इतना ‘मास्क-मास्क’ चिल्लाओ की सारी गलती तुम्हारे परिवार के सदस्य की निकल आये।
निजी कार, एक पब्लिक प्लेस है, पर पीएम केयर्स फ़ंड, पब्लिक फ़ंड नहीं है ?
कोरोना की दूसरी लहर देश में सुनामी की तरह आ चुकी है और लॉकडाउन का डर फिर दिखने लगा है।
जनता के साथ ज्यादती पर माननीयों से सख़्ती तो दूर, नरमी से यह पूछना भी गुनाह माना जा सकता है कि साहेब आपने मास्क क्यों नहीं पहना ?

अशोक कुमार कौशिक

 मूर्ख शासकों की कथनी और करनी – दोनों का फल अंतत: जनता को ही भुगतना पड़ता है, यह समयसिद्ध सत्य है। हम किसी मुद्दे पर सरकार के समर्थन में रहें या विरोध में रहें। किसी फ़ैसले पर आवाज़ उठाएं या चुप्पी साध लें। लेकिन जब उस मुद्दे पर नुक़सान उठाने की बारी आती है, तो जनता को ही बलि का बकरा बनना पड़ता है। हिंदुस्तान में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्होंने बाल्कनी में आकर ताली या थाली न बजाई हो या दिए और टार्च न जलाएं हों। 

लॉकडाउन की घोषणा होने पर अच्छा है, अच्छा है का दम भरते हुए लोग घरों में भी खुशी-खुशी कैद हो गए। एसी और कूलर की हवा खाते हुए उन लोगों को लानत भेजने से भी बाज़ न आए, जो मजबूरन घर लौट रहे थे और इसके लिए बसों पर सवार होने की कोशिश में थे या फिर पैदल ही निकल पड़े थे। पिछले साल इन्हीं दिनों तब्लीग़ी जमात को कई खबरिया चैनल पौराणिक कथाओं में वर्णित दानव की तरह पेश कर रहे थे, जिनके कारण कोरोना संक्रमितों के आंकड़े कुछ हज़ार तक जा पहुंचे थे। 

‘मास्क’ नया प्रतिस्थापित ‘तब्लीगी’ है। चुनावी रैलियों, घोटाला हो चुके पीएम केयर फंड, जनता को एएनआई बना चुके 20 लाख करोड़ के पैकेज, हेल्थकेयर सिस्टम की उदासीनता, महंगे ईंधन से पनपी बेलगाम मंहगाई, ध्वस्त अर्थव्यवस्था का कोरोना की दुसरी विध्वंसक लहर पैदा करने में कोई रोल नहीं है। इतना ‘मास्क-मास्क’ चिल्लाओ की सारी गलती तुम्हारे परिवार के सदस्य की निकल आये।

हमारे शासक जनता की इस भक्ति का लाभ उठाते हुए पिछले दरवाजे से कई बड़े फ़ैसले ले चुके थे, और सामने वे जनता को यही बतला रहे थे कि दुनिया की महाशक्ति अमेरिका कैसे सबसे ज़्यादा प्रभावित है। हम तो उससे फिर भी पीछे ही हैं।

अब कोरोना की दूसरी लहर देश में सुनामी की तरह आ चुकी है। और लॉकडाउन का डर फिर दिखने लगा है। बल्कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों में अलग-अलग तरह से लॉकडाउन लगने भी लगा है। आम जनता तो बीमारी के डर से घबरा ही रही है, प्रवासी मज़दूर भी एक बार फिर अपनी रोजी-रोटी के साथ जान की चिंता में उलझ गए हैं। महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, दिल्ली से रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों में मज़दूरों की बढ़ती भीड़ दिखाई देने लगी है। 

मध्यप्रदेश के इंदौर में बुरा हाल है। सरकार ने इनकी ओर से आंखें मूंद ली हों, तो औऱ बात है। सरकार को वैसे भी कहां कुछ दिखाई देता है। अब खबरे आ रही है कि गोरखपुर जैसे छोटे छोटे शहरों के भी अस्पताल भर चुके है, लोग मारे मारे भटक रहे है, वहां भी रेमडीसीवीर इंजेक्शन की मारा मारी मच उठी है। अब छोटे शहरों में भी बीमारी भरचक पहुंच चुकी है।

