महंगाई देशभक्ति का ही दूसरा नाम बना दी गई।
चूल्हे के धुएं से महिलाओं को मुक्ति का वादा करके महंगी गैस की घुटन क्यों दी ?

अशोक कुमार कौशिक 

कुछ साल पहले तक यानी 2014 से पहले तक हम भारतीयों के लिए महंगाई डायन की तरह होती थी, जो हमें डराती थी। कभी राक्षसी सुरसा से महंगाई की तुलना की जाती थी, जिसका आकार हर दिन बढ़ जाता है। लेकिन अब महंगाई देशभक्ति का ही दूसरा नाम बना दी गई है। यानी सरकार आपको रोज़गार न दे, तो उसकी मजबूरी समझ कर अपनी देशभक्ति साबित कीजिए। सरकार आपसे अधिक टैक्स वसूले तो भी विकास के नाम पर अपनी जेब हंसते-हंसते कटवा लीजिए। चाहे जो हो, लेकिन महंगाई के नाम पर उफ़्फ़ न करिए। 

2020 और फिर 2021 के लॉकडाउन में लगभग सारे धंधे चौपट हो गए, लेकिन दवा, पेट्रोलियम और किराना-फल-सब्जी वालों का बिज़नेस किसी भी दुष्प्रभाव से अछूता रहा। रुपये की सबसे ज्यादा लिक्विडिटी अभी भी इन्ही बिज़नेसेस में है।

ऐसे हरे भरे बिज़नेस और बाजार में इनकी निरंतर सप्लाई के  पीछे एसेंशियल कमोडिटीज एक्ट है जो कैसी भी स्थिति में आवश्यक वस्तुओं या उत्पादों की आपूर्ति सुनिश्चित करने तथा उन्हें जमाखोरी एवं कालाबाज़ारी से रोकने के लिये वर्ष 1955 में बनाया गया था। इसमें सिर्फ दाल, चावल, आलू, प्याज, ही नहीं, दवाएं, रासायनिक खाद, दलहन और खाद्य तेल, पेट्रोलियम पदार्थ आदि भी शामिल हैं।

दवा की कीमत पर सरकार का ज्यादा नियंत्रण नही। कई सारी फार्मा कंपनियां दवाइयां बनातीं हैं, इसके अलावा जेनेरिक दवाओं का भी विकल्प है सो छोटी मोटी  कालाबाज़ारियों को छोड़ दें तो दवाओं के दाम लगभग स्थिर हैं।

अगर कृषि उत्पादों की बात करें और छोटी-मोटी कालाबाज़ारियों को दरकिनार कर दें तो दाल-चावल, आलू, प्याज, हरी साग-सब्जी आदि की कीमतें भी कम से कम लॉकडाउन की वजह से अस्थिर नही हुईं। ये वह कमोडिटी है, जिसे कोई भी ज्यादा दिन तक स्टोर करके नही रख सकता। जमाखोरी के खिलाफ़ कड़े कानून हैं।इसके अलावा इसके उत्पादन,वितरण, क्रय-विक्रय में एक विकेन्द्रीकृत सिस्टम काम करता है।उदाहरण के लिए अगर दिल्ली की किसी मंडी का कोई थोक व्यापारी अरहर की दाल की कमी बताकर इसे 200 रुपये किलो बेचता है और यही दाल कानपुर की मंडी में 100 रुपये किलो बिक रही है तो दिल्ली वाले व्यापारी का खेल ज्यादा दिन नही चल पाता। यही कारण है कि इन वस्तुओं का (कृत्रिम)अभाव नही दिखाया जा सकता और दामों में मामूली बदलाव होने पर भी अलार्म बज जाता है। सरकार इसे रेगुलेट करती है और इस तरह से माँग और आपूर्ति में ट्रांसपेरेंसी बनी रहती है।

किसान बिल के तीसरे ऑर्डिनेन्स में कृषि उत्पाद जैसे चावल-दाल, अन्य दलहन, तेलहन, साग-सब्जी आदि खाद्य पदार्थों को आवश्यक वस्तु (एसेंशियल कमोडिटी) अधिनियम से निकाल दिया गया है।यानि अब इन वस्तुओं की जमाखोरी जुर्म नही है। जिस किसी के पास भी अकूत पैसा है वह इन्हें खरीद कर जमा कर सकता है, इनका कृत्रिम अभाव बना सकता है और फिर इसकी सप्लाई करके मनमाना दाम वसूल सकता है। पंचायत, ब्लॉक, जिला और राज्य स्तर पर जो मंडियाँ हैं वह स्वतः खत्म हो जाएँगी क्योंकि कंपीट नही कर पाएंगी। विकेंद्रीकरण वाला सिस्टम ध्वस्त हो जाएगा और एकाधिकार स्थापित हो जाएगा। इस नए कानून से इस कमोडिटी के लिए सरकार की जवाबदेही खत्म हो जाती है और अकाल, भूखमरी जैसे परिदृश्य के अलावा सरकार इस मामले में कोई हस्तक्षेप नही कर सकती। कृषि बिल आने से पहले ही देश मे अलग-अलग राज्यों में अडानी लाखों मीट्रिक भंडारण क्षमता वाले स्टील सायलो प्लांट बनवा चुके हैं। मतलब सब कुछ पहले से तैयार है।
आदमी हर जगह कंजूसी कर सकता है, लेकिन खाने से कैसे करे। आप एक दो दिन पेट काट सकते हैं, लेकिन सदा भूखे जीवित नही रह सकते। आप महँगे फल,प्याज,मीट-मछली आदि खाना छोड़ सकते हैं, लेकिन आटे-दाल और मोटे अनाज के बिना एक दिन भी रहना संभव नही। आज अगर गेहूँ 200 रुपये किलो हो जाये और चावल 400 रुपये किलो, फिर भी आप खरीदेंगे और खाएंगे। ये बढ़ी हुई कीमतें अभी एक प्रलाप लग सकतीं हैं जैसे 2013 में गैस सिलिंडर की कीमत 1000 रुपये सोच पाना भी एक प्रलाप था।

फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने नए किसान बिल पर रोक लगा रखी है, इसलिए आपकी थाली में छेद नही हुआ है। अगर ये बिल लागू हो गया तो ठेले या मोहल्ले के किराने के दुकानों का चस्का छूट जाएगा। एक-एक भिंडी और टमाटर छाँटने की सहूलियत छिन जाएगी। बड़े-बड़े मॉल्स में शीशे के आलीशान पर्दे के पीछे प्राइस टैग लगे हुए खाद्य पदार्थ सजे-सजाए मिलेंगे,जिन्हें आप देख तो सकेंगे पर छू तक नही पाएंगे। कीमतें मनमानी होंगीं। अभी इसी कांसेप्ट के मॉल्स में प्लास्टिक में करीने से लिपटा एक मक्का 45-50 रुपये का बिकता है। आप नही लेते क्योंकि यही मक्का मुहल्ले में घूमने वाले ठेलों-रेहड़ियों पर आपको 15-20 रुपये किलो मिल जाता है। लेकिन अगर यह ऑप्शन उपलब्ध ना हो तब की सोच कर देखें। नया कानून यह ऑप्शन खत्म कर देने वाला है।

पेट्रोलियम सेक्टर पर केंद्र सरकार का सीधा नियंत्रण है। 30-35 रुपये प्रति लीटर वाला पेट्रोल आपको 100-110 रुपये लीटर मिल रहा है। इसका एक बड़ा हिस्सा(एक तिहाई-पेट्रोल के मूल कीमत जितना) केंद्र सरकार आपकी जेब से लूट रही है। चूँकि इस कमोडिटी पर केंद्र सरकार का एकाधिकार है तो आप चूँ करने से ज्यादा कुछ नही कर सकते। या ज्यादा से ज्यादा आप अपनी गाड़ियों को खड़े-खड़े जंग लगता देख सकते हैं और साईकल चलाने के गुण गा सकते हैं।

पेट्रोल-डीज़ल पर भारी-भरकम टैक्स को देश का विकास बताया जा रहा है। जबकि हक़ीक़त ये है कि महंगे तेल से केवल सरकार को मुनाफा हो रहा है। साल 2020-21 वित्तीय वर्ष में पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्र सरकार ने 4.51 लाख करोड़ का कर राजस्व कमाया गया है। मध्यप्रदेश के आरटीआई कार्यकर्ता ने यह जानकारी हासिल की है। जानकारी के मुताबिक, वित्तीय वर्ष 2020-21 में पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर 37,806.96 करोड़ रुपये की कस्टम्स ड्यूटी वसूली गई। वहीं पेट्रोलियम उत्पादों के विनिर्माण पर सेंट्रल एक्साइज़ ड्यूटी के रूप में 4,13,735.60 करोड़ रुपये सरकारी खजाने में जमा किए गए हैं। अपना खजाना भरने के लिए सरकार ने एक साल में लगभग साढ़े चार लाख करोड़ रुपए टैक्स से कमा लिए। पर जब कोरोना से मरने वालों को मुआवजा देने की बारी आई तो सरकार ने हाथ खड़े कर लिए थे कि उसके पास पैसा नहीं है।

110 रुपये पेट्रोल और 1000 रुपये गैस सिलिंडर खरीद रहे हैं लेकिन क्या आपने कभी विरोध किया? नही किया तो 200 रुपये किलो गेहूँ और 400 रुपये किलो चावल हो जाने पर आप क्या उखाड़ लेंगे?

