– दक्षिणपंथ ने हमारी साइकी में भीतर तक बैठा दिया कि मोदी का कोई विकल्प नहीं – कांग्रेस को ‘कामराज प्लान’ की ज़रूरत– अब ऐसे राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री है देश के की पाकिस्तान में तो उनकी दाढ़ी ने ही आग लगा दी।– आज़ादी के बाद नेहरू गांधी परिवार ने 2 लाख किमी से ज़्यादा ज़मीन भारत में जोड़ी, मोदी ने भारत की दस हज़ार एकड़ ज़मीन बांग्लादेश को दे दी।– 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी ने तिब्बत को चीन के अभिन्न अंग माना था जो कि उससे पहले कभी किसी सरकार ने नहीं माना। अशोक कुमार कौशिक “मोदी नहीं तो कौन?”-ये सवाल लोकसभा चुनावों में दक्षिणपंथियों, मोदी समर्थकों से लेकर प्रगतिशीलों को जुबान पर चढ़ा रहा। जहाँ एक ओर बड़ी संख्या में प्रगतिशील, लिबरल, वामपंथी तबका राहुल गाँधी को “मोदी की टक्कर का नेता” मानने से साफ़ इन्कार कर रहा था, वहीं दूसरी ओर बीजेपी-संघ का आईटी सेल हाथ धोकर राहुल गाँधी को निहायती बेवकूफ और नाकाबिल नेता साबित करने में लगा हुआ था। देश की मौजूदा राजनीति में राहुल गाँधी की जो छवि गढ़ी गई है, उसे भेदकर भीतर तक देखने की ज़हमत शायद कोई नहीं उठाना चाहता। दक्षिणपंथियों का तो समझ में आता है लेकिन प्रगतिशील तबके का भी उन्हें पप्पू कहकर संबोधित करना, उन्हें बेवकूफ समझना, नेता के रूप में नाकाबिल करार देना मुझे समझ नहीं आता। इनकी तरफ़ से इस प्रकार की लेबलिंग का एक बड़ा कारण जो मुझे नज़र आता है वो यह है कि दक्षिणपंथ ने हमारी साइकी में यह भीतर तक बैठा दिया है कि मोदी का कोई विकल्प नहीं हो सकता, अगर होगा तो वो भी मोदी जैसा ही होगा। विपक्ष अब किसी ऐसे नेता की खोज में निकल पड़ा जो बिल्कुल मोदी जैसा हो बस भाषा उलट बोलता हो। एक ऐसा नेता जो चिकनी चुपड़ी भाषा में ख़ूब झूठ परोसे और लोगों की तालियाँ बटोरे। तर्क पर नहीं भावनाओं पर बात करे। अपने साथ नेताओं वाला औरा लेकर घूमे। बस, कैसे भी करके मसीहा के खांचे में फिट हो जाए! अब प्रगतिशील ऐसी बातें करेंगे तो निराशा तो होगी न। मतलब, हम जनता को लोकतंत्र का मतलब समझाने निकले हैं और यहाँ तो इन्फोर्मड तबका ही इसका मतलब भूल बैठा है। अंबेडकर ना कहा करते थे कि पर्सनेलिटी कल्ट लोकतंत्र को खा जाता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम आज देख भी रहे हैं, लोग एक इंसान के पीछे इतना पगला गए हैं कि वो अगर कह दे तो लोग अपनी सांसें रोक के बैठ जाऐं, फिर चाहे जान ही क्यों ना निकल जाए! फिर भी हमें अलटरनेटिव मोदी जैसा ही चाहिए। अरे, अगर मोदी जैसा ही चाहिए तो मोदी से बेहतर कौन होगा फिर? राहुल एक परिवार से ताल्लुक ज़रूर रखते हैं लेकिन क्या एक परिवार से ताल्लुक मात्र रखना किसी के प्रति आपके जजमेंट का क्राइटेरिया हो सकता है? उनके पिता, उनकी दादी ने गंभीर, बहुत गंभीर चोटें की हैं लोकतंत्र पर लेकिन क्या इन सबके लिए इस आदमी को जिम्मेदार ठहराया जाना सही है? इनके काम पर बात कीजिए न। इनके कंडक्ट पर बात कीजिए न। गाँधी नाम देखकर ख़ारिज करना कितना सही है? राहुल को देखिए, उनके भाषण सुनिए। बड़े-बड़े झूठे वादे नहीं करेंगे। कभी अपनी कुर्सी ख़ुद ही उठा लेंगे, कभी ट्रांसलेटर को शाबासी देते दिखेंगे। कहाँ से पप्पू कर रहे हैं आप उन्हें? जितनी इस देश की एवरेज एड्युकेशन है न, उससे ज़्यादा पढ़े लिखे हैं वो, वो भी दुनिया के बेहतरीन संस्थानों से। दो चार मिम्स बना देने से, आउट आफ कंटेकस्ट