– बंगाल में किसान आंदोलन और बजट 2021 में कृषि की स्थिति।
– किसान मोर्चा ने देश की जनता और चुनाव प्रभावित राज्यों के मतदाताओं से अपील की।
– क्या किसान आंदोलन की धमक भाजपा को सीमित कर देगी?
– फास्टफूड खाते, अंग्रेजी में तमाम मुद्दों पर धाराप्रवाह बोलते, जीन्स पहने, महंगी गाड़ियों में घूमते हुये व्यक्ति को हम किसान ही नहीं मानते।

अशोक कुमार कौशिक 

 2019 के शुरुआत से ही ये वाक्य हवाओं में गुंजायमान है, किस सन्दर्भ में गुंजायमान है ये हर हिदुस्तानी प्रजा को भली भांति मालुम है।  ये एक सवाल है और भारतीय राजनिती में फिलहाल विपक्ष की हालत को देखते हुए एक वाजिब सवाल भी है। 2019 लोकसभा चुनावों के परिणाम भी इस सवाल की विश्वसनीयता पर मोहर लगाते हैं । 

अगर ये सवाल उचित है तो फिर ये सवाल पश्चिम बंगाल की राजनिती में भी स्टैंड करता है ।  एबीपी न्यूज और सी वोटर का सर्वे कहता है की वर्तमान मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस से इस बार भी मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार ममता बैनर्जी को 50 फीसदी से भी ज्यादा  पश्चिम बंगाल की जनता तीसरी बार भी मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती है। वहीं विपक्षी दलों की बात की जाये तो भाजपा के दिलीप घोष 25 फीसदी मतों से दुसरे नम्बर पर हैं, जबकी भाजपा के ही मुकुल राय 6 और शुभेंदू अधिकारी 4 फीसदी जनता की पसंद हैं, इस लिस्ट में कांग्रेस के अधीर चौधरी और वामफ्रंट के सुर्यकाँत मिश्र भी शामिल हैं । वाम कांग्रेस गठबंधन को फिलहाल छोड़ भी दें, तो भाजपा जैसा की दावा किया जा रहा है, दुसरी प्रमुख पार्टी है।

भाजपा ने अभी तक मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा नहीं की हैं मगर फिर भी अगर कयास लगाया जाय तो सबसे उपर दिलीप घोष का नाम ही दिखता है, लेकिन हाल ही में माँ दुर्गा के लिये किये गये विवादित टिप्पणी के बाद दिलीप घोष थोड़ा बैकफूट पर दिखे हैं, वहीं दुसरी तरफ ममता बैनर्जी के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने की घोषणा करते ही शुभेंदू अधिकारी आजकल सुर्खियों में बने हुए हैं, लेकिन क्या तृणमूल छोड़ कर हाल ही में भाजपा में आये शुभेंदू अधिकारी को दिलीप घोष जैसे पुराने और मंझे हुए नेता जिनकी अध्यक्षता में भाजपा ने बंगाल में अपने पैर जमाये हैं, लोकसभा चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया है। उन पर वरीयता देगी ?  इसके अलावा फिल्म अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती ने भी भाजपा की सदस्यता ली है तो क्या भाजपा उन्हें चेहरा बनाएगी ? उम्मीद तो ना के बराबर ही है ।  इस विकल्पहिनता की समस्या से भाजपा भी परिचित है, इसलिए शायद अमित शाह जी ने मीडिया से इस विषय में पुछे गये एक प्रश्न का घुमावदार जवाब देते हुए कहा था की पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री भाजपा की ओर से इसी बंगाल का ही कोई भूमिपुत्र होगा, इसके बाद से पश्चिम बंगाल में ये अफवाह फैलने लगी की  दादा यानि सौरव गांगुली जल्द ही भाजपा सदस्यता करेंगे और उन्हे ही मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया जायगा। 7 मार्च की ब्रिगेड रैली से पहले तक तक ये अफवाह जोर शोर से उछली । मगर ब्रिगेड में सौरव गांगुली के नहीं शामिल होने के बाद इस अटकल पर विराम लग गया, यानि सवाल एक बार फिर अपनी जगह पर खड़ा दिख रहा है की ममता का विकल्प क्या है ? मगर जवाब नदारद है ।

