— संघर्ष से ही लोकतंत्र मजबूत होता है, षडयंत्रों को काटकर ही निखरता है।
— कल लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक दिन था।

अशोक कुमार कोशिक

यह बात कई बार महसूस हुई है कि दरअसल हमारी परंपराओं में लोकतंत्र नहीं है। आधुनिक लोकतंत्र मूलतः पश्चिमी विचार है। हमारी पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था स्ट्रिक्ट हैरार्की की परंपरा है। हर जगह हमने मुखिया पाए हैं, पाले हैं।

हम बच्चों को यह सिखाते हैं कि बड़ों से बहस न करें। हम सवाल-जवाब को भी बहस ही समझते हैं। घर में यदि बच्चे बड़ों से जिरह करते हैं तो हम उसे बदतमीज कहते हैं। स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी में यदि स्टूडेंट टीचर से सवाल-जवाब करता है तो टीचर उसे पसंद नहीं करते हैं।

विरोध या असहमति के लिए हमारे पारंपरिक समाज में स्पेस ही नहीं है। ऐसे में स्वतंत्रता के बाद एकाएक हमें मिला लोकतंत्र हमारे लिए सिर्फ सरकार बनाने या गिराने का एक दिन होकर रह गया है। कई साल लगे यह समझने में कि लोकतंत्र के भी संस्कार होते हैं।

यह भी कि किसी भी तरह का संस्कार एक दिन में नहीं पड़ता है। कई साल लगते हैं किसी मूल्य को संस्कार का रूप लेने में। इस लिहाज से चाहे संविधान ने हमें लोकतंत्र दिया हो लेकिन हमने लोकतंत्र को ग्रहण नहीं किया है। अब तक हमारे समाज में दिखाई नहीं देता है।

लोकतंत्र की समझ सिर्फ वोट देकर सरकारें बनाने औऱ बिगाड़ने तक ही है हमारी। जबकि लोकतंत्र एक जीवन-शैली है, विचार-पद्धति है औऱ इस लिहाज से यह सिर्फ राजनीतिक सिद्धआंत नहीं है, सामाजिक और सांस्कृतिक सिद्धांत भी है।

स्वतंत्रता के बाद बिना हमारी ट्रेनिंग हमें लोकतंत्र थमा दिया गया। स्वतंत्रता से पहले जो राजे-रजवाड़े थे, जिनके राज्य औऱ ताज दोनों चले गए तो वे नई व्यवस्था में राजा होने के लिए राजनीति में उतर आए। वही हुआ जो होना था, जीते, और सालों-साल राजनीति कर सत्ता सुख भोगा।

सुनते आए हैं कि 1975 की इमरजेंसी जनआंदोलनों से डरकर लगाई गई थी। बाद की पीढ़ी को देशव्यापी जनआंदोलन का उस तरह का अनुभव नहीं है। 1990 के मंडल विरोधी आंदोलन के बाद शायद ही देश में कोई इस तरह का जनआंदोलन हुआ हो, कम-से-कम मेरी स्मृति में तो नहीं है।

मंदिर आंदोलन विशुद्ध राजनीतिक आंदोलन था औऱ बीजेपी राजनीतिक आंदोलनों की पुरोधा है, लेकिन जनआंदोलनों की दृष्टि से हमारा लोकतांत्रिक इतिहास विपन्न है। दो महीने से किसान आंदोलन उत्साह से देख रही हूँ। हर खबर आंदोलित करती रही है।

चूँकि टीवी नहीं देख रहा हूँ, इसलिए वो लोग जो स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं, यू ट्यूब चैनल या फिर वेब पर रिपोर्टिंग कर रहे हैं उन्हें देखकर लगता है कि दरअसल हम अब लोकतंत्र की प्राइमरी में दाखिल हुए हैं। कल जो कुछ भी हुआ, जिसे लोग कह रहे हैं कि ‘यह नहीं होना चाहिए था’, वह सब भी लोकतंत्र की हमारी स्कूलिंग का हिस्सा है।

26 जनवरी को जो दिखाई दिया, और जो नहीं दिखाई दिया दोनों ही आंदोलन का हिस्सा है। यह पहली बार नहीं हुआ है कि सत्ता ने आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की है। दमन, षडयंत्र, हिंसा ये सब सत्ता का चरित्र है। इसी के साथ हमें लड़ना होगा। यह सब लोकतंत्र के सबक हैं। यह खुशी औऱ संतोष का मौका है कि हमने लोकतंत्र का नया सबक सीखा है।

संघर्ष से ही लोकतंत्र मजबूत होता है। षडयंत्रों को काटकर ही निखरता है। जश्न मनाएँ कि हमारा लोकतंत्र लड़खड़ा कर फिर से बेबी स्टेप लेने लगा है। एक दिन यह दौड़ेगा भी। कल लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक दिन था।

सरकार, किसान और उपद्रव 

मीडिया पर खबर तारी है कि  किसानो ने लाल किले पर चढ़ाई कर दी और वहां निशान साहिब का झंडा फहरा दिया ! आंदोलन की आड़ में कुछ घोर सम्प्रदायिक ताकतें अपने एजेंडे के लिए काम करने लगीं। लाल किले पर तिरंगे के अलावा कुछ भी फहराना उचित नहीं है। 

