– कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता जम्मू में इकट्ठा होकर अपनी अंतरात्मा की आवाज सुना रहे हों , तो इसे क्या कहेंगे।
– पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले जी-23 कहलाने वाले नेता फिर एकजुट हुए।
– पार्टी वातानुकूलित कमरों में बैठ कर नहीं चलाई जाती ,उसके लिए जमीन पर उतर कर पसीना बहाना पड़ता है। 
– कांग्रेस नेताओं को आदत है कि जब सत्ता हाथ में आ जाती है, तो हिस्सेदारी के लिए तो फौरन लपक लेते हैं ,पर जमीन पर उतरने से बचते हैं।
–  जी 23 के नेताओं से पूछने की जरूरत है कि वे किस तरह कांग्रेस के साथ हैं, जबकि उनके सारे दांव भाजपा को लाभ दे रहे है।
– कांग्रेस तब तक मजबूत विकल्प नहीं बन सकती जब तक कि वह परिवारवाद के लांछनों से खुद को मुक्त न कर ले।
– परिवारवाद आज हर दल का कड़वा सच है
– कांग्रेस के घटते जनाधार का एक बड़ा कारण ये नेता ही रहे हैं, जिन्होंने सत्ता के गुमान में आम जनता से दूरी बनाई और इस खाली जगह को भरने का मौका अपने विरोधियों को दिया।

अशोक कुमार कौशिक

कांग्रेस पार्टी एक बार फिर अपने भीतर उठते सवालों से जूझ रही है । असंतुष्ट आवाजें उसे परेशान कर रही है । ऐसे समय में जब पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है , राजनीतिक दल अपना जनाधार बटोरने में जुटे हैं , कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता जम्मू में इकट्ठा होकर अपनी अंतरात्मा की आवाज सुना रहे हों , तो इसे क्या कहेंगे? राजनीतिक दलों के अच्छे और बुरे दिन आते रहते हैं , पर बुरे दिनों में जो नई रणनीति के साथ उठने का साहस रखते हैं , वही दुबारा कामयाबी हासिल कर पाते है । 

इस दृष्टि से कांग्रेस में लगातार हताशा नजर आ रही है । फिलहाल उसके केवल दो नेता जमीन पर उतर कर संघर्ष करते देखे जा रहे हैं और वे दोनों बिल्कुल नए हैं । राहुल गांधी चुनावी राज्य तमिलनाडु के दौरे पर हैं , तो प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में किसानों , मजदूरों , दलितों के मुद्दे उठाती रैलियां कर रही हैं । मगर  मध्यप्रदेश के एक – दो वरिष्ठ नेताओं को छोड़ कर केंद्रीय कमान संभालने वालों में से एक में भी ऊर्जा नजर नहीं आ रही । 

गांधी ग्लोबल परिवार द्वारा जम्मू कश्मीर में आयोजित एक कार्यक्रम में गुलाम नबी आजाद के अलावा कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, राज बब्बर और आनंद शर्मा सहित कई पार्टी नेता शामिल हुए। इन्होंने एक सामाजिक कार्यक्रम के मंच पर पहुंच यह स्वीकार किया कि कांग्रेस पहले से काफी कमजोर हुई है , मगर उसे मजबूत करने के लिए उन्होंने खुद जमीन पर उतरना मुनासिब नहीं समझा ? हालांकि यह पहली बार नहीं है , जब इन वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस में जान फूंकने के लिए हुंकार भरी है । पहले ये सभी नेता पार्टी को पुनर्नवा करने से संबंधित अपने सुझाव पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिख कर दे चुके हैं। उनकी नीयत में खोट नहीं देखा जा सकता , सचमुच वे कांग्रेस को फिर से ताकतवर देखना चाहते हैं?
सिर्फ सैद्धांतिक बातों से जनाधार जोड़ कर रखना संभव नहीं हो पाता मगर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता इस हकीकत को जानते हुए भी पसीना बहाने को तैयार नजर नहीं आते। जबसे वह सत्ता से बाहर हुई है , केंद्र में लोग उसी से विपक्ष की भूमिका निभाने की उम्मीद करते हैं , पर अनेक अनुकूल अवसर आने के बावजूद उसके नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे नजर आए।