फिलहाल ममता बैनर्जी इस मामले में कोषों आगे चल रहीं हैं, जबकी बाकी की पार्टियों में हिचकिचाहट जारी है। 

 जनता कयास लगा रही है, जबकी दौड़ में शामिल सभी नेताओं के अपने कार्यकर्ता अपने नेताओं को रेटिंग देने में  लगे पड़े हैं,  लेकिन सवाल अभी भी हिमालय पर्वत के समान खड़ा है,  “आखिर ममता बैनर्जी का विकल्प क्या है ? “

अब बात करें पश्चिम बंगाल में किसान आंदोलन को लेकर बन रही नई परिस्थितियों की । किसान आंदोलन की गूंज बंगाल के चुनाव में सुनाई देने लगी है। किसान एकता मंच ने एक अपील देश के उन राज्यों जहां फिलहाल चुनाव हो रहे हैं, के मतदाताओं से की है, कि वे देश और जनहित में भाजपा को वोट न दें। एकता मंच के नेता बंगाल के नंदीग्राम में अपनी सभा भी कर चुके हैं। पंजाब से उठा किसानों का यह आंदोलन कभी पश्चिमी विक्षोभ की तरह, बरस कर निकल जाने वाले तूफान की तरह लग रहा था, पर जब यह हुजूम 26 नवम्बर को, पानी की बौछारों और लाठी चार्ज का सामना करते हुए दिल्ली की देहरी पर आ जमा तब लगा कि यह मौसमी बारिश नही है बल्कि इस तूफान में परिवर्तन की उम्मीदे छिपी हैं। लेकिन इस जमावड़े को, उस हुजूम को, उस संकल्प को, और किसानों की उस व्यथा को न तो सरकार ने गम्भीरता से लिया और न ही मीडिया के एक अंग ने। देशभर में उत्कंठा थी, कौतूहल था, पर यह उम्मीद नहीं थी कि यह आंदोलन, जन आंदोलनों के इतिहास में एक अमिट हस्ताक्षर बनने जा रहा है। सरकार को लगा कि, वह इस जन आंदोलन को उसी प्रकार निगल जाएगी, जिस प्रकार उसने अन्य जन आंदोलनों को निगल लिया था। जैसे सीएए विरोधी आंदोलन। वही आजमायी शातिराना चालें, धार्मिक भेदभाव औऱ विरोध के हर स्वर को देशद्रोह कह कर फूट डालो, अपना मक़सद हल करो और चलते बनो, की आजमाई शैली काम मे लायी गयी और उधर मीडिया का एक हिस्सा सरकार के दुंदुभिवादक के रूप में सरकार के हर शातिराना जनविरोधी कृत्य में तो, सरकार के साथ था ही। 

सरकार ने बातचीत भी शुरू की और उसके सामानांतर, आईटी सेल और औऱ कुछ मीडिया घराने दुष्प्रचार भी फैलाते रहे। साथ ही दिल्ली की किलेबंदी भी की गयी । पर इन सब कुटिल चालों के बावजूद न तो किसानों का मनोबल टूटा, न उनका हौसला और न ही वे अपने धरनास्थल से एक इंच पीछे हटे। जहां एक तरफ़ सरकार, उसके साथ व्यापक जनसम्पर्क की क्षमता और शक्ति के साथ मीडिया हो, ऐसे संगठित तंत्र के मुकाबला आसान भी नहीं रहता है। पर जब संकल्प अपने हक़ के लिये हो तो, विरोध में खड़ा हर तरह का सत्ता तंत्र मात खाता ही है। अब किसान मोर्चा बंगाल में हैं। वे अपनी बातें जनता तक पहुंचा रहे हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में संगठित हो रहा यह आंदोलन अब धीरे धीरे पूरे देश मे अपनी जड़ जमाने लगा है।