मीडिया वाला कोई यह सवाल नहीं पूछ रहा कि 26 जनवरी के दिन कोई लाल किले को छू भी नहीं सकता! बस एक बार सोचिए, गणतंत्र दिवस के मौके पर, ट्रैक्टर मार्च की पूर्व सूचना के बावजूद, कोई ऐसा करने में कामयाब हो कैसे गया? क्या कर रहे थे सुरक्षाबल? मुझे सुरक्षाबलों की काबिलियत पर कोई शक नहीं है। ये तो वो लोग हैं जो सियाचीन से लेकर जैसलमेर तक टिके रहते हैं, कभी बर्फ में तो कभी आग में। आज कमज़ोर कैसे पड़ गए? एक सवाल तो ये भी है कि तय रास्तों पर बैरिकेड्स क्यूं लगाए गए थे? आप कह रहे हैं कि  किसानो ने चढ़ाई कर दी और झंडा फहरा दिया!

किसान  क्या सरकार की शह के बिना लाल किले की तरफ जा सकते थे ? क्या जो लोग गए उनका नेतृत्व किसान नेता ही कर रहे थे  या सरकार के  नजदीक के कुछ   लोग कर रहे थे! जिस एरिया में किसानो की असल परेड निकलनी थी वहां नेट क्यों बंद कर दिए गए! किसान नेताओं के पास फीड ही नहीं  पहुंची कि असल में हो क्या रहा है! 

क्या  माजरा है कि सरकार ने किसानो की ट्रेक्टर परेड की मांग बड़ी आसानी से मान ली थी! क्या वजह है कि किसानो से बात करने का ढोंग करती सरकार और किसानो से मीठे मीठे संवाद का अभिनय करती सरकार  में राजनाथ सिंह अमित शाह नरेंदर मोदी कभी किसानो से नहीं मिले न ही उन्होंने ऐसा कोई प्रयास दिखाया कि वे किसानो की मांगो पर कोई विचार भी कर रहे हैं!

तय है कि सरकार किसान आंदोलन को derail करने की फिराक  में थी!  derail करने का दिन भी यह चुना गया कि राष्ट्रीय  अस्मिता से इसे जोड़ा जाए! लाल किले तक किसी का आना लगभग असंभव है और वहां निशान साहब का झंडा फहराया जाना भी  असंभव है। यह एक रणनीति जैसा मालूम पड़ता है क्योंकि सिखों के प्रति लोगो का  झुकाव और प्रेम बढ़ रहा था! राष्ट्रीय  ध्वज के सामने कोई भी धवज यदि रखा जाए तो पूरे देश की भावनाओं का और राष्ट्रप्रेम का दोहन अपने हिसाब से किया जा सकता है!

दो महीनों से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों ने शानदार अहिंसक आंदोलन की छवि पेश की। हालांकि, आज आंदोलन भटकता हुआ भी दिखा लेकिन जो दिखता है वो हमेशा सच नहीं होता।

बहरहाल, लाल क़िले वाली घटना के बाद क्या हुआ? कंटेंट के लिए तरस रहे सत्ता लोलुप चैनल्स को गजब का मसाला मिल गया। किसी को दंगल कि ज़मीन मिली तो किसी को DNA का पता। आंदोलन की छवि खराब हुई। कानून निर्माताओं और समर्थकों को फ़ायदा हुआ। हजारों ट्रैक्टरों पर लगे, हाथों में फहराते, बाइक पर लहराते तिरंगे से छिंटक कर ध्यान सीधा निशान साहिब वाले झंडे पर चला गया। इस पूरी घटना से अगर किसी का नुकसान हुआ है तो आंदोलन का और आंदोलन के समर्थकों का।

दिल्ली सरकार ने पूरी दिल्ली में सीसीटीवी लगवाए ही होंगे। हिंसा करने वालों को पहचानिए और साझा दीजिए। शर्मिंदा होइए थोड़ा सा कि तमाम सूचनाओं के बावजूद हिंसक घटनाओं को आप रोक नहीं पाए। लाल किले पर खालसा का झंडा फहराने वाले बीजेपी नेता दीप सिंघू है। यह व्यक्ति पिछले 2 माह से सिंधु बॉर्डर पर किसान मोर्चा के धरना स्थल से हटकर पुलिस के बैरिटेक के भीतर दिल्ली की तरफ धरना लगाए बैठा हुआ था। 25 जनवरी तक इसने खुलेआम वीडियो जारी करके एलान किया था कि वह ऐसा करेंगे, फिर सुरक्षा बल क्या कर रहे थे ? गुप्तचर विभाग कहां था? सरकार ने इस पर संज्ञान क्यों नहीं लिया?

आगे संसद सत्र है।  सरकार ने जमीन तैयार कर ली है!  आगे की लडाई में सरकार आक्रामक होती दिखाई दे रही है ।  किसान संगठनों के लिए सूझ बूझ दिखने का समय है । गोदी मीडिया कई दिन के काम पर लगा दिया गया है म

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