योगेश कौशिक

धर्म के रक्षक अनेक अंशावतैशी,चक्रवर्ती सम्राट ,प्रजातंत्र के प्रथम संस्थापक, सुधारक, अजर- अमर, दयापुंज, स्त्री जाति को मान सम्मान देने वाले, महादानी जन- जनार्दन तथा प्राणी मात्र के रक्षक, सर्व व्यापक, जरा- मृत्यु रहित देवाधिदेव आदि देव भगवान परशुराम जी भगवान विष्णु के छठे अवतार थे । उनसे पूर्व 5 अवतार हुए जिनमें मत्स्य तथा कूर्म जलचर थे और वाराह तथा नरसिंह पशु योनि से संबंध रखते थे, केवल वामन अवतार ही मनुष्य रूप में था परंतु वामन अवतार में भी प्रभु ने बली से तीन पग पृथ्वी के दान में आकाश, पाताल, और पृथ्वी लेकर उसका दर्प चूर चूर करके अपने लोक को चले गए थे। परंतु छठे अवतारी भगवान परशुराम ने ही पृथ्वी पर से अधर्म का नाश करके जनकल्याण हेतु कार्य करके धर्म की स्थापना की।

भगवान परशुराम का मूल वास्तविक नाम “राम ” था परंतु जब भगवान शिव ने धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश हेतु उन्हें अष्ट धातु निर्मित अमोघ, भीषण “परशा” भेंट किया तब से वे राम की अपेक्षा “परशुराम ” नाम से जग में विख्यात हुए।

ब्रम्हा जी के पुत्र भृगु ऋषि की पत्नी दक्ष पुत्री ख्याति से ऋचीक ऋषि का जन्म हुआ जिनका विवाह गाधी पुत्री सत्यवती के साथ हुआ। इन दोनों से जमदग्नि ऋषि पैदा हुए जिनका विवाह राजा रेणु की पुत्री रेणुका के साथ हुआ। उस काल में हैहय वंशी कृत वीर्य के पुत्र कार्त वीर्य, जिसने भगवान दत्तात्रेय की कठोर तपस्या करके वरदान प्राप्त कर लिया था की वह देवता, यक्ष- गंधर्व, राक्षस- दैत्य और दानव तथा मानव से हार न सके और उसके अंदर सहस्त्र भुजाओं का बल हो ताकि वह ब्रम्हा, महेश और इन्द्र आदि देवताओं से भी अपराजेय होकर तीनों लोकों का स्वामी बन जाए । ऐसा वरदान प्राप्त करके उसने पृथ्वी पर धर्म का नाश कर दिया और अधर्म की स्थापना करके तीनों लोकों में हाहाकार मचा दिया। जिससे ब्रह्मा विष्णु महेश और इंद्र आदि देवता भी उससे डरने लगे। अतः सभी देवता इकट्ठे होकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे अर्चना की कि प्रभु हमें कार्तवीर्य के अनाचार से मुक्ति दिलाएं। तब भगवान विष्णु ने उनसे कहा कि वे सभी अपने-अपने अंश मुझे समर्पित करें तब उन के अंश और भगवान विष्णु के अंश से भगवान विष्णु ने जमदग्नि तथा रेणुका से भगवान परशुराम जी का अवतरण किया। भगवान परशुराम जी ने भगवान शिव से शस्त्र व शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की और भगवान शिव को प्रसन्न करके उनसे “परशा” प्राप्त किया और भगवान विष्णु से धनुष और उनका चक्र प्राप्त किया।

एक समय कार्तवीर्य जमदग्नि ऋषि के आश्रम में सेना समेत पहुंचा, जहां ऋषि जमदग्नि ने उसकी और पूरी सेना की बड़ी आवभगत की, जिससे कार्तवीर्य बहुत अचंभित हुआ और उसने जमदग्नि ऋषि से पूछा की इस घोर जंगल में वह इतना कुछ कैसे कर पाया। जिस पर ऋषि ने उसे बताया कि यह सब नंदा ग‌ऊ(सभी इच्छाएं पूरी करने वाली) की कृपा से संभव हो सका है जिसे वह देव लोक से अपने यज्ञ की आपूर्ति हेतु मांग कर लाया था। इस पर कार्त वीर्य ने ऋषि से यह गाय उसे सौंपने के लिए कहा ,परंतु ऋषि के मना करने पर वह जबरदस्ती उस गाय को ले गया। भगवान परशुराम को आश्रम पहुंचने पर जब इस मामले का पता लगा तो भगवान परशुराम ने उसका पीछा करके उससे युद्ध किया जिसमें कार्तवीर्य की सेना हार गई परंतु कार्तवीर्य वहां से भाग कर छुप गया।

