उत्तर प्रदेश बसपा में फूट, भुनाने में जुटी सपाबसपा से अधिक प्रभावशाली हो रही है भीम आर्मी।भाजपा की हिन्दू मुस्लिम नाम पर चुनाव में ध्रुवीकरण करने की कोशिश।काँग्रेस की दुर्दशा का कारण शीर्ष स्तर पर लिए जा रहे फ़ैसले तो नहीं? अशोक कुमार कौशिक उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। समय जैसे-जैसे पास आता जा रहा है वैसे-वैसे सियासी पारा चढ़ता जा रहा है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप से लेकर पार्टी बदलने का दौर शुरू हो चुका है। अब बहुजन समाज पार्टी में बगावत की खबरें सामने आ रही हैं। सूत्रों के मुताबिक, मायावती की पार्टी के 9 विधायक बागी हो गए हैं। इन विधायकों ने लखनऊ में समाजवादी पार्टी के ऑफिस में अखिलेश यादव से मुलाकात भी की है। अब संभावना जताई जा रही है कि ये विधायक जल्द ही समाजवादी पार्टी में शामिल हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश में होने वाले अगामी 2022 विधानसभा चुनाव में दो तरफा मुकाबला हो सकता है, एक तरफ अगड़ी जातीयों और कुछ ओबीसी के साथ भाजपा गठबंधन और दूसरी तरफ कई पिछड़ी जातीयों, दलित, किसानों के साथ लोकदल, सपा, भीम आर्मी, ओमप्रकाश राजभर का गठबंधन होगा । भाजपा जानती है कि किसान नाराज है, सत्ता विरोधी लहर भी कहीं कहीं है, विशेष तौर पर कोरोना और मंहगाई के कारण, किसान बिल वापस होने वाला भी नही है, क्योंकि पूंजीपतियों के आगे सरकार नतमस्तक है, अब किसानों की नाराजगी की भरपाई भाजपा कैसे करेगी, उसके लिए भाजपा अगड़ी बिरादरी को एकजुट करने में लगी है, ब्राह्मण वोटर की नाराजगी को दूर करने के लिए ही जितिन प्रसाद के भाजपा में शामिल किया गया है, इनकी अब कोई बहुत ज़्यादा राजनीतिक पकड़ नही है लेकिन ब्राह्मण समाज के कई संगठन ये चलाते है, भाजपा इसी सोच के साथ इनको शामिल की है कि ब्राह्मण वोट एकतरफा भाजपा में रहे। बसपा कोई नई राजनीतिक रणनीति के साथ चौंका सकती है, हो सकता है बसपा इनमे से कियी गठबंधन में शामिल हो जाये या बिहार चुनाव की तरह किसी नये गठबंधन की हिस्सा बने, नही तो यदि बसपा अकेले चुनाव में आती है तो तीसरे स्थान पर ही रहेगी अधिकतर जगहों पर, इसके दो कारण हैं, पहला पिछले कुछ सालों से दलित वोटरों पर भीम आर्मी का भी प्रभाव बढ़ा है, दूसरा मौजूदा हालत में सिर्फ दलित वोटरों के सहारे बसपा के सीटो की संख्या बढ़ने वाली नही है, 2007 में बसपा पूर्ण बहुमत मे आयी थी, तो उसके पीछे कई कारण थे जैसे पहला एकजुट दलित वोटर, दूसरा कमजोर भाजपा, तीसरा अल्पसंख्यक वोटरों की एकतरफा बसपा को वोट करना और चौथा बसपा की सोशल इंजीनियरिंग जिसमें ब्राह्मण, कुशवाहा वोटरों का बसपा को वोट करना। जहाँ तक अनुमान है बसपा चुनाव से पहले भाजपा के साथ गठबंधन कभी नही करेगी, ये उसके लिए आत्मघाती गोल करने की तरह होगा, इससे बसपा के वोटर बड़ी संख्या में भीम आर्मी में चले जायेंगें । सपा, लोकदल, भीम आर्मी, ओमप्रकाश राजभर का गठबंधन कितना सीट जीत पाता है, ये मुख्यत: किसानों, दलित और अल्पसंख्यक वोटरों पर निर्भर करता है, हालाँकि अभी ये गठबंधन