किसान नेता राकेश टिकैत ने बंगाल की रैली में कहा कि भाजपा के नेता यदि हर घर से एक एक मुट्ठी चावल मांगने आते हैं तो उनको यह बताया जाए कि जो चावल वह मांग रहे हैं, उस धान की क्या कीमत एमएसपी के रूप में सरकार ने तय कर रखी है ? और बाजार में उन्हें उस धान की क्या कीमत मिल रही है ? किसान को एमएसपी पर अपने अनाज की कीमत क्यो नही मिल रही है ? सरकार इसके लिये क्या कर रही है ? सरकारी मंडी, निजी मंडी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग जैसे शब्दों के लाभ हानि बताने वाली सरकार किसानों को यह समझा नहीं पा रही है कि आखिर सरकार द्वारा ही तय की गयी कीमत किसानों को क्यों नहीं मिल पा रही है ? सामान्य सी बात है, शायद किसान ही अकेला ऐसा उत्पादक होगा जो सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किये जाने के बाद भी उस पर अपनी फसल नहीं बेच पाता है और लगातार  घाटे में रहता है। समस्या स्पष्ट है कि, किसान को भी अपने उपज की उचित कीमत मिलनी चाहिए, और समाधान के नाम पर सरकार के पास केवल जुमलो के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।

एपीएमसी कानून और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर गठित शांता कुमार कमेटी ने कहा था कि, केवल 6 % किसान ही एमएसपी पर अनाज बेच पाते हैं। इस विषय पर कृषि वैज्ञानिक और अर्थशास्त्री डॉ देविंदर शर्मा कहते हैं कि, ” यदि सरकार कहती है कि केवल 6 % किसानों को ही एमएसपी मिलती है और सरकार यह भी कहती है कि एमएसपी थी, है और रहेगी, तो यही सवाल उठता है कि क्या यह सुविधा केवल 6 % किसानों के लिये ही होगी ? डॉ. शर्मा आगे कहते हैं कि ” केवल 6 % किसान ही क्यो, सभी 100 % किसान क्यों न अपनी फसल एमएसपी पर बेचें ? हम क्यों नहीं चाहते हैं कि शेष 94% किसान जो एमएसपी नही पाते हैं, को भी उनकी उपज की उचित कीमत मिले ? वे एमएसपी पाने के अधिकार से वंचित रहें ?”

अपने हक़ और अपनी उपज की उचित कीमत के लिये ही आज देश भर का किसान सड़को पर है और जहां सड़को पर नहीं है, वहां वह गांव गांव एकजुट होकर पंचायतें कर रहा है। सरकार को चाहिए कि वह एमएसपी सभी 23 फसलों के लिये लागू करे और उसे कानूनी स्वरूप दे दे। सरकार का कहना है कि वह सारा अनाज नहीं खरीद सकती है। इस पर डॉ शर्मा का कहना है कि,”एमएसपी का यह मतलब भी नहीं कि सरकार सारा अनाज खुद खरीदे। बल्कि जिस कम से कम कीमत पर सरकार अनाज खरीद रही है उसी कम से कम कीमत पर हर कोई अनाज खरीदे। इससे न केवल, किसानों को उनके उपज की उचित कीमत मिलेगी बल्कि किसानों का शोषण भी रुकेगा।” 