कोरोना ने पिछले एक साल में 30 करोड़ से ज़्यादा लोगों को प्रभावित किया है और तक़रीबन चार लाख लोगों की जान ले ली है। करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गए। ऐसा कठिन समय में जब सरकार ने सहायता नहीं की, तो लोगों के पास अपनी छोटी-छोटी बचत का इस्तेमाल करने और रोज़मर्रा के ख़र्च के लिए कर्ज़ लेने के अलावा कोई चारा नहीं था। घरेलू कर्ज़ पर आरबीआई ने दिसंबर 2020 को समाप्त होने वाली तिमाही तक के आंकड़े जारी किये हैं। जिन से पता चलता है कि मार्च 2020 को समाप्त होने वाली तिमाही यानी जब भारत में कोविड-19 ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया था और दिसंबर 2020 यानी जब पहली लहर गिरावट की ओर थी, इन नौ महीनों के बीच घरेलू ऋण 68.9 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 73.1 लाख करोड़ रुपये हो गया था। यानी उन नौ महीनों में घरेलू कर्ज़ में 4.25 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई थी। आरबीआई के आंकड़े ये भी बताते हैं कि 2020 की जुलाई-सितंबर तिमाही में बैंक जमा 3.6 लाख करोड़ रुपये से घटकर अक्टूबर-दिसंबर तिमाही तक 1.7 लाख करोड़ रुपये, यानी आधे से भी कम रह गया था। इससे पता चलता है कि लोगों ने महज़ तीन महीनों में अपने बैंक खातों से तक़रीबन दो लाख करोड़ रुपये निकाल लिये थे, जो कि इतने कम समय में अभी तक की संभवत: सबसे बड़ी निकासी है।

इस महीने फिर देशवासियों की पीठ पर महंगाई का चाबुक पड़ा है। पहली जुलाई को सरकारी तेल कंपनियों ने एलपीजी सिलेंडर की कीमतों में इज़ाफ़ा किया है। अब एलपीजी गैस सिलेंडर की कीमत राजधानी दिल्ली में 834.50 रुपये प्रति सिलेंडर हो गई है। नवंबर 2020 से लेकर जुलाई 2021 तक एलपीजी गैस सिलेंडर की कीमत 240.5 रुपये यानी लगभग 40 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है। इससे पहले 1 मई को गैस कंपनियों ने एलपीजी सिलेंडर की कीमतें बढ़ाई थीं। उससे पहले फरवरी और मार्च में एलपीजी सिलेंडर महंगा हुआ था। लेकिन तेल कंपनियों ने अप्रैल में गैस सिलेंडर की कीमत 10 रुपये घटाई थी। शायद इसका एक कारण प. बंगाल समेत पांच राज्यों के चुनाव थे। आपको बता दें कि मोदी सरकार के 7 साल में रसोई गैस की कीमत में दोगुने का इज़ाफ़ा हुआ है।

1 मार्च 2014 को 14.2 किलो के घरेलू गैस सिलेंडर की कीमत 410.5 रुपए थी जो अब 834.50 रुपए है। रसोई गैस की कीमत निर्धारण के फार्मूले को इंपोर्ट पार्टी प्राइस कहते हैं। इस फार्मूले के आधार पर सऊदी अरब की अरामको कंपनी द्वारा तय किए गए एलपीजी के कीमत को बेंचमार्क के तौर पर अपनाया जाता है। इस कीमत में समुद्री भाड़ा, कस्टम ड्यूटी, पोर्ट ड्यूटी सहित वो सारे खर्च जोड़े जाते हैं, जो एलपीजी को दूसरे देश से मंगवाने के लिए खर्च किए जाते हैं। इसके बाद भी सिलेंडर का खर्च, देश के कोने-कोने में पहुंचाने का भाड़ा, केंद्र सरकार द्वारा लगने वाली जीएसटी जैसी लागतें भी इसमें जुड़ जाती हैं। 

जब भी एलपीजी की कीमत बढ़ती है तो सरकार यह कहकर अपना बचाव करती है कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की परिस्थितियों की वजह से कीमतों में इजाफा हो रहा है। लेकिन यहां भी झोल है। क्योंकि सऊदी अरामको की एलपीजी की मार्च में कीमत 587 यूएस डॉलर प्रति मीट्रिक टन थी, तब भारत में एलपीजी प्रति सिलेंडर कीमत 819 थी। अब यह कीमत घटकर $527 प्रति मीट्रिक टन हो गई है। तब भारत में 834 रुपए में सिलेंडर बेचा जा रहा है। अगर रुपए और डॉलर की विनिमय दर को समायोजित करने के बाद एलपीजी की कीमत तय की जाए तो यह 552 प्रति सिलेंडर होनी चाहिए। लेकिन 834 रुपए के गैस सिलेंडर से यही समझ आता है कि सरकार एलपीजी की कीमत के नाम पर मुनाफाखोरी कर रही है।

आपको याद होगा कि उज्ज्वला योजना पर भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर अपनी ग़रीबी को भुनाया था। चूल्हे से निकलने वाले धुएं पर उन्होंने कहा था कि कभी-कभी तो ऐसा होता था कि मां खाना बनाती थी और धुंए से उसका चेहरा नहीं दिखता था। अब कोई ज़रा उनसे पूछे कि चूल्हे के धुएं से महिलाओं को मुक्ति का वादा करके उन्होंने महंगी गैस की घुटन क्यों दे दी।

बेरोजगारी और महंगाई पहले ही आपकी जेब मे बड़ा छेद कर चुकी है। कम से कम जिस थाली में आप खाते हैं, उसमे छेद होने से तो बचा लीजिये।अपनी थाली में कौन छेद करता है भाई?

error: Content is protected !!