वर्तमान में सारा हरियाणा त्रस्त है कोरोना महामारी से। सरकार के ब्यान बार-बार आते हैं कि हमारे पास दवाइयां, ऑक्सीजन, अस्पताल सभी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं लेकिन जमीनी हकीकत में कहीं कुछ  मिल नहीं रहा। जनता सवाल पूछ रही है कि कोरोना फंड में इतना पैसा दिया था, उसका क्या किया। पिछले वर्ष तो कंपनियों से उनका सीएसआर का पैसा लेकर खर्च कर दिया और उसी से अपनी सरकार का प्रचार भी किया। अब सरकार ब्यान तो लुभावने दे रही है लेकिन जनता उनकी बात पर विश्वास नहीं कर रही।

कुछ दिन पूर्व की बात करें तो क से किसान आंदोलन ने भाजपा को पसीना ला रखा है, संभाले नहीं संभल रहा है अभी भी जारी है। ऐसे में कहावत याद आती है गरीबी में आटा गीला। एक तो सरकार किसान आंदोलन को ही नहीं संभाल पा रही थी, ऊपर से कोरोना ने पैर पसार लिए। अब लगता ऐसा है कि सरकार कुछ समझ नहीं पा रही कि क्या करें। सरकार की ओर से घोषणाएं की जाती हैं, अनेक नंबर दिए जाते हैं लेकिन अधिकारी वर्ग सुनता ही नहीं। जनता की एक ही आवाज है कि अधिकारी फोन ही नहीं उठाते।

किसान आंदोलन में तो कुछ वर्ग शामिल नहीं भी थे लेकिन कोरोना बीमारी में तो हरियाणा में रहने वाला हर बच्चा, बूढ़ा, जवान, नर-नारी सभी डर के साये में जी रहे हैं और जब दुख, डर, परेशानी में जिस पर विश्वास हो, उसका साथ न मिले तो आदमी आक्रोशित होता ही है। यह मानव स्वभाव है और यही अब हो रहा है।

वर्तमान में जो देखा जा रहा है वह यह कि भाजपा के क से कार्यकर्ता ही नहीं अपितु भाजपा के पदाधिकारी भी सरकार के अधिकारियों की कार्यशैली और सरकार की कार्यशैली से खफा नजर आ रहे हैं। ऐसा 2014 के बाद प्रथम बार देखा जा रहा है।

सोशल मीडिया पर भी भाजपा के कार्यकर्ताओं की सरकार की नाकामियों पर पोस्ट देखी जा सकती हैं। प्रश्न वही है कि हर मानव को अपनी जान की परवाह पहले है, उसके बाद काम, व्यापार और पार्टी आते हैं और अब भाजपा कार्यकर्ताओं को भी लगने लगा है कि सरकार की कार्यशैली गलत है तथा वह मुखर होने लगे हैं और जब कार्यकर्ता अपनी सरकार के विरूद्ध मुखर होता है तो परिणाम अमूमन यही होता है या तो वह पार्टी से निकाल दिया जाता है या फिर वह स्वयं पार्टी छोड़ देता है। वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा तो लगता नहीं कि भाजपा संगठन किसी पार्टी कार्यकर्ता को अनुशासनात्मक कार्यवाही के नाम पर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा सके। अनुमान यही लगाए जा सकते हैं कि कार्यकर्ता पार्टी का काम छोड़ पहले तो अपने स्वास्थ्य की चिंता करेंगे और फिर नए सिरे से अपना भविष्य कहां तलाशना है यह सोचेंगे।