डॉ देविंदर शर्मा, स्पेन का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि, “स्पेन ने अभी एक कानून बनाया है कि, एक तयशुदा कीमत से कम अनाज खरीदना गैर कानूनी होगा। वहां भी किसानों ने अपनी उपज की उचित कीमत को लेकर आंदोलन किया और, स्पेन सरकार को इस तरह का कानून बनाना पड़ा। इस कानून से किसानों को एक वैधानिक संरक्षण मिला कि उन्हें कम से अपनी फसल की उचित कीमत तो मिल सकेगी।”
सरकार का एक प्रिय वादा है कि 2022 तक किसानों की आय दुगुनी हो जाएगी। पर 2021 – 22 के बजट को देखते हुए ऐसा नहीं लगता है कि हम यह लक्ष्य पा लेंगे। कोरोना आपदा को इस कमी के लिये हम जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। लेकिन कृषि के प्रति सरकारों का यह उपेक्षा भाव तो बहुत पहले से है। सरकारों की उपेक्षा का यह चरम विंदु है, तीनो कृषिकानून, जिनका किसान विरोध कर रहे हैं। 

अब इस साल के बजट प्रावधानो पर एक नज़र डालते हैं। 

● वित्त वर्ष 2021-22 के लिए सरकार ने कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों के लिए 148,301 करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया है।  ● सरकार की फ्लैगशिप स्कीम प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के लिए 65,000 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं।  ● एक लाख करोड़ के एग्रीकल्चर इंफ्रास्टैक्चर फंड से अब कृषि उपज समितियां भी धन ले सकेंगी, इसके लिए पेट्रोल-डीज़ल पर एग्रीकल्चर डेवलममेंट सेस लगाया गया है जो 2 फ़रवरी से लागू हो गया है।  ● एक हजार और मंडियों को ENAM से जोड़ा जाएगा।  ● कृषि ऋण के लक्ष्य को बढ़ाकर 16.5 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है।

वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में सरकार की उपब्धियां गिनाते हुए कहा है कि,” वर्तमान में सरकार जो एमएसपी दे रही है वह, लागत का डेढ़ गुना है। वित्त वर्ष 2021 में गेहूं की एमएसपी को लेकर 75,000 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। जबकि धान की ख़रीद अभी जारी है और भुगतान राशि 172,752 करोड़ रुपए होने का अनुमान है। दालों की ख़रीद के बदले करीब 10,503 करोड़ रुपए किसानों को दिए जाएंगे।”

इन आंकड़ों के जरिए सरकार ने न सिर्फ यूपीए सरकार से अपनी तुलना की बल्कि यह भी जताने की कोशिश कि तीन वह कृषि क़ानूनों के संबंध में उठ रही आशंकाओं (एमएसपी बंद और मंडियां खत्म) को दूर कर रही है। लेकिन किसान संगठनों और कृषि अर्थशास्त्रियों ने इस पर सवाल उठाए हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा ने वित्तमंत्री के इस कथन पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा 

● कृषि और पशुपालन आदि मिलाकर कृषि का बजट 154 हजार करोड़ रुपए था वो घटाकर 148 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया है। यानि छह हजार करोड़ रुपए कम किया है।  ● पिछले साल सरकार ने अपने बजट का 5.1% कृषि को दिया था इस बार इसे 4.3% कर दिया है।” ● पीएम किसान योजना का बजट पिछले साल 75,000 करोड़ रुपए था जो इस बार 65,000 करोड़ रुपए है।  ● किसान को एमएसपी दिलाने के लिए जो स्कीमें हैं उनमें एमआईएस, पीएम आशा उनका भी बजट कम हुआ है।  ● एमआईएस को 20,000 करोड़ रुपए से घटाकर 15,000 करोड़ रुपए कर दिया गया है।  ● जिस एक लाख करोड़ रुपए के इंफ्रास्ट्रक्चर फंड की ज़ोर-शोर से बात हो रही है। पिछले दिनों सरकार ने उस पर सिर्फ 200 करोड़ खर्च किए और अब 900 करोड़ आवंटित किए हैं। 