तब भगवान परशुराम ने दिग्विजय की और सभी अत्याचारी तथा अनाचारी राजाओं पर विजय प्राप्त की ।इसके पश्चात जब भगवान परशुराम आश्रम में पहुंचे तो सप्त ऋषियों ने उनका राज तिलक करके सिंहासन पर बैठा दिया ।परंतु माता के आदेश पर उन्होंने सारी पृथ्वी को दान कर दिया और स्वयं तपस्या करने के लिए पहाड़ों पर चले गए।

कुछ समय पश्चात कार्तवीर्य की सेना द्वारा जमदग्नि ऋषि की अनुपस्थिति में आश्रम पर हमला कर दिया गया और वहां उपस्थित ब्रह्मचारियों का वध कर दिया ।जिसकी सूचना मिलने पर परशुराम जी वहां पहुंचे और उन्होंने न केवल कार्तवीर्य की सेना बल्कि कार्तवीर्य का भी वध कर दिया। इस प्रकार भगवान परशुराम ने 21 बार अधर्मी राजाओं से पृथ्वी को मुक्त कराया और मुक्त कराने के बाद अपने पास रखने की अपेक्षा हर बार दान कर दिया और स्वयं तपस्या करने में लीन रहे।

भगवान परशुराम केवल ब्राह्मणों के ही देवता नहीं थे बल्कि शूद्र वैश्य एवं क्षत्रिय सभी को साथ लेकर चलते थे। उनका विरोध केवल ऐसे क्षत्रियों के साथ था जो धर्म आधारित राजनीति करने की अपेक्षा अधर्म का आचरण करते थे और प्रजा पर अत्याचार करते थे। जब जब भी उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी का दान किया तो वह इसके 15 भाग करते थे । जिसमें से 5 भाग ऋषि-मुनियों को, 4 भाग क्षत्रियों को, तीन भाग वैश्यों को और तीन भाग शूद्रों में बांट देते थे। ब्राह्मणों को तो वह केवल धन और वस्त्र आदि देकर शिक्षित होने का आशीर्वाद दिया करते थे। इस प्रकार के उनके आचरण के बाद भी यदि कोई व्यक्ति भगवान परशुराम को क्षत्रियों का शत्रु कहता है तो वह मूर्ख है उनके काल में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय आपस में सहयोगी बनकर राज्य में सुख समृद्धि द्वारा प्रजा को प्रसन्न रखते थे। उनका सिद्धांत राज्य में शूद्र, चर्मकार ,बाल्मीकि, कुंभकार, वैश्य, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय आदि सभी जातियों को समान रखने का था। प्रजा में धर्म कार्यों के प्रति स्वतंत्रता और अधर्म का नाश हो अन्याय और पाप कहीं दिखाई नहीं दे ऐसे आदर्शों की स्थापना करने वाले थे भगवान परशुराम जी।

उपरोक्त लेख का संकलन योगेश कौशिक, एम बी ए, एल एल बी, सेवा निवृत्त मुख्य लेखाधिकारी, डायरेक्टर सैंट्रल कोआपरेटिव बैंक, गुरुग्राम, तथा सामाजिक क्षेत्र में प्रदेश महामंत्री संगठन, विप्र फाउण्डेशन जोकि ब्राह्मणों की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था है तथा आदर्श ब्राह्मण सभा गुरूग्राम के मुख्य संरक्षक ने क‌ई ग्रंथों, पुराणों आदि के अध्ययन के आधार पर किया है।

आदर्श ब्राह्मण सभा क‌ई वर्षों से भगवान परशुराम जी के चरित्र व आदर्शों के प्रचार प्रसार व समाज सेवा में लीन हैं।

सभा द्वारा बस‌ई रोड़ गुरूग्राम पर एक भव्य भगवान परशुराम भवन का निर्माण किया गया है और वर्तमान में उसी प्रांगण में भव्य भगवान परशुराम मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। इस के अतिरिक्त सदर बाजार में कन्या विद्यालय के पास भगवान परशुराम पुस्तकालय का भी संचालन किया जा रहा है।
जय भगवान परशुराम जी।

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