फाइनल नही हुआ है लेकिन बात बहुत आगे बढ़ गई है, ये गठबंधन जान बूझ कर अल्पसंख्यक वोटरों पर फोकस नही कर रहा है, इसके पीछे मुख्य कारण है कि भाजपा का हिन्दू मुस्लिम के नाम पर चुनाव में ध्रुवीकरण करने की कोशिश करना जो कि भाजपा करेगी ही करेगी, ये गठबंधन जानता है कि अल्पसंख्यक ये देख रहें है कि कौन भाजपा को हरायेगा, उसी हिसाब से वोट करेगें अल्पसंख्यक, उसके लिए कुछ करने की ज़रुरत नही है, यदि उनका गठबंधन मजबूत दिखा तो अल्पसंख्यकों का वोट अपने आप मिल जायेगा। एआईएमआईएम का उत्तर प्रदेश में भविष्य दो बातों पर निर्भर करता है, पहला पश्चिम उत्तर प्रदेश के मुस्लिम वोट, हालाँकि पश्चिम उत्तर प्रदेश के मुस्लिम वोटरों के वोट को आजम खान और किसान आंदोलन भी प्रभावित कर सकतें हैं, दूसरा किसी से गठबंधन करना जैसे बसपा से, एआईएमआईएम के पास कैडरों की कमी है, अल्पसंख्यक वोटरों पर पूरी तरह से निर्भरता है और अल्पसंख्यक वोटर वेट और वाच की नीति पर काम कर रहें हैं, बसपा से गठबंधन करने पर एआईएमआईएम को कुछ सीट मिल सकती है । यदि बसपा एआईएमआईएम के साथ गठबंधन नही करती है, अकेले चुनाव में जाती है, तो एआईएमआईएम छोटी छोटी पार्टीयों को मिला कर कोई नया गठबंधन खड़ा कर सकती है, तो उसका कोई फायदा उसे मिलने वाला नही है, देश के राजनीतिक इतिहास और वर्तमान पर गौर करेगें तो पायेंगें कि छोटी पार्टीयों का गठबंधन चुनावी राजनीति में लगभग नाकामयाब ही रहा है, जनता छोटे गठबंधनों को वोट ही नही करती है। कांग्रेस का इस चुनाव में कई खास वजूद नही है, दुर्दशा का कारण शीर्ष स्तर पर लिए जा रहे फ़ैसले तो नहीं? जहाँ एक ओर सत्तारूढ़ भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र या उत्तरप्रदेश जैसे बड़े सूबे में काबिज़ होने के बावजूद संगठन मज़बूती के मामले में कोई लापरवाही करती नहीं दिखती । वहीं काँग्रेस पार्टी चंद सालों में अपनी सियासी ज़मीन खोने के बावजूद भी सारे फैसले अधकच्ची नींद में लेती नज़र आ रही । भाजपा ने जो कभी एक सपना देखा था काँग्रेस मुक्त भारत का उसे भाजपा से ज़्यादा काँग्रेस ने स्वयं ही साकार करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी। जिसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा देश की मुख्य राजनीतिक पार्टी हो गई और काँग्रेस पूरी तरह विपक्ष की भूमिका न निभाने के कारण से सदन में मुख्य विपक्षी की पहचान भी खो बैठी । लिहाज़ा उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य ऐसे हैं जहाँ कॉंग्रेस तीसरे या चौथे नम्बर पर सिमट के रह गई है । अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन वापस लाने में पार्टी कितनी गंभीर है जिसकी जीती जागती मिसाल हाल ही में 24 अकबर रोड नई दिल्ली के काँग्रेस मुख्यालय से निकला फरमान है । जिसमें लिखा था कि पूर्व विधायक नदीम जावेद के स्थान पर कांग्रेस अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी शायर इमरान प्रतापगढ़ी को दी जाती है । अब आइये राष्ट्रीय स्तर के पद के पहलुओं पर नज़र डालते चलते हैं कि पूर्वांचल में अगर