किसान संगठनों ने बजट पर अपनी बात रखते हुये कहा कि, ” बात किसान की और काम उद्योगपतियों का। किसान इस आंकड़ेबाजी का जवाब देंगे।”इस बजट से सबसे अधिक निराशा गरीब किसानों को पीएम किसान निधि योजना से हुई है। लोगों को उम्मीद थी कि सरकार साल में मिलने वाले 6,000 रुपए की धनराशि बढ़ाएगी। किसान नेताओ का कहना है कि, ” जिस हिसाब से डीज़ल और पेस्टीसाइड आदि के दाम बढ़े हैं हमें लगा रहा था महीने के 500 रुपए की जगह 1,000 रुपए तो बजट में हो सकते हैं। लेकिन इस बजट में सीधे किसानों के लिए कुछ नहीं है।” बजट में कृषि क्षेत्र के इंफ्रास्टैक्टर वृद्धि पर जोर देने की बात कही गयी है, लेकिन जो छोटे किसान पीएम किसान सम्मान निधि में बढ़ोतरी की उम्मीद कर रहे थे उन्हें निराशा हुई।

कुछ और महत्वपूर्ण विंदु देखें, 

● बजट में वित्त मंत्री ने 2021-22 के लिए उर्वरक सब्सिडी 79,530 करोड़ रुपए रखी है जबकि 2020-21 के संशोधित अनुमानों में ये राशि 133,947 करोड़ रुपए थी।  ● बाजार हस्तक्षेप योजना और मूल्य समर्थन योजना यानि (MIS-PSS) का बजट 2021-22 में 1,501 करोड़ है जबकि वित्त वर्ष 2020-21 में ये बजट 2,000 करोड़ रुपए था। ● जबकि 2019-20 में ये आवंटन 2,005 करोड़ रुपए का था।  ● फसल बीमा योजना का इस बजट में आवंटन 16,000 करोड़ रुपए है जबकि 2020-21 में 15,695 करोड़ रुपए था। संशोधित अनुमानों में ये राशि 15,307 करोड़ रुपए थी।

बजट के संदर्भ में कृषि अर्थशास्त्री डॉ देविंदर  शर्मा कहते हैं, “पिछली 2 तिमाही में जिस तरह से कृषि ने ग्रोथ दिखाई है, उसे देखते हुए वित्त मंत्री से बड़ी अपेक्षा थी, लेकिन वैसा हुआ नहीं। आरबीआई के अनुसार, 2011-12 और 2017-18 के बीच, कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.4 प्रतिशत था। इसलिए पेट्रोल और डीज़ल पर सेस लगाकर एक कृषि निवेश कोष बनाने का प्रस्ताव एक स्वागत योग्य कदम है, लेकिन सबसे अच्छा तरीका यह है कि कृषि निवेश के लिए निश्चित प्रावधान करना होगा जैसे रेल, सड़क और पूँजी निवेश के लिए घोषणाएँ की जाती हैं।” बजट में एमएसपी के आंकड़ों पर देविंदर शर्मा कहते हैं, “सरकार एमएसपी पर ख़रीद की बढ़ोतरी की बात कर रही लेकिन एमएसपी तो मिलती ही 6 फीसदी किसानों को है, बाकी किसानों का क्या होगा? किसान तो सभी के लिए एमएसपी कानून की मांग की मांग कर रहे।”

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में 1,000 मंडियों को नेशनल एग्रीकल्चर मार्किट  (eNAM) जोड़ने की बात कही है। सरकार के अनुसार, देश में 1,000 मंडियां पहले से eNAM से जुड़ी हैं। केंद्रीय कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि, ” एक लाख करोड़ के एग्री इंफ्रा फंड में पहले मंडियां नहीं थी। अब मंडियां इस पैकेज से फंड लेकर अपने को मजबूत बना सकेंगी। वहां इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ें होगे, इससे किसानों को फायदा होगा।”

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश में 2,477 बड़ी एपीएमसी (कृषि उपज एंव बाजार समिति) हैं जबकि 4,843 उप एपीएमसी हैं। कृषि सुधारों के लिए यूपीए सरकार में बनाए गए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक देश में 42,000 मंडियों की जरुरत है। देविंदर शर्मा इस विषय पर कहते हैं कि, “ग्रामीण इलाकों की हाट बाजारों को अब और अधिक अनदेखा नहीं किया जा सकता है। सरकार ने तो काफी पहले 22,000 गाँव हाटों को अपग्रेड करने और उन्हें राष्ट्रीय ई मंडी नेटवर्क से जोड़ने की बात कही थी।” 

