दशहरा पर्व………अधर्म पर धर्म की जीत, अन्याय पर न्याय की विजय,

बुराई पर अच्छे की जय जय कार,यही है दशहरे का त्योंहार। 

अशोक कुमार कौशिक

दशहरा (विजयदशमी या आयुध-पूजा) हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।

महाशत्रु कौन और जीवन में विजय कैसे पायें ?

विजयदशमी को रावण को मारकर श्रीराम विजेता हुए थे। महिषासुर आदि राक्षसों को मारकर माता जी ने धरती का बोझ हलका किया था। विजयदशमी से हमें यह संदेशा मिलता है कि भौतिकवाद चले कितना भी बढ़ा-चढ़ा हो, अधार्मिक अथवा बहिर्मुख आदमी के पास कितनी भी सत्ताएँ हों, कितना भी बल हो फिर भी अंतर्मुख व्यक्ति डरे नहीं, उसकी विजय जरूर होगी।

10 आदमियों जितने मस्तक और भुजाएँ थीं ऐसे रावण के समस्त सैन्य बल को भी छोटे-छोटे बंदर-भालुओं ने ठिकाने लगा दिया।
यह दशहरा तुम्हें संदेश देता है कि जो प्रसन्नचित्त है, पुरुषार्थी है उसे ही विजय मिलती है। जो उत्साहित है, कार्यरत है, जो हजार विघ्नों पर भी चिंतित नहीं होता, हजार दुश्मनों से भी भयभीत नहीं होता। वह महादुश्मन जन्म-मरण के चक्कर को भी तोड़कर फेंक देता है। छोटे-छोटे दुश्मन को मारना कोई बड़ी बात नहीं है, अपने और ईश्वर के बीच में जो अविद्या का पर्दा है, उसको जब तक नहीं हटाया तब तक दुनिया के सब शत्रुओं को हटा दो, कोई फर्क नहीं पड़ता। दुनिया के शत्रु ज्यों-के-त्यों मौजूद रहें, उनकी चिंता मत करो। महाशत्रु जो अज्ञान है उसको तुम हटा दो, फिर पता चलेगा कि शत्रुओं के रूप में भी उस परमात्मा की आभा है।

विजयादशमी के दिन रावण को परास्त कर श्रीरामचन्द्र जी विजयी हुए। रावण की नाईं वासनाओं के वेग में हम खिंच न जायें इस याद में रावण को हर बारह महीने में दे दीयासलाई । रावण के पुतले को तो दीयासलाई देते हैं लेकिन हमारे भीतर भी राम और रावण दोनों बैठे हैं। सद्विचार है, शांति की माँग है – यह राम का स्वभाव और ‘मेरा तो मेरे बाप का, इसका भी मेरा ही है’ – ये रावण की वृत्तियाँ भी हैं।

आप किसको महत्त्व देते हैं ?

आप देख सकते हो कि भीतर राम और रावण का भाव कैसा छुपा है। रामायण या महाभारत हमारे भीतर कैसा छुपा है। कोई भोजन की थाली परोस दे जिसमें कुछ भोजन सात्त्विक व स्वास्थ्यप्रद है और कुछ ऐसी चीज है जो चरपरी है, स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है लेकिन मुँह में पानी लाये ऐसी है तो बस, राम-रावण युद्ध चालू हो जाता है। राममयी वृत्ति कहती है कि ‘नहीं, यह सात्त्विक खायें, इतना ही खायें’ लेकिन रावण वृत्ति, आसुरी वृत्ति कहेगी, ‘क्या है ! इतना थोड़ा सा तो खा लो।’

‘खायें-न खायें, खायें न खायें…’ के द्वन्द्व में अगर रसमयी वृत्ति का समर्थन करते हो तो संयम से उतना ही खाकर उठोगे जितना खाना चाहिए। अगर रावण-वृत्ति का समर्थन करते हो तो उतना सारा खा लोगे जो नहीं खाना चाहिए। आसुरी, राजसी वृत्ति का समर्थन करते हो कि सात्त्विक वृत्ति का करते हो ? राम रस का महत्त्व जानते हो कि कामवासना को महत्त्व देते हो ?