देखा जाए तो युवा पीढ़ी की कतार में पूर्व विधायक नदीम जावेद का नाम सक्रिय राजनीति में उभर कर आता है। जिसका कारण है कम अवस्था मे छात्र राजनीति से लेकर इसी काँग्रेस पार्टी की छात्र इकाई एनएसयूआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा काँग्रेस के टिकट पर विधायक निर्वाचित हो चुके हैं । देखा जाए तो इसमें काँग्रेस पार्टी की पहचान कम बल्कि स्थानीय स्तर पर उनकी राजनीतिक सक्रियता ख़ास वजह रही । 1976 में जौनपुर में जन्में पूर्व विधायक नदीम जावेद ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ छात्र राजनीति में भी भाग्य आज़माना शुरू कर दिया था । और 2012 आते-आते जौनपुर विधानसभा सीट पर उस समय कब्ज़ा जमा लिया जब समाजवादी पार्टी की लहर थी । ये सीट काँग्रेस की झोली में करीब 25 साल बाद वापस मिली थी वह भी उस समय जिस समय बिल्कुल भी संभव नहीं था । इससे लगता है कि सक्रिय राजनीति कब काम आती है । जबकि देखा जाए तो 2007 में काँग्रेस पार्टी को इसी विधानसभा सीट पर महज़ 3000 वोटों से संतुष्ट होना पड़ा था। वहीं दूसरी ओर शायर इमरान प्रतापगढ़ी को एक ऐसे पद की ज़िम्मेदारी दी गई है जो वर्तमान समय मे बहुत मायने रखती है यानी अल्पसंख्यक को जोड़ना वो भी वोटों की सूरत में न की केवल भीड़ जुटाना । राजनीतिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से देखा जाए तो इमरान प्रतापगढ़ी का कोई ऐसा इतिहास नहीं रहा जिससे वह कभी सक्रिय राजनीति में रहे हों जो उन्हें इतने बड़े पद की ज़िम्मेदारी दी गई है। जबकि काँग्रेस हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में मुस्लिम बाहुल्य सीट से इमरान प्रतापगढ़ी पर एक दाव लगाकर जीती बाज़ी बुरी तरह हार चुकी है जिसमें पार्टी ज़मानत तक न बचा सकी थी । बावजूद इसके पार्टी ने सबक न लिया। पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने दबी ज़बान में यहाँ तक कहा कि फ़िल्मी कलाकार हो या किसी खेल के मैदान का मंझा खिलाड़ी राजनीति में आने के बाद उन्हें केवल लहर में जीत का फायदा मिलता है। इसका कतई यह मतलब नहीं होता कि उनके पीछे जनाधार है। ज़मीनी सतह पर काम करके पार्टी की पॉलिसी को जन-जन तक पहुंचाने का काम किसने कितना किया इसका विश्लेषण ही किसी पार्टी को उसे सत्ता में बनाये रखता है । और इन्ही सब बातों को लेकर पार्टी में मौजूद वरिष्ठ नेताओं का एक बड़ा वर्ग पार्टी के नेतृत्व से नाराज़ भी है। एक बार तो कपिल सिब्बल ने पार्टी को खुद का आकलन करने की सलाह तक दे डाली थी। शहज़ाद पूनावाला की अगर हम बात करें तो काँग्रेस के पास एक ऐसा पढ़ा लिखा नौजवान जो कि कानून विद् भी है की और मीडिया सहित अन्य मंचों पर पार्टी का पक्ष मज़बूती से रखते रहे। पार्टी हित की बात करते हुए लोगों को जोड़ने का काम भी किया । ख़ासतौर से अल्पसंख्यक वर्ग में भी पकड़ का कारण पूनावाला का उस वर्ग के मुद्दों को उठाते हुए उनके हितों की बात करना । लेकिन काँग्रेस पार्टी से आजकल पूनावाला की नाराज़गी का एक मात्र कारण कोई भी अहम फ़ैसले में सबकी राय न लेना । शहज़ाद पूनावाला