दरअसल कांग्रेस नेताओं को आदत पड़ चुकी है कि जब सत्ता हाथ में आ जाती है, तो उसमें हिस्सेदारी के लिए तो फौरन लपक लेते हैं ,पर जमीन पर उतरने से बचते रहते हैं । कांग्रेस तब तक मजबूत विकल्प नहीं बन सकती जब तक कि वह परिवारवाद के लांछनों से खुद को मुक्त न कर ले। फिर इस हकीकत को उसे स्वीकार करके जमीन पर उतरना पड़ेगा कि पहले जो जिला और ब्लॉक स्तर पर उसकी इकाइयां हुआ करती थीं, अब वे लगभग ध्वस्त हो चुकी हैं, नए सिरे से उनकी बुनियाद रखनी है । इसके लिए कठोर फैसले करते हुए कांग्रेस कार्य समिति का पुनर्गठन करना होगा, जिसमें बुजुर्ग हो चली पीढ़ी की जगह ऊर्जावान नई पीढ़ी को लाना पड़ेगा। कई मौकों पर सुझाव दिए जा चुके हैं कि पुराने और नए दोनों तरह के नेतृत्व का तालमेल बना कर पार्टी का पुनर्गठन किया जाए , तो उसमें फिर से जान आ सकती है। मगर वरिष्ठ नेता अपनी जगह छोड़ने को तैयार नहीं हैं। जब तक ऊपर से नीचे तक पार्टी का पुनर्गठन नहीं होगा, उसकी जिम्मेदारियां युवा हाथों में नहीं पहुंचेगी,कांग्रेस का जमीनी आधार मजबूत होना असंभव है।

विधानसभा चुनावों के पहले कांग्रेस की अंतर्कलह एक बार फिर सामने आ गई है। या कहना चाहिए कि कांग्रेस में रह कर कांग्रेस को ख़त्म करने की कोशिशों में लगे लोग एक बार फिर पार्टी को कमज़ोर करने में जुट गए हैं। जिस तरह बिहार विधानसभा चुनाव के ऐन पहले 23 नेताओं के हस्ताक्षर वाली चिठ्ठी सोनिया गांधी को भेजी गई थी, कि कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष होना चाहिए और चुनाव होने चाहिए, वैसे ही अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले जी-23 कहलाने वाले नेता फिर एकजुट हुए।

अगस्त में सोनिया गांधी को भेजी गई चिठ्ठी में पार्टी को मजबूत करने की जो तथाकथित नेकनीयती दिखलाई गई थी, उसकी पोल तभी खुल गई, जब वह चिठ्ठी पार्टी का आंतरिक मसला न होकर सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गई। इस चिठ्ठी से परिवारवाद के नाम पर कांग्रेस को भला-बुरा कहने वालों को आलोचना के नए मौके मिले, हालांकि परिवारवाद आज हर दल का कड़वा सच है। भाजपा भी अब परिवारवाद को बढ़ाने में किसी से पीछे नहीं है।

बहरहाल, जी 23 के नेताओं ने इस बार भी कांग्रेस की कमज़ोर होती स्थिति को लेकर चिंता जतलाई, लेकिन यह चिंता पार्टी की किसी बैठक में न दिखलाकर सार्वजनिक मंच पर दिखलाई गई। जी 23 के आठ नेताओं ने जम्मू में गांधी ग्लोबल के शांति सम्मेलन में कहा कि पार्टी के मौजूदा हालात उन्हें मंजूर नहीं हैं। हालांकि ये भी कहा कि वे कांग्रेस के साथ हैं। कादर ख़ान ने अपनी किसी फिल्म में इस तरह का एक हास्य दृश्य किया है, जिसमें इशारा किसी और की ओर होता है, लेकिन सामने वाला कहता है कि मैं आपके साथ हूं। इस पर कादर ख़ान पूछते हैं कि ये कैसा साथ है। इस वक़्त आज़ाद एंड कंपनी के लोगों यानी जी 23 के नेताओं से यही पूछने की जरूरत है कि वे किस तरह कांग्रेस के साथ हैं, जबकि उनके सारे दांव भाजपा को लाभ दे रहे हैं।