यहीं यह सवाल उठता है कि, देश के विकास के लिये हम कौन सा आर्थिक मॉडल ला रहे हैं। निश्चित रूप से 1991 के ग्लोबलाइजेशन और मुक्त व्यापार के मॉडल में कदम रखने के बाद सरकार ने उद्योगों को प्राथमिकता दी और सेवा क्षेत्र सहित अनेक क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़े और देश की तरक़्की हुयी। पर इस दौरान चाहे यूपीए की सरकार हो या एनडीए की सरकार, कृषि उपेक्षित रही। हम गोदान के होरी की पवित्र और दयनीय छवि से हट कर एक किसान की कल्पना ही नहीं करना चाहते। इसीलिए आज जब आधुनिक फास्टफूड खाता हुआ, अंग्रेजी में तमाम मुद्दों पर धाराप्रवाह बोलता हुआ, जीन्स पहनता हुआ, अपनी कमाई से महंगी गाड़ियों में घूमते हुये व्यक्ति को हम किसान ही नहीं मानते बल्कि उस पर तंज करने लगते हैं। जैसे उद्योग से सरकार किनारा कर रही है और यह बार बार कहा जा रहा है कि फैक्ट्री चलाना सरकार का काम नहीं है, उसी तरह से कल यह कहा जायेगा कि सरकार का काम अनाज खरीदना नहीं है और न ही उसकी कीमत रेगुलेट करना है। वह बाजार और किसान को आमने सामने कर देगी और अब दोनो ही अपने अपने हित को समझे औऱ निपटें। ऐसे में   संगठित और सुव्यवस्थित कॉरपोरेट ही भारी पड़ेगा और खेती किसानी का वर्तमान मॉडल जो हज़ारो साल से चला आ रहा है, कॉरपोरेट की एक सब्सिडियरी बन कर रह जायेगा। यह खतरा मैं महसूस कर रहा है। आप इससे असहमत हो सकते हैं। सरकार की मूल योजना एग्रीकल्चर के वर्तमान मॉडल को खत्म करके कॉरपोरेट को बढ़ावा देना है। कृषि से जुड़ी सारी गतिविधियां धीरे धीरे कॉरपोरेट द्वारा संचालित की जाने लगेगी। एमएसपी,  कागज पर बस एक  सुभाषित के रूप में रह जाएगी, और अधिकांश किसान श्रमिक के रूप में बदल जाएंगे। 

किसान मोर्चा ने देश की जनता और चुनाव प्रभावित राज्यों के मतदाताओं से जो अपील की है उसका संक्षिप्त अंश आप यहां पढ़ सकते हैं, 

भाजपा सरकार तीन किसान विरोधी कानून लेकर आई, जो गरीब किसानों और उपभोक्ताओं के लिए सरकार से किसी भी प्रकार के संरक्षण को समाप्त कर देते हैं, और साथ ही कॉरपोरेट और बड़े पूँजीवादियों के विस्तार की सुविधा प्रदान करते है। उन्होंने किसानों से बिना पूछे किसानों के लिए इस तरह के फैसले लिए है। ये ऐसे कानून हैं जो हमारे भविष्य के साथ-साथ हमारी आने वाली पीढ़ियों को भी नष्ट कर देंगे।

भाजपा सरकार ने इन कानूनों के खिलाफ आंदोलन शुरू करने वाले किसानों को बदनाम दिया- उन्हें राजनीतिक दलों के एजेंट के रूप में, चरमपंथियों और राष्ट्र-विरोधी के रूप में पेश किया गया और लगातार अपमान किया गया।

