरियाई भाग किश्ती द्वारा आबूर किया जाता था और खुश्क भाग ऊंट की सवारी द्वारा | किश्ती इतनी बड़ी होती थी कि जिसमें कमरे, सहन और ऊँटों के रहने –बैठने का स्थान भी मौजूद होता था | इस इलाके का ज्यादातर व्यापार बाजरिया दरिया सिंध की मार्फ़त होता था |

यह समय वहुत ही अच्छा था, हिन्दू और मुसलमान मिलकर रहते थे | आपसी भाईचारा था | कई हिन्दू और मुसलमान पगड़ी बदल भाई बन जाते थे | खूब भाईचारा निभाया जाता था | खुशी, गमी और विवाह – शादी में आना – जाना था | शहरों में तो हिन्दू और मुसलमानों में व्यापार में भी सांझे होते थे | मेरे पिताजी की भी एक मुसलमान भाई कलंदर जट से व्यापारिक सांझेदारी थी | दोनों मिलकर सरसों के खेत का सौदा करते थे | मेरे पिताजी रकम लगाते और कलंदर जट खेत की रखवाली करता | फसल पक जाने पर सरसों बोरियों में भरकर सुरक्षित स्थान पर रख देते थे | बिकने के बाद लाभ के दोनों बराबर के हिस्सेदार होते | मुझे वह दिन बहुत अच्छी तरह याद है जब 14 अगस्त 1947 को एक नया देश पाकिस्तान नमूदार हुआ तो मुसलमानों ने बहुत बड़ा जुलूस निकाला जिसमें हिन्दू भी शामिल थे | मेरा घर गाँव के चौक पर स्थित था | जुलूस जाते हुए इस चौक पर रुका और वहां पर लड्डू बांटे गये | मैं स्वयं भी उस भीड़ से लड्डू लेकर आया था |

मेरी बस्ती में रेडिओ किसी घर पर नहीं था | दो दिन बासी अखबार पढ़ना पड़ता था जो कि डाक द्वारा बस्ती के कुछ गिने-चुने लोगों की पास आता था | अख़बारों में बंटवारे की बातें आने लगी | क्योंकि हिंदुस्तान दो भागों में बंट गया था | अख़बारों में हिन्दुओं के पलायन, डाकाजनी, लूटपाट की खबरें आने लगी | इसका असर हमारे इलाके पर भी होने लगा | दोनों समुदाय एक-दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे |
हमारी बस्ती के सुनार बिरादरी के कुछ परिवारों ने वोहवा जाने की तैयारी की | मेरे परिवार ने भी उनके साथ मिलकर घर छोड़ने का मंसूबा बनाया | मेरे पिताजी ने अपने दोस्त कलंदर जट से कचावे सहित ऊँटों को लाने को कहा कि हम वोहवा का सफर कर सके | निश्चित दिन वह ऊंट न लाकर स्वयं आया और लोगों को कहा कि हम आज सफर ना करे क्योंकि बाहर बदमाश आये हुए है और रास्ता सुरक्षित नहीं है | मेरे पिताजी ने तुरंत यह बात तैयारशुद बिरादरी को कही पर वह नहीं माने और कहा कि दिन में ऐसी कौन-सी मरह है वह रवाना हो गये | दिन ढलते-ढलते यह सन्देश मिला कि उन पर कातिलाना हमला हुआ है और लगभग एक दर्जन लोग हलाक हो गये और बहुत से जख्मी हो गये है और माल-असबाब भी लूट लिया गया है | बस्ती में गम की लहर दौड़ गई और सभी लोग हक्के-बक्के और गहरी सोच में डूब गये | घर छोड़ना अब यकीनी हो गया | अजीब मंजर था जो लोग साथ हँसते, खेलते, मदरसे में पढ़े, अब जानी दुश्मन हो गये |

आने वाली रात दर्दनाक और भयानक साबित हुई | रात को हमारी बस्ती पर भी हमला हुआ अल्लाह हू अकबर, नारा ऐ तकबीर और पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे जोर-जोर से सुनाई देने लगे | गर्मी का मौसम था लोग छतों पर सोते और सीढ़ी जो की लकड़ी की बनी होती थी उसे सुरक्षा कारणों से छतों के ऊपर खिंच लेते थे | मकानों की छतें आपस में मिली होती थी | हमारे सभी पड़ोसी छत पर खड़े हो गये और सुरक्षित जगह जाने की सोचने लगे | हमारी बस्ती में हर चौक पर वजीरों को रोकने के लिए मोर्चे बने हुए थे | बस्ती के बीच में एक बहुत ऊँची बुर्ज थी | जिस पर सिविल गार्ड या बलोच लेवी के सिपाही मौजूद थे | गलियों की बजाये छतों से होकर जाने के योजना बनाई पर एक जगह सभी बुजुर्गों को कपड़ों से बांधकर उतरा गया | इसी प्रकार सभी चावला परिवार के घर पहुँचने में सफल हो गये | वहाँ पहले से ही बहुत से परिवार पहुँच गये थे | उन दिनों डाका और लूटपाट का सन्देश भेजने का तरीका भी ख़ास था | उस शुआ की दिशा से यह अंदाजा हो जाता है कि डाकाजनी कहाँ हो रही है | रात को चावला परिवार के साथ गुजारी और पुलिस की आमद पर हम बाहर निकले और जानकारी मिली की आधा दर्जन हिन्दुओं का क़त्ल हो गये और बहुत से जख्मी हो गये | जख्मियों की मरहम पट्टी डॉ. चिमनलाल ने की | कुछ जख्मी भी दम तोड़ गये | थानाध्यक्ष वोहवा ने ऐलान किया कि सभी हिन्दू परिवार वहोवा पहुंचे और वहाँ पर उनकी सुरक्षा की गारंटी लेता हूँ | बस्ती छोड़ने का दिन निश्चित हो गया और हम पुलिस की निगरानी में वहोवा पहुँच गये | भाड़े के ऊँटों का इन्तजाम पुलिस ने किया |

