भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

बजट सत्र के अंतिम दिन संपत्ति क्षति वसूली विधेयक ही छाया रहा। विपक्ष के विरोध के बावजूद पास हुआ। पास होना ही था, वह तो अविश्वास प्रस्ताव में ही पता लग गया था कि विपक्ष की ताकत 32 से अधिक नहीं है। विपक्ष इसे नागरिक के अधिकारों का हनन तक बता रहा है, जबकि सत्ता पक्ष इसके लाभ गिना रहा है। ऐसा ही हो रहा है आजकल।

संपत्ति क्षति वसूली विधेयक में मोटा-मोटा कहा गया है कि सरकारी और निजी संपत्ति का नुकसान यदि धरना-प्रदर्शन से होता है तो उसका हर्जाना जिम्मेदार लोगों से वसूला जाएगा। बड़ी अच्छी बात है। संपत्ति का किसी प्रकार नुकसान होना ही नहीं चाहिए, संपत्ति के नुकसान से भी देश का ही नुकसान है। प्रदेश की प्रगति भी संपत्ति से ही आंकी जाती है। अत: इसे गलत तो नहीं कह सकते। परंतु धरना-प्रदर्शन भी तो संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों में आते हैं और जब धरना-प्रदर्शन पर बैठेंगे तो नुकसान तो होगा ही। रास्ता रुकेगा तो लोगों को घूमकर जाना पड़ेगा, वह नुकसान। बेशक शांतिपूर्ण हो लेकिन जहां लोग एकत्र होंगे, वहां कूड़ा-कर्कट भी फैलेगा ही, वह भी नुकसान। तात्पर्य यह है कि धरना-प्रदर्शन से कहीं न कहीं कम या ज्यादा नुकसान तो होता ही है।

अब बात करें सरकारी संपत्ति की तो मुझे कई बार विचार आता है कि सरकारी संपत्ति का अर्थ तो जनता की संपत्ति से ही है। सरकार तो उसकी कोषाध्यक्ष है, क्योंकि सरकारी संपत्ति कहीं न कहीं जनता के टैक्स से ही बनती है और प्रदेश में ऐसा कोई व्यक्ति महिला, पुरूष, अमीर, गरीब यहां तक कि नवजात शिशु भी टैक्स देता है। अत: सरकारी संपत्ति का अर्थ भी जनता की संपत्ति ही है।

इस बिल में मोटा-मोटा यह तो पता चला कि धरना-प्रदर्शन से जो संपत्ति का नुकसान होगा, वह जिम्मेदार को भरना पड़ेगा लेकिन जो सरकारी अधिकारी और जनता के नुमाइंदे सरकारी संपत्ति का नुकसान करते हैं, उनका भी क्या इस विधेयक में कहीं जिक्र है? प्रश्न यही है कि आखिर है क्या यह संपत्ति क्षति वसूली विधेयक?

अभी एक आरटीआई से ज्ञात हुआ कि गुरुग्राम में पिछले तीन वर्ष में 2200 मकान सील किए गए हैं, जिनमें से लगभग आधों पर एफआइआर की अनुशंसा की गई लेकिन न तो एक व्यक्ति पर भी एफआइआर दर्ज हुई और न ही कोई भी प्रॉपर्टी सील रही, सभी डी-सील्ड हो गईं। इस घटना में यह प्रश्न तो बाद में करेंगे कि वह क्यों सील हुईं और क्यों डी-सील्ड हुईं, लंबा सैटिंग का खेल है लेकिन मोटे-मोटे एक बात पूछी जा सकती है कि जो सरकारी या निगम के कर्मचारी सील करने में गए क्या वे वेतन जनता की संपत्ति से नहीं ले रहे?

इसी प्रकार के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जहां सरकारी कर्मचारी व्यर्थ के कार्यों को अंजाम देते रहते हैं। वह जिस अधिकारी के कहने पर करते हैं या उस अधिकारी की कभी जवाबदेही तय हुई क्या?

इसके बाद सरकार की ही बात कर लें। वर्तमान हरियाणा सरकार अपने नियम बदलने के लिए अच्छी प्रसिद्ध रही है। जो वह नियम बदल देती है, उनसे जनता कितनी हतोत्साहित होती है और कितनी हानि उठानी पड़ती है, क्या उस पर कभी ध्यान दिया जाएगा?

अभी हाल ही में कर्मचारी भर्ती की परीक्षाओं के बारे में बहुत चर्चा चल रही है। भर्ती की डेट दे दी जाती है। परीक्षा का टाइम दे दिया जाता है फिर भी कैंसिल कर दी जाती है। जो परीक्षा ली जाती हैं, उन कर्मचारियों को वर्षों काम पर नहीं रखा जाता। इसमें अभ्यार्थियों की फीस, आवागमन का खर्चा, मानसिक तनाव आदि का जिम्मेदार कौन होगा? क्या उसके लिए भी विधेयक में कोई प्रावधान है?

इसी प्रकार अनेक योजनाएं घोषित कर दी जाती हैं, उनके लिए तैयारी की जाती है, उनमें अनेक पूरी नहीं होती हैं, अनेक कैंसिल की जाती हैं, उसमें जो धन-संपत्ति का हास होता है, उसका जुर्माना किससे वसूला जाएगा?

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