ने पार्टी के शीर्ष पद (अध्यक्ष) की चुनाव प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा था कि एक व्यक्ति के ‘चयन’ के लिए ‘चुनाव’ का दिखावा किया जा रहा है । इसी तरह अल्पसंख्यक वर्ग में एक जाना पहचाना नाम पूर्व विधायक इमरान मसूद का भी है जिनकी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनपद सहारनपुर और आस-पास के इलाकों में ख़ासी राजनीतिक ज़मीनी पकड़ है। इमरान मसूद ऐसे परिवार से आते हैं जिसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि है और जनता से बराबर संवाद रहने की वजह से उनका ख़ासा जनाधार भी है। राजस्थान में 5 साल तक काँग्रेस विपक्ष में रही अपनी पार्टी का पक्ष सचिन पायलट ने हमेशा मज़बूती से रखकर कड़ी मेहनत की जिसका नतीजा यह निकलाकि पार्टी जब सत्ता में आई तो सचिन पायलट को मुख्यमंत्री पद तो दूर की बात और उनको हाशिये पर डाल दिया गया। अब सचिन पायलट की नाराजगी दूर करने का प्रयास किया जा रहा है उन्हें उत्तर प्रदेश में जातिगत राजनीति के दृष्टिगत नया प्रभार देने की जोर शोर से तैयारी चल रही है। इसके दो फायदे होंगे राजस्थान में असंतोष कम हो सकेगा तथा उत्तर प्रदेश में उन्हें महती भूमिका देकर उनका कद बढ़ाया जाएगा ताकि सियासी फायदा लिया जा सके। ज्योतिरादित्य सिंधिया के मामले में भी कमोबेश कुछ यही रहा कि उन्हें पार्टी से इसलिए जाने दिया गया कि नेतृत्व को शायद राहुल के लिए कहीं न कहीं ख़तरा नज़र आने लगा था क्योंकि ज्योतिरादित्य में अध्यक्ष बनने के सारे गुण थे । ज्योतिरादित्य ने भी कुछ उतावलापन दिखाते हुए भाजपा का दामन थामा था। उनकी महत्वाकांक्षा के अनुरूप उन्हें भाजपा में सम्मान नहीं दिया गया। अब सुनने में यह आ रहा है दिल्ली से शिवराज सिंह चौहान के पर कतरने की तैयारी शुरू हो चुकी है। इसी कवायद में सिंधिया को उनके खिलाफ तैयार किया जा रहा है निकट भविष्य में मध्यप्रदेश में भाजपा बदलाव के संकेत मिल रहे हैं। कुल मिलाकर अगर माना जाए तो कहीं न कहीं काँग्रेस पार्टी में नगीने परखने वालों की कमी सी है। जिसके चलते ग़लत फैसले ही पार्टी को धीरे-धीरे हाशिये पर ले आये । अगर काँग्रेस समय रहते न संभली तो पार्टी में मौजूद बचे हुए ज़मीनी नेता भी जल्दी ही अपना भविष्य कहीं और तलाशते नज़र आएँगे ।पार्टी के लिए राजनीतिक पृष्ठभूमि और अच्छी छवि तथा सांगठनिक क्षमता वाले वरिष्ठ और युवा नेताओं को तरजीह देना श्रेयस्कर रहेगा,अन्यथा समय रहते काँग्रेस पार्टी अब भी न चेती तो वह राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान मुश्किल से बचा पाएगी । ये किसी एक विधानसभा विशेष का नहीं बल्कि पूरे प्रदेश की समीक्षा है। ये समीक्षा भी वर्तमान उत्तर प्रदेश की बनावट को देखते हुए लिखी गई है यदि भाजपा ने अपनी रणनीति के अनुरूप उसमें बंटवारा कर दिया और नए प्रदेशों का गठन कर दिया तो स्थितियां बदल जाएंगी। Post navigation विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस पर सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रतन लाल कटारिया पाला बदलो, इनाम पाओ