मुख्यमंत्री ने आज विधानसभा में निंदा प्रस्ताव पास करवाया है। यह प्रस्ताव ही अपने आप में सरकार की बेबसी का प्रमाण पत्र है। सत्तारूढ़ पार्टी नैतिक साहस दिखाने में जितनी देरी करेगी जनता की नाराजगी का पारा उतनी तेज़ी से ऊपर उठेगा। फैसला अब मुख्यमंत्री और उसकी टीम को करना है।

ऋषि प्रकाश कौशिक

हरियाणा देश का इकलौता राज्य है जहाँ राजनीतिक परिस्थितियों ने लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल दी है । राजनीति शास्त्र में लोकतंत्रिक सरकार की सर्वमान्य परिभाषा यह कहती है कि सरकार जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा होती है। इसमें हर जगह जनता है; जनता ही सब कुछ है; जनता ही लोकतंत्र का आधार है। लेकिन हरियाणा में पिछले कुछ महीनों से ऐसी सरकार चल रही है जिसे जनता का समर्थन ही नहीं है। भले ही यह सरकार ‘जनता के द्वारा’ की श्रेणी में आती है यानी जनता के द्वारा यह चुनी गई है लेकिन बाकी दो श्रेणियों से बाहर  हो चुकी है। वो दो श्रेणियाँ हैं- ‘जनता की’ और ‘जनता के लिए’। इसका अर्थ है कि सरकार जनता की अपनी होनी चाहिए और जनता के लिए काम करना चाहिए।

सर्वमान्य सिद्धांत तो यह है कि सरकार में बैठे लोग जनता के लिए काम करते हैं। जनता और सरकार चला रहे नेताओं के बीच कुछ अपवाद छोड़ कर हमेशा मधुर संबंध होते हैं। जनता के साथ आपसी तालमेल से सरकार चलती है; तभी तो सरकार सही मायने में ‘जनता की’ सरकार बन पाती है और उसी स्थिति में सरकार सही अर्थों में ‘जनता के लिए’ काम कर पाती है।

क्या विडम्बना है कि हरियाणा में मुख्यमंत्री, मंत्री और सत्तारूढ़ दल के पदाधिकारी पूरी तरह जनता से कट गए हैं। लोकतंत्र का उपहास हो रहा है। जनता की अपनी कही जाने वाली सरकार से दूर हो गई है। मुख्यमंत्री समेत सत्तारूढ़ पार्टियों के नेता कई महीनों से जनता के बीच नहीं जा पा रहे हैं; जनता और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के रिश्तों में कटुता आ गई है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री समेत सरकार का कोई भी नुमाइंदा जनता के बीच नहीं जा पा रहा है। यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ जनता के लिए काम करने का मकसद लेकर सत्ता में आए नेता जनता के बीच ही नहीं जा रहे हैं। लोग उन्हें गांवों में नहीं घुसने दे रहे हैं। क्या कभी मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं ने इस पर गंभीरता से विचार किया कि आखिर जनता की नाराजगी के लिए ज़िम्मेदार कौन है; जिन लोगों ने अपना कीमती वोट देकर सत्ता की कुर्सी तक उन्हें पहुंचाया था, आज वो नाराज़ क्यों हैं। आखिर जनता की नाराज़गी को देखते हुए सरकार चला रहे नेताओं की नैतिक जिम्मेदारी क्या है। 

सरकार ने 10 मार्च को भले ही अविश्वास प्रस्ताव परास्त कर सुरक्षा कवच पहन लिया है लेकिन नैतिकता का सवाल अभी अनुत्तरित  है। इसका जवाब बीजेपी और जेजेपी के नेताओं सहित मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को देना ही चाहिए। कानूनी लड़ाई तो जीत गए लेकिन नैतिक लड़ाई में बुरी तरह परास्त हो रहे हैं। यदि नैतिक युद्ध में अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहते हैं तो मुख्यमंत्री स्वयं हल निकालें और गांवों में लोगों से रूबरू होकर उनकी नाराज़गी दूर करें। साथ ही, अपनी पार्टी और सहयोगी दल जेजेपी के विधायकों से भी कहें कि जनता के बीच जाएँ। यदि यह साहस नहीं जुटा पा रहे हैं तो वे अपनी नैतिक हार स्वीकार कर कुर्सी त्याग दें। वरना, समय आने पर जनता सिंहासन खाली करवा ही लेगी।

मुख्यमंत्री ने आज विधानसभा में निंदा प्रस्ताव पास करवाया है। यह प्रस्ताव ही अपने आप में सरकार की बेबसी का प्रमाण पत्र है। सत्तारूढ़ पार्टी नैतिक साहस दिखाने में जितनी देरी करेगी जनता की नाराजगी का पारा उतनी तेज़ी से ऊपर उठेगा। फैसला अब मुख्यमंत्री और उसकी टीम को करना है।

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