जैसे इस वक़्त प्रधानमंत्री मोदी ने परीक्षा पर चर्चा की। उन्हें शायद ये नज़र नहीं आया कि पिछले साल से अब तक किशोर और युवा अपनी पढ़ाई और रोजगार को लेकर कितने असमंजस में हैं। कक्षाओं का ठिकाना नहीं है, सोशल मीडिया पर परीक्षाओं के बहिष्कार की मुहिम चल रही है, ऑनलाइन-ऑफ़लाइन के सी-सॉ में विद्यार्थियों का भविष्य झूल रहा है और मोदी बच्चों को परीक्षा में आत्मविश्वास बढ़ाने के नुस्खे बता रहे हैं। पता नहीं, कोई इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है।सरकार जो फैसले जनता पर थोप रही है, खुद उस पर अमल नहीं कर रही। इसका सबसे बड़ा प्रमाण चुनावी रैलियां और रोड शो हैं, जिनमें निर्वाचन आयोग की नियमावलियों का उल्लंघन हो रहा है। यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि मोदी सरकार न केवल संवेदनहीन है, बल्कि पक्षपाती भी है। कैसी विडंबना है, आप के निजी पैसों से, निजी रुचि और निजी ज़रूरतों के लिये खरीदी गयीं, निजी कार, एक पब्लिक प्लेस है, पर पब्लिक के नाम पर, पब्लिक के हित के लिए, पब्लिक से उगाहा गया, पीएम केयर्स फ़ंड, पब्लिक फ़ंड नहीं है ?

 कार को सार्वजनिक स्थान बताकर उसमें अकेले चालक को भी मास्क अनिवार्य कर दिया गया है, लेकिन प्रधानमंत्री और गृहमंत्री सार्वजनिक सभाओं में बिना मास्क के नज़र आ रहे हैं। इंदौर में पुलिसवालों ने एक ऑटोचालक पर मास्क न पहनने के कारण सख़्ती के नाम पर बर्बरता दिखाई, लेकिन माननीयों से सख़्ती तो दूर, नरमी से यह पूछना भी गुनाह माना जा सकता है कि साहेब आपने मास्क क्यों नहीं पहना है।
प्रधानमंत्री ने 8 अप्रैल की सुबह टीके की दूसरी खुराक भी लगवा ली। माना जा सकता है कि वे अब सुरक्षित हैं और उन्हें सुरक्षित रहना भी चाहिए। लेकिन प्राणों की कीमत तो सबकी एक जैसी ही होती है। जनता तक टीके की आसान पहुंच कब होगी, कब टीके की किल्लत खत्म होगी, कब इसकी कालाबाज़ारी रुकेगी, कब टीके सबके लिए सुरक्षित होंगे, ये सवाल उठ रहे हैं। क्या सरकार इनका जवाब देगी। या कोरोना के नाम पर उन व्यापारियों का धंधा चमकाने में लगी रहेगी, जिनसे भारी-भरकम चंदा मिलता है। 

आंकड़े बताते हैं कि आम जनता के लिए कमाई के अवसर भले घट गए हों, लेकिन इस देश में धनपशुओं की ताकत में इज़ाफ़ा हुआ है। अगर दोबारा लॉकडाउन हुआ तो आम आदमी के लिए अर्थव्यवस्था फिर चौपट हो जाएगी, लेकिन रईसों की अर्थव्यवस्था फिर चमक जाएगी। कोरोना की दूसरी लहर के बहाने आम जनता के सामने जान और माल दोनों से हाथ धोने का खतरा बना रहेगा। इस ख़तरे को बुद्धिमानी से दूर किया जा सकता है, बशर्ते अक्लमंदी के ईमानदार इस्तेमाल की नीयत हो।

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