बेशक कांग्रेस में इस वक्त एक पूर्णकालिक निर्वाचित अध्यक्ष की सख़्त ज़रूरत है। यह भी कड़वी सच्चाई है कि कांग्रेस की स्थिति 2014 के आम चुनावों से अधिक 2019 में बुरी हुई है। लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि इसके लिए केवल गांधी परिवार को दोषी ठहराकर बाकी वरिष्ठ कांग्रेस नेता अपनी ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते। ख़ासकर वे नेता, जिन्होंने सालों साल कांग्रेस की मज़बूत स्थिति का फायदा अपने राजनैतिक करियर को बनाने में लगाया है। 

कांग्रेस के घटते जनाधार का एक बड़ा कारण ये नेता ही रहे हैं, जिन्होंने सत्ता के गुमान में आम जनता से दूरी बनाई और इस खाली जगह को भरने का मौका अपने विरोधियों को दिया। इस तरह कांग्रेस में होकर उन्होंने विरोधियों के लाभ के लिए काम किया। एक कड़वा सच ये भी है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को भले राजनीति का नौसिखिया साबित करने की कोशिशें की जाती रही हों, लेकिन कांग्रेस के बुरे से बुरे समय में भी इन दोनों ने लगातार पार्टी के लिए काम किया, लोगों के बीच जाते रहे। कांग्रेस के कितने तथाकथित बड़े नेता आज ये काम कर रहे हैं?

अटलबिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में जब कांग्रेस हाशिए पर चली गई थी, तब सोनिया गांधी ने अनिच्छा से ही सही, लेकिन पार्टी को संभाला और लगातार दो बार सरकार उनके नेतृत्व में बनी। जब आनंद शर्मा जम्मू में कहते हैं कि हम बता सकते हैं कांग्रेस क्या है, हम बनाएंगे कांग्रेस को और इसे मज़बूत करेंगे। तब ये सवाल उठना लाजमी है कि क्या खुलेआम अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर वे कांग्रेस को मजबूत करेंगे या कोई अलग कांग्रेस बनाएंगे? 

इसी तरह कपिल सिब्बल ने कहा कि मुझे यह नहीं समझ आया कि कांग्रेस आज़ाद के अनुभव को इस्तेमाल क्यों नहीं कर रही है। वे राज्यसभा से आज़ाद की विदाई पर भी दुखी हैं। क्या श्री सिब्बल का यही मानना है कि किसी पद या सदन में रहने पर ही किसी के अनुभवों का लाभ लिया जा सकता है? इंदिरा गांधी के वक़्त से गुलाम नबी आज़ाद कांग्रेस में सक्रिय हैं और केंद्र की राजनीति का लंबा अनुभव और सुख उन्होंने लिया है। क्या अब वे महज वरिष्ठ कांग्रेस नेता होने के नाते पार्टी को अपनी सेवाएं नहीं दे सकते?

एक सवाल गुलाम नबी आज़ाद से भी है। जम्मू में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर उन्होंने कहा कि वे अपनी असलियत छिपाते नहीं हैं। उन्होंने अपने अतीत को कभी नहीं छिपाया। यानी चाय वाला कहकर मोदी ने 2014 से देश में खुद को ग़रीब और फ़कीर बताने का जो प्रचार अभियान छेड़ा था, उसमें आज़ाद भी शामिल हो गए। मोदी ने अपने चाय बेचने वाले बचपन को जिस तरह प्रचारित किया, क्या उसके राजनैतिक निहितार्थ आज़ाद नहीं समझते हैं? या दशकों की राजनीति के बाद भी वे इसकी रणनीतियों से नावाकिफ़ हैं? 

पिछले साल मार्च में ज्योतिरादित्य सिंधिया में अचानक जनसेवा का जज़्बा जगा था और इसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व और भाजपा का मंच उन्हें सर्वाधिक मुनासिब लगा था। क्या आज़ाद को भी ऐसा ही कोई आत्मज्ञान हुआ है? इस सवाल का जवाब भी शायद जल्द मिल जाए।

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