अब करते हैं क से कर्मचारी की बात। पिछले काफी समय से अनेक विभागों के कर्मचारियों को सैलरी समय पर नहीं मिल रही या वे अपनी सुविधाओं से संतुष्ट नहीं है या फिर सरकार के फैसलों से संतुष्ट नहीं हैं। इसमें रोड़वेज, शिक्षा विभाग, सफाई कर्मचारी, बिजली कर्मचारी, पर्यटन विभाग, कच्चे कर्मचारी, ठेके के कर्मचारी सभी रूष्ठ हैं और ऐसे समय में उनकी रूष्ठता सरकार के प्रति बढ़ती ही जा रही है। अब सरकार के साथ परिस्थिति यह है कि नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या, क्योंकि संसाधन तो सरकार के पास है नहीं, बजट घाटे में चल रहा है, घोषणाएं कर रखी हैं, काम शुरू नहीं हो रहे। ऐसी अवस्था में सरकार के लिए कठिनाइयां ही कठिनाइयां हैं।

इसके बाद बात करें क से कामगार की तो गत वर्ष कोरोना फैलने से जो उनके कामों में कमी आई थी, वह अभी उस कमी से उबर भी नहीं पाए थे अर्थात कल-कारखाने अभी पूर्णत: चल भी नहीं पाए थे और अब फिर कोरोना आ गया और सरकार की तरफ से यह तो कहा जा रहा है कि लॉकडाउन नहीं लगेगा लेकिन साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि लेकिन बंदिशें लॉकडाउन जैसी लग जाएंगी। आज ही गुरुग्राम में मारूति और मुंजाल शोभा व हीरो मोटो कॉप्र्स आदि कंपनियों ने कुछ दिन का शटडाउन किया है। अत: यह कहा जा सकता है कि परेशान व्यक्ति तो अपने ऊपर वाले को ही जिम्मेदार मानेगा, अपनी परेशानी का, जब उसकी गलती न हो। अत: कामगार भी भाजपा के लिए खतरे की घंटी हैं।

क से कारखाने आदि की स्थिति भी अच्छी नहीं है। पिछले लॉकडाउन में सरकार ने उन पर अपने कर्मचारियों को पूर्ण वेतन देने को बाध्य किया था। कारखाने बंद हो गए थे, वह अभी यथास्थिति में आए नहीं और उन कारखानेदारों को सरकार की ओर से किसी प्रकार की टैक्सों में राहत भी मिली नहीं। इस प्रकार के व्यक्ति मुखर तो नहीं होते लेकिन अपनों में बैठकर अपना दुखड़ा तो सरकार के प्रति रोते ही हैं।

कोरोना का कहर सारे देश में ही है और सारे देश में ही सरकार के प्रति आक्रोश पनप रहा है। ऐसे में पश्चिमी बंगाल जिसकी राजधानी क से कलकत्ता है, उसका जिक्र भी होना चाहिए। पश्चिमी बंगाल के चुनाव भाजपा ने या यूं कहें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लिए हैं और ऐसे में यदि दो तारीख को परिणाम भाजपा के विरूद्ध आए तो इस कड़ी में क से कलकत्ता भी जुड़ जाएगा। वैसे चर्चाकार पश्चिम बंगाल में ममता को भी कमजोर नहीं मान रहे। 

क से कर्नाटक के चुनाव में भी रूझान मिल रहे हैं कि वह भी भाजपा के पक्ष में रहते नहीं दिख रहे।

 उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट हो गया कि क से किसान, क से कोरोना, क से कर्मचारी, क से कामगार, क से कारखाने, क से कलकत्ता और क से कर्नाटक, ये सभी भाजपा की कड़ी परीक्षा ले रहे हैं। इनसे पार पाना लगता तो नहीं कि भाजपा के लिए आसान होगा।

अब यही समय है देखने का कि कैसे मनोहर लाल खट्टर, नरेंद्र मोदी और अमित शाह कैसे बाजी जीत पाते हैं।अत: माइकल तरविंदर सैनी का कहना है कि लगता ऐसा है कि भाजपा को ‘क’ काल की ओर अग्रसर कर रहा है। इसे शांत करने के लिए भाजपा को हवन-यज्ञ का बंदोबस्त करना चाहिए।

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