जो दसों इन्द्रियों से सांसारिक विषयों में रमण करते हुए उनसे मजा लेने के पीछे पड़ता है वह रावण की नाईं जीवन-संग्राम में हार जाता है और  जो इन्हें सुनियंत्रित करके अपने अंतरात्मा में आराम पा लेता है तथा दूसरों को भी आत्मा के सुख की तरफ ले जाता है। वह राम की नाईं जीवन-संग्राम में विजय पाता है और अमर पद को भी पा लेता है।

विजयादशमी – विजय का पर्व

राम और रावण का युद्ध अश्विन शुक्ल पक्ष की तृतीया को प्रारंभ हुआ था और दशमी को यह युद्ध समाप्त हुआ था।

रावण समझ चुका था कि राक्षसों का नाश हो गया है, मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ और मायावी युद्ध करूं। इधर इंद्र ने भगवान श्री राम के लिए तुरंत अपना रथ भेज दिया। (उसका सारथी) मातलि हर्ष के साथ उसे ले आया। उस दिव्य अनुपम और तेज के पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर चढ़े और रावण से युद्ध के लिए तैयार हुए।

रावण ने अपनी माया से भ्रम जाल फैलाने का प्रयत्न किया। श्री रामजी ने हँसकर धनुष पर बाण चढ़ाकर, पल भर में सारी माया हर ली। फिर श्री रामजी सबकी ओर देखकर गंभीर वचन बोले- हे वीरों! तुम सब बहुत ही थक गए हो, इसलिए अब (मेरा और रावण का) युद्ध देखो।
ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौड़ा। रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा। अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा तथा आकाश और पृथ्वी में, सब जगह छा गए।

श्री रघुवीर ने अग्निबाण छोड़ा, (जिससे) रावण के सब बाण क्षणभर में भस्म हो गए। फिर उसने खिसियाकर तीक्ष्ण शक्ति छोड़ी, (किन्तु) श्री रामचंद्रजी ने उसको बाण के साथ वापस भेज दिया। वह करोड़ों चक्र और त्रिशूल चलाता है, परन्तु प्रभु उन्हें बिना ही परिश्रम काटकर हटा देते हैं।

रावण ने दस त्रिशूल चलाए और श्री रामजी के चारों घोड़ों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। घोड़ों को उठाकर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष खींचकर बाण छोड़े।श्री रामचंद्रजी ने उसके दसों सिरों में दस-दस बाण मारे, जो आर-पार हो गए और सिरों से रक्त के पनाले बह चले।
रुधिर बहते हुए ही बलवान्‌ रावण दौड़ा। प्रभु ने फिर धनुष पर बाण संधान किया। श्री रघुवीर ने तीस बाण मारे और बीसों भुजाओं समेत दसों सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिए। सिर और हाथ काटते ही फिर नए हो गए। श्री रामजी ने फिर भुजाओं और सिरों को काट गिराया। इस तरह प्रभु ने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे, परन्तु काटते ही वे तुरंत फिर नए हो गए।

प्रभु बार-बार उसकी भुजा और सिरों को काट रहे हैं, क्योंकि कोसलपति श्री रामजी बड़े कौतुकी हैं। आकाश में सिर और बाहु ऐसे छा गए हैं, मानो असंख्य केतु और राहु हों।

देवलोक में सभी देवता यह स्थिति देखकर व्याकुल हो उठे और देवराज इंद्र ने ब्रह्मा के पास जाकर प्रभु श्री राम के वाणों के निष्फल होने का कारण पूछा।

ब्रम्हा जी ने कहा- हे देवेंद्र ! सुनो, रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा।
देवराज इंद्र पूछते हैं कि फिर रामजी उसके हृदय में बाण क्यों नही मारते हैं।

इंद्र- प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि रावण के  हृदय में जानकीजी बसती हैं, और जानकी के ह्रदय में श्री राम बसते हैं। यही सोचकर इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और अगर बाण मार दिया तो ब्रह्माण्ड ही नष्ट हो जायेगा।
यह वचन सुनकर इंद्र ने इसका उपाय पूछा ।

ब्रम्हा जी ने इंद्र को समझाते हुए कहा हे देवेंद्र संदेह का त्याग कर दो। सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से जानकी जी का ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अंतर्यामी) श्री रामजी रावण के हृदय में बाण मारेंगे। 

श्री रामजी और रावण के युद्ध का चरित्र यदि सैकड़ों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पों तक गाते रहें, तो भी उसका पार नहीं पा सकते।
काटते ही सिरों का समूह बढ़ जाता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्री रामचंद्रजी ने विभीषण की ओर देखा। विभीषण ने कहा प्रभु! इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है।

विभीषण की बात सुनते ही श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए। कानों तक धनुष को खींचकर श्री रघुनाथजी ने इकतीस बाण छोड़े। 

खैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥

भावार्थ:- कानों तक धनुष को खींचकर श्री रघुनाथजी ने इकतीस बाण छोड़े। वे श्री रामचंद्रजी के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों।

सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा॥

भावार्थ:- एक बाण ने नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर नाचने लगा।

धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा॥गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥

भावार्थ:- धड़ प्रचण्ड वेग से दौड़ता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिए। मरते समय रावण बड़े घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!॥

डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर॥धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥

भावार्थ:- रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा।

मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥प्रबिसे सब निषंग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई

भावार्थ:- रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर श्री रामजी थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए।

तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन॥जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा॥

भावार्थ:-रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए। ब्रह्माण्डभर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदण्डों वाले श्री रघुवीर की जय हो।

बरषहिं सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा॥

भावार्थ:- देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो!।

जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥

सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥

भावार्थ:- हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरने वाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! 

आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में श्री रामचंद्रजी के अंगों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की।

सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥

भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥

भावार्थ:- सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशो‍भित हो रहे हैं। श्री रामजी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यंत सुंदर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपने महान्‌ सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों।

कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृंद।भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकुंद॥

भावार्थ:- प्रभु श्री रामचंद्रजी ने कृपा दृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया। वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुन्द की जय हो, ऐसा पुकारने लगे।

भगवान श्री राम ने रावण का वध कर दिया। असत्य पर आज सत्य की जीत हुई है। बुराई पर अच्छे की जीत हुई है। अधर्म पर धर्म की जीत हुई है। 

भगवान श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं –
” द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।”अर्थात् इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है – एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। हम दैवी – शक्ति के उपासक हैं। दैवी – शक्ति की आसुरी शक्ति पर विजय को हम हिंदू हर्ष – उल्लास के साथ आज भी मनाते आ रहे हैं। दैवी – शक्ति के आसुरी – शक्ति पर विजय का प्रतीक है विजयादशमी।

आश्विन शुक्ल दशमी को सायं काल में तारा उदय होने के समय  “विजय ” नामक काल होता है। वह सभी कार्यों को सिद्ध करने वाला होता है। प्रभु श्री राम ने इसी  “विजय ” काल में रावण पर विजय पाई थी , अतः यह दिन विजयादशमी के रूप में मनाया जाता है।

हिंदू परंपरा में आश्विन शुक्ल दशमी अक्षय स्फूर्ति , शक्ति – उपासना एवं विजय – प्राप्ति का दिवस है। किसी भी शुभ एवं सांस्कृतिक कार्य को प्रारंभ करने के लिए यह तिथि सर्वोत्तम माना जाता है।

विजयादशमी को निम्नलिखित कार्य हुए थे : —
1. सत्ययुग में भगवती दुर्गा के रूप में दैवी शक्ति ने महिषासुर का वध किया था । दुर्गम नामक असुर का वध करने के कारण मां भगवती ” दुर्गा ” कहलाई।
2. त्रेता युग में प्रभु श्री राम ने वानरों (वनवासियों) का सहयोग लेकर अत्याचारी रावण की आसुरी शक्ति का विनाश विजयादशमी के दिन किया था।
3. द्वापर युग में 12 वर्ष के वनवास तथा 1 वर्ष के अज्ञातवास के पश्चात् पांडवों ने अपने अस्त्र – शस्त्रों का पूजन इसी दिन किया था । अतः इस तिथि को आज भी शस्त्र – पूजन अपने समाज में मनाया जाता है।
4. कलियुग के अंतर्गत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हिंदुत्व का स्वाभिमान लेकर हिंदू – पद – पादशाही (हिंदवी स्वराज) की स्थापना करने वाली छत्रपति शिवाजी ने ” सीमोल्लंघन ” की परंपरा का प्रारंभ इसी दिन किया था।

हिंदू समाज की अवनति के कई कारणों में से एक प्रमुख कारण रहा है – हिंदुओं में विजिगीषु वृत्ति का अभाव अर्थात जिस दिन से हम आगे बढ़ना भूल गए एवं संकुचित विचारों में कैद हो गए , तभी से हम पर बाह्य – आक्रमण प्रारंभ हुआ।

इस विजयादशमी पर्व पर हम एक कदम विजय की ओर बढ़ाएं – तमसो मा ज्योतिर्गमय। कविवर जयशंकर प्रसाद के शब्दों में -विजय केवल लोहे की नहीं , धर्म की रही धरा पर धूम।भिक्षु होकर रहते सम्राट , दया दिखलाते घर-घर घूम।

You May Have Missed

error: Content is protected !!