वीडियो क्लिप उठाकर इंटरनेट पर “राहुल गाँधी फनी स्पीचेज़” नाम से वायरल कर देने से आपकी बेवकूफी ज़ाहिर होती है, उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कुनाल कामरा ने शायद ही कोई मौका छोड़ा होगा उन पर तंज कसने का, लेकिन जब उन्हें इंडिगो से बैन किया गया, तो राहुल उनके साथ खड़े मिले। वे बेहतरीन हिंदी नहीं बोलते, लेकिन हिंदी बोलने वाले को पूरे देश का नेता मानना इस देश में गैर हिंदी भाषी लोगों के साथ अन्याय ही होगा। वे दक्षिण भारत में लोगों से बेहतरीन तरीके से कनेक्ट कर पा रहे हैं। पार्टी में जो ख़ामियां हैं सो तो हैं ही, लेकिन पार्टी के इतर देखकर इन्हें कोई ख़ारिज कैसे कर सकता है? माना कि उनमें संगठन के चलाने का ढंग नहीं है, लेकिन जनता से कनेक्ट करने की संवेदनशीलता ज़रूर है। वे झूठ नहीं बोलते, प्रपंच नहीं रचते, हिस्टिरिया नहीं बनाते, मैस्क्युलिन भाषा का इस्तेमाल नहीं करते, विनम्र रहते हैं, विरोधियों को ख़ारिज नहीं करते। अगर हमारी राजनीति इतनी ज्यादा प्रैक्टिकल हो गई है कि ऐसे राजनेता को स्वीकार ना करे, तो निश्चित ही इस राजनीति में ही बड़ा खोट है। विडंबना देखिए सीएए-एनआरसी-एनपीआर पर मुँह पर ताला लगाने वाले केजरीवाल में सबको मसीहा नज़र आ रहा है लेकिन मुँह खोलने वाले नेता को पप्पू कहा जा रहा है। एक मुख्यमंत्री थे नरेंद्र मोदी, अब भी है लेकिन मुख्यमंत्री नही, अब वो है प्रधानमंत्री है । वो कहते थे कि पेट्रोल का दाम तो प्रधानमंत्री की उम्र जितना है,बहुत ही ज्यादा है ये तो। लोगों को भी लगा यार ये तो घोर अन्नाय है हम पर। फिर अच्छे दिनों की तलाश में नरेन्द्र मोदी को बना दिया प्रधानमंत्री। अब ऐसे राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री है देश के, की पाकिस्तान में तो उनकी दाढ़ी ने ही आग लगा दी। पाकिस्तानी भूखे मर रहे है भूखे,उनको नींद ही नही आती। चीन वाले तो चीन छोड़कर हमारे देश मे ही आ बसे। उनकी तो बहुत बुरी हालत है। अब इन सबके लिये कुछ तो करना पड़ेगा ना बॉक्सर साहब। आपको क्या फर्क पड़ना है बताओ। अरे हम तो कहते है ये भाव 500 रुपये करो यार। जैसे यहाँ भाव बढ़ेगा वैसे ही पाकिस्तान और चीन की सिटी पिट्टी गुम होगी। अब बात करते हैं नेहरू की जिसको लेकर आरएसएस और भाजपा मिथ्या बातें ज्यादा प्रचारित करती है । नेहरू याद हैं न? उनके जीते जी और मरने के बाद भी आज तक संघी मशीनरी उनके ख़िलाफ अनगिनत झूठ फैलाती है। क्यों? शायद इसलिए की नेहरू असरदार थे। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तब जम्मू कश्मीर , गोवा , दादरा नागर हवेली , दमन एंड दीव , सिक्किम , अरुणाचल प्रदेश और सियाचिन भारत का हिस्सा नहीं थे जम्मू कश्मीर को 1948 में पाकिस्तान से जंग जीतने के बाद नेहरू जी ने भारत में मिलाया । दादरा नागर हवेली को 1954 में नेहरू जी ने भारत में मिलाया । गोवा को 1961 में नेहरू जी ने भारत में मिलाया । दमन एंड दीव को 1961 में नेहरू जी ने भारत में मिलाया । अरुणाचल प्रदेश को 1972 में इंदिरा गांधी जी ने भारत में मिलाया । सिक्किम को 1975 में इंदिरा गांधी जी ने भारत में मिलाया । सियाचिन को 1985 में राजीव गांधी जी ने भारत में मिलाया । आज़ादी के बाद नेहरू गांधी परिवार ने 2 लाख किमी से ज़्यादा ज़मीन भारत माता में जोड़ी है । नेहरू गांधी परिवार के तीन व्यक्ति प्रधानमंत्री बने और तीनो ने ही भारत का विस्तार किया है । 