भाजपा सरकार के मंत्रियों ने किसान नेताओं के साथ कई दौर की बातचीत करने का दिखावा किया लेकिन वास्तव में किसानों ने जो कहा उसे ध्यान से नहीं सुना। भाजपा सरकारों ने प्रदर्शनकारी किसानों पर आंसू गैस के गोले, वाटर केनन चलाने, लाठीचार्ज करने और यहां तक ​​कि झूठे मामले दर्ज करने और निर्दोष किसानों को गिरफ्तार करने के आदेश दिए।भाजपा के सदस्य किसानों के विरोध स्थलों में किसानों पर पथराव की हिंसक घटनाओं में शामिल थे।किसानों के खिलाफ इस अपमान और हमले का जवाब देने के लिए, हम अब आपकी मदद चाहते हैं।

कुछ दिनों में, आपके राज्यों में, आप सभी राज्य विधानसभाओं के लिए अपने चुनावों में मतदान करेंगे। हम समझ चुके हैं कि मोदी सरकार संवैधानिक मूल्यों,  सत्यता, भलाई, न्याय आदि की भाषा नहीं समझती है। ये वोट, सीट और सत्ता की भाषा समझते है। आप सब में इनमें सेंध लगाने की शक्ति है।

भाजपा दक्षिणी राज्यों में अतिक्रमण करने को लेकर बहुत उत्साहित है और सहयोगी दलों के साथ मिलकर ये काम करेगी।  यह वह समय है जब असम, केरल, पांडिचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किसान सत्ता की भूखी और किसान विरोधी भाजपा को अच्छा सबक सीखा सकते हैं। भाजपा को सबक सीखना चाहिए कि भारत के किसानों के खिलाफ खुद को खड़ा करना कोई समझदारी नहीं है।  यदि आप उन्हें यह सबक सिखाने का यत्न करते हैं, तो इस पार्टी का अहंकार टूट सकता है, और हम चल रहे किसानों के आंदोलन की मांगों को इस सरकार से मनवा सकते हैं।

‘संयुक्त किसान मोर्चा’ आपको यह बताने की कोशिश नहीं करता है कि आपको किसे वोट देना चाहिए, लेकिन आपसे केवल भाजपा को वोट नहीं देने के लिए कह रहा है। हम किसी पार्टी विशेष की वकालत नहीं कर रहे हैं। हमारी केवल एक अपील है- कमल के निशान को गलती से भी वोट न दें।” 

प्रधानमंत्री जी ने संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर उत्तर देते हुए कहा कि, ” कृषि कानून लागू होने के बाद देश में न तो कोई मंडी बंद हुई, न एमएसपी बंद हुई। बल्कि ये कानून बनने के बाद एमएसपी पर खरीद बढ़ी है। मैं पूछना चाहता हूं कि पहले जो हक और व्यवस्थाएं थीं, उनमें से कुछ भी नए कानून ने छीना है क्या? “

लेकिन प्रधानमंत्री यह नही कहा कि एमएसपी का कानून बनाने में सरकार के समक्ष क्या दिक्कतें हैं। अभी कानून लागू भी कहा ढंग से हुआ है सर । कानून के पीछे छिपी कॉरपोरेट की चाल और सरकार की उनके साथ गिरोहबंदी तो किसान पहले समझ गए और उक्त कानून से उनका कितना नुकसान होने वाला है, इसे समझने के बाद ही वे सड़को पर उतरे। यह आंदोलन देश की कृषि संस्कृति, अस्मिता और अस्तित्व को बरबाद कर के मानव श्रम के अंतहीन शोषण और कॉरपोरेट के दासत्व के विरुद्ध है और यह खुशी की बात है कि संचार के अधिकांश संसाधनों पर कॉरपोरेट के कब्जे के बावजूद लोग इन कानूनो के पीछे छिपी सर्वग्रासी कॉरपोरेट की मंशा को समझने लगे हैं। यही नहीं, अब इन तीन कानूनो का सच तो, होरी टाइप किसान भी समझने लगे हैं, और यही जागृति सरकार और गिरोही पूंजीपतियों की असहजता का मूल कारण है।

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