उमेश जोशी

दाम बढ़ोतरी इस समय देश की बहुत बड़ी समस्या है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे मुद्रास्फीति कहते हैं। आवश्य जिंसों, पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, खाद्य तेलों के दामों में पिछले कुछ दिनों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है जिससे अर्थव्यवस्था की सेहत लगातार बिगड़ रही है। इस समस्या पर गंभीरता से विचार कर उसका समाधान खोजना जरूरी है ताकि जनसाधारण का जीवन प्रभावित ना हो।  

लगातार देखा जा रहा है कि थोक बाजारों में 10 प्रतिशत से अधिक और खुदरा बाजारों में छह प्रतिशत से अधिक दाम बढ़ोतरी हो रही है। चिंता की बात यह है कि दैनिक उपयोग की जरूरी वस्तुओं जैसे खाना पकाने के तेल, एलपीजी, दालों के दाम रूक नहीं रहे हैं। यहां तक ​​कि ट्रेन या बस भाड़े में भी लगातार वृद्धि हो रही है। दैनिक उपयोग की जरूरी चीजों के दाम बढ़ने से गांवों और शहरों दोनों में एक आम परिवार पर भारी दबाव बन रहा है और हर पल बढ़ते दबाव के कारण वह असुरक्षित महसूस कर रहा है।

  यह दबाव तब और भी गहरा होता है जब  नौकरियां कम हो रही हैं। जिन लोगों की नौकरियाँ बची हुई हैं उनके वेतन में भारी कटौती की गई है; उन्हें मजबूरन बहुत कम वेतन पर काम करना पड़ रहा है। कंपनियाँ वेतन कटौती कर अपनी उत्पादन लागत में कटौती का प्रयास कर रही हैं। जो कंपनियाँ यह दावा कर रही हैं कि उनकी बैलेंस शीट में मुनाफा आ गया है वे इस तथ्य को छुपा रही हैं कि यह मुनाफा मजदूरों की मजबूरी भुना कर कमाया गया है।   

थोक मूल्य सूचकांक के पैमाने पर मुद्रास्फीति जून 2021 में 12.07 प्रतिशत के स्तर पर रही, जबकि चालू वित्त वर्ष के पहले तीन महीनों (अप्रैल से जून) का औसत आधिकारिक आंकड़ा 11.91 प्रतिशत दिया गया है। खुदरा स्तर पर, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) जून में 6.26 प्रतिशत था जो थोक मूल्य सूचकांक की तुलना में कम बोझिल लग सकता है। लेकिन, थोक मंडियों की कीमतें एक अंतराल के बाद खुदरा स्तर पर चली जाती हैं यानी जो आंकड़ा आज थोक मंडियों में है वो कुछ समय बाद खुदरा मंडियों में आ जाएगा। लिहाजा, उपभोक्ता स्तर पर समस्याएं आसानी से दूर नहीं हो रही हैं।     

जून 2021 में पिछले साल जून के मुकाबले एलपीजी की कीमतों में 31.44 प्रतिशत वृद्धि थी; पेट्रोल और डीजल के दाम करीब 60 प्रतिशत बढ़ गए थे। वनस्पति तेलों, घी के दामों में वृद्धि 44 प्रतिशत से अधिक थी और दालों में वृद्धि 11.49 प्रतिशत रिकॉर्ड की गई थी। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में स्थिति कुछ अलग है, लेकिन अंतर्निहित समस्या वही है। महँगाई से कोई वस्तु अछूती नहीं है।  

पेट्रोल की कीमत 100 रुपये प्रति लीटर के पार हो गई हैं और डीजल की कीमतें 100 के आंकड़े की ओर बढ़ रही हैं।  राजनीतिक दलों ने सांकेतिक विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है। इस बीच, गरीब, आम आदमी और औरतों की पीड़ा बढ़ रही है। अमीर और गरीब, शहरी और ग्रामीण के बीच वर्ग विभाजन तब साफ दिखाई देता है जब लोग अपनी पीड़ा व्यक्त करते हैं। निर्भर करता है कि आप किससे बात करते हैं!

दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी के कारण कोविड-19 से संबंधित आर्थिक तनाव बढ़ रहा है। यह महामारी से कहीं अधिक नुकसान कर रहा है – यह ग्रामीण मजदूर या शहरों में काम करने वाले उनके भाई आपको बताएंगे। जो लोग सफेदपोश, शहरों में सुरक्षित नौकरियाँ कर रहे हैं, वे आपको एक अलग विचार देंगे कि कोरोना वायरस की नई लहर से देश को   हर हाल में बचाने की आवश्यकता है, चाहे जो भी लागत हो – टीकाकरण करना पड़े, प्रतिबंध लगाना पड़े या लॉकडाउन करना पड़े।

महामारी की दूसरी लहर के समाप्त होने के साथ निर्माण सहित आर्थिक गतिविधियों में उठान दिख रहा है। गाँवों में खरीफ की बुवाई शुरू हो गई है, श्रमिकों के लिए काम के अवसर फिर से खुल रहे हैं। निःसंदेह यह राहत का संकेत है लेकिन महंगाई के कारण राहत बहुत कम मिल रही है।  

इन सबके बीच किसान एक अजीबोगरीब और मुश्किल स्थिति में हैं। महंगाई के कारण उपभोक्ता के रूप में तो पीड़ित है ही, उत्पादक के रूप में भी परेशान है क्योंकि उसे डीजल की कीमतों से लेकर उर्वरकों, कीटनाशकों और मजदूरी की बढ़ती कीमतों का दबाव सहना पड़ रहा है। ग्रामीण मजदूरी, जो काफी कम हो गई थी, अब बढ़ने लगी है, क्योंकि महंगाई की मार मजदूर भी झेल रहे हैं।

महंगाई यानी मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाला एक गंभीर मुद्दा है, खासकर दूरदराज के इलाकों में, जहां सरसों का तेल आसमान छूती कीमतों के कारण  विलासिता की वस्तु बन गया है जिसका आनंद सिर्फ अमीर लोग ही उठा सकते हैं। कोई यह कह कर इस समस्या पर पर्दा डालने की कोशिश कर सकता है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें बढ़ रही हैं और सप्लाई पर्याप्त नहीं है। लेकिन इस तरह की दलील समस्या का हल नहीं है। ये कारण तो लंबे समय तक बने रहेंगे। इसका समाधान कहां है? हमें समाधान तो खोजना ही होगा। 

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