1962 में चीन को नेहरू जी ने ज़मीन दी नहीं थी , युद्ध में हारी थी । उन्होंने घुटने नहीं टेके थे , युद्ध लड़ा था । भारतीय सेना ने कई इलाक़ों में चीन को धूल चटायी थी । रेज़ांगला की वो लड़ाई शायद ही चीन कभी भूल पाए जिसमें मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 120 अहीरों की टुकड़ी ने हज़ारों चीनी फ़ौजियों को मौत के घाट उतारकर लद्दाख़ का यह हिस्सा चीन के क़ब्ज़े से बचाया था । रेज़ांगला की इस लड़ाई में 114 भारतीय वीर शहीद हुए थे , आज वो ही चीन बिना लड़े उसी लद्दाख़ में क़ब्ज़ा कर रहा है । सियाचिन भी अटल जी चुनाव जीतने के चक्कर में गँवाने की हालत में पहुँच गए थे वो तो कारगिल वार में हमारी सेना ने क़ुर्बानी देकर वीरता का शानदार परिचय देते हुए किसी तरह से उसे बचाया था । बांग्लादेश से हुए समझौते में भी मोदी जी ने भारत की दस हज़ार एकड़ ज़मीन बांग्लादेश को दी है । मोदी जी या अटल जी की सरकार में अगर एक इंच भी ज़मीन भारत की बढ़ी हो तो कोई मुझे करेक्ट कर दे । अगली बार कोई भाजपा का नेता या कार्यकर्ता आपके सामने बोले कि नेहरू ने चीन को भारत की ज़मीन दी है तो यह आँकड़े उसके सामने ज़रूर रखिएगा और पूछिएगा कि नेहरू ने भारत का क्षेत्रफल घटाया है या बढ़ाया है ? और हां! जिन भक्तो की छाती में तिब्बत को लेकर दूध बह रहा हो तो उन्हें भी पता होना चाहिए 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी ने तिब्बत को चीन के अभिन्न अंग माना था जोकि उससे पहले कभी किसी ने नहीं माना। राहुल गाँधी अगर एक नाकाबिल नेता होेते, तो क्यों पूरी प्रोपेगेंडा मशीनरी उन्हें बेवकूफ साबित करने में इतनी मेहनत करती? दक्षिणपंथियों की प्रतिक्रियाओं से ही समझ जाना चाहिए की हमारा हथियार बहुत असरदार है और उनकी आँखों में चुभ रहा है। लेकिन प्रगतिशील पहले भी संघी प्रोपोगेंडा के चलते नेहरू को डिज़ओन करके बड़ी गलती कर चुके हैं और अभी फिर वही गलती दोहरा रहे हैं। वो कहेंगे की हमारा हथियार कुंद है तो हम उसे फेंक देंगे क्या? अगर फेंक दिया तो वो बिना लड़े ही जीत गए। इसलिए, “अगर मोदी नहीं तो कौन” का उत्तर नोन मोदी पर्सपेक्टिव से देखना है तो, राहुल गाँधी में शायद ही कोई ख़ोट नज़र आए। अगर मोदी जैसा ही कोई चाहिए तो बात अलग है। राहुल की बहुत सी वाजिब आलोचनाऐं हैे, जिन्हें बिल्कुल नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए लेकिन प्रोपेगेंडा मशीनरी के नैरेटिव को दिमाग में बैठा लेने से पहले अपने तर्कों पर उसे तौलना ज़रूरी है। -ये पिछले साल लिखा था, अब इसमें पिछले एक साल की बातें भी जोड़ लीजिए। चाहे कोरोना को लेकर चेताना हो, चाहे अर्थव्यवस्था पर बार-बार सरकार की नींद खोलने के प्रयास हो, चाहे चीन की घुसपैठ पर तीखी नज़र रखने का मामला हो या अब तीनों कृषि क़ानूनों और किसान आंदोलन पर स्टेण्ड की बात हो। राहुल बेहतर से बेहतर होते नज़र आयें हैं, वो बात अलग हैं की उनकी पार्टी ना तो रणनीतिक रूप से और ना ही संघठनात्मक रूप से कुछ ख़ास कर पा रही हैं। कांग्रेस को ‘कामराज प्लान’ की ज़रूरत हैं, कोई कामराज जैसा कांग्रेस अध्यक्ष चाहिए जो राहुल को नेहरु की तरह संघठन सम्भालने की सारी चिंताओं से मुक्त रहकर अपना काम करने का स्कोप दे सके। Post navigation पंजाब नगर निगम व नगर निकाय चुनाव में काग्रेस को मिली एकतरफा शानदार जीत : विद्रोही बसों की उचित व्यवस्था की मांग को लेकर 13 गांवो के लोगों ने महाप्रबंधक से लगाई गुहार