वहोवा थाने से संलग्न सभी बस्तियों के हिन्दू परिवार वहोवा पहुँच गये और वहाँ बहुत बड़ी भीड़ हो गई | थानाध्यक्ष घोड़े पर सवार होकर नगर में आये | सभी मुसलमानों को शाम होते ही निकाल थे और दरवाजे बंद हो जाते | मैं यहाँ पर श्री ढालू राम सडाना और आत्म प्रकाश सडाना के पिता श्री भवानी दास जिक्र करना चाहता हूँ | वह इस इलाके का बड़ा जमींदार और चौधरी माना जाता था वह रात को एस. एच. ओ. के साथ घोड़ों पर सवार होकर चारदीवारी के बाहर चक्कर लगाते और मोर्चे पर बैठे सिपाहियों को ख़बरदार करते |

इलाके की कुछ और हिन्दू बस्तियों में मुस्लिम, हिन्दू तनाव हुआ | परन्तु हमारा इलाका लगभग शांत रहा और कोई बड़ी वारदात नहीं हुई | बस्ती मम्मुरी में बड़ा तनाव हुआ | हिन्दू समाज खासकर सुनार बिरादरी ने मुसलमानों का मुकाबला किया और मोर्चा संभाले रखा और जब उनका असला खत्म हो गया तो उन्होंने अपनी जवान बच्चियों के सिर तलवारों से काट दिए और शेष ने भाग कर अपनी जान बचाई |
वोहवा में कुछ दिन ठहरने के बाद हमें ट्रकों में भर कर डेरा गाजी खान लाया गया | वहाँ हमारे सामान की तलाशी ली गई कि कहीं कोई हथियार तो नहीं है | हर परिवार को केवल एक ट्रंक, एक बिस्तर और बर्तनों की छोटी बोरी ले जाने की इजाजत थी | हम कुछ दिन डेरा गाजी खान में मुकीम तथा सुरक्षित रहे | इसके बाद हमें हिन्दू मिलिट्री के ट्रकों में लादकर मुजफ्फरगढ़ ट्रान्सफर किया गया | हमारा कैंप रेलवे स्टेशन के सामने एक मैदान में था | यहाँ पर हिन्दू सिपाही हमारी सुरक्षा के लिए तैनात थे | इस दौरान हमारे कैंप पर भी एक रात हमला हुआ | मिलिट्री के जवानों ने मोर्चा संभाला | हमले में दो हिन्दू मारे गये और छह हमलावर भी हमारे जवानों की गोली का निशाना बने |

मुजफ्फरगढ़ से हमें रेलगाड़ी ने बिठाकर भारत के लिए रवाना किया गया | यह बहुत दुखदाई, दर्दनाक और हृदयघात का समय था | हमें यकीन हो गया हम सब कुछ छोड़कर नए सिरे से भारत में बसने जा रहे है | अपना कदीमी घर छोड़कर कितना कठिन होता है | रेलगाड़ी में भी हम तो खौफ़जदा थे | हर तरफ भरोसे और विश्वास का अभाव था | जब हमारी गाड़ी खानेवाल स्टेशन पर पहुंची तो सामने प्लेटफार्म पर नल से बेतहाशा पानी बह रहा था कुछ लोग पानी लेने के लिए ट्रेन से उतरना चाहते थे पर सिपाहियों ने उन्हें रोक दिया कहीं पानी में जहर न मिला हुआ हो | जैसे तैसे करके हमारी गाड़ी लाहौर पहुंची | कई घंटों तक हमारी ट्रेन को लाइन क्लियर नहीं दिया गया | प्लेटफार्म पर मुसलमानों की भीड़ इकठ्ठा होने लगी हमें अपने जीवन का अंत दिखाई देने लगा | पर हमारी सुरक्षा के लिए तैनात मिलिट्री के इंचार्ज ने सुझबुझ से काम लेते हुए ए. एस. एम की गर्दन पर बन्दूक की नोक पर लाइन क्लियर करवाई | अगला स्टेशन अटारी था जो कि भारत का हिस्सा था | अटारी स्टेशन पर गाड़ी काफी देर तक रुकी रही और वहां के लोगों ने खासकर सिख भाईयों ने हमारा बहुत बड़ा स्वागत किया और और हमें सभी सुविधाएँ जैसे डॉक्टर, दूध, बिस्तर, कम्बल उपलब्ध करवाई | अब हम भारत भूमि पर थे और सुकून से थे |

हमारी गाड़ी 18 नवम्बर 1947 को हिसार पहुंची और इसके बाद हम गुड़गाँव आये और तब से यहाँ पर ही मुकीम है | यहाँ के निवासी यह समझते थे कि हम लूट-पिट कर आये है और हम सब भिखारी हो जायेंगे परन्तु हमने कठिन परिश्रम किया और यहाँ के मूल निवासी, हमारे परिश्रम को देख कर दंग रह गये कि हमने किस तरीके से अपने नए घर बसाए और मालामाल हो गये | हमारे समाज का एक भी व्यक्ति भीख मांगता हुआ नहीं दिखाई दिया |

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