70 वर्षीय किसान कश्मीर के आत्म बलिदान ने किया निशब्द. अभी तक किसान आंदोलन में जा चुकी 53 की जान

फतह सिंह उजाला

वर्ष 2020 में आरंभ हुए और 2021 में प्रवेश कर चुके किसान आंदोलन को देखकर संभवत आंदोलन की व्याख्या करना भी इतना सरल नहीं होगा । कि वास्तव में आजादी के बाद आंदोलन अपने हक, हकूक, अधिकार के लिए कैसे, किस प्रकार का होता है ? संभवत आजादी के बाद की पीढ़ी ने आंदोलन देखे ही नहीं होंगे , जो भी आंदोलन देखें उनकी तस्वीर जेहन में आते ही रूह कांप उठती है ं क्योंकि शायद ही कोई ऐसा आंदोलन रहा हो जिसमें हिंसा, आगजनी, लूटपाट और न जाने कितना उपद्रव हुआं होगा। ं ंलेकिन जानकारों का मानना है कि मौजूदा किसान आंदोलन, वास्तव में आंदोलन की पराकाष्ठा है । ऐसा आंदोलन जिसमें ना कोई हिंसा, न कोई आगजनी  न ही किसी प्रकार का उपद्रव , आंदोलनकारियों के द्वारा किया गया ।

38 दिन के किसान आंदोलन में 53 जाने जा चुकी है , फिर भी मेरा देश भारत महान कहने कोई संकोच और कोई गुरेज नहीं होना चाहिए ? वर्ष 2021 के दूसरे दिन शनिवार को 70 वर्षीय किसान कश्मीर सिंह के आत्म बलिदान ने पूरी तरह से निशब्द कर दिया ।  सवाल महत्वपूर्ण यह है कि देश में मजदूर हो या फिर कोई पूंजीपति , उसकी जान अधिक कीमती है या किसी मुद्दे को लेकर कथित रूप से जिद अहमियत रखती है । लोकतंत्र की व्याख्या राजनेताओं के द्वारा ही इस प्रकार से की जाती है कि, लोकराज, लोकलाज से ही चलता है। लोकतंत्र में सीधे-सीधे लोगों की अथवा आम आदमी की हिस्सेदारी के बिना सरकार नहीं बनती।  सीधे और सरल शब्दों में सत्तासीन हुए किसी भी व्यक्ति के देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहुंचने में आम आदमी की भी बराबर की हिस्सेदारी होती है और यह हिस्सेदारी संविधान के द्वारा आम आदमी को जो सबसे बड़ा अधिकार दिया गया वह है मतदान का। क्या कोई भी इंसान अपने हक-हकूक के वास्ते आत्म बलिदान करता है शायद नही, संघर्ष या बगावत भी कर सकता है ?

यह भी आज के आंदोलन और इसमें एक के बाद एक आत्म बलिदान को देखते हुए बड़ा सवाल बनने के साथ बहस का मुद्दा हो सकता है । आज के हालात में आज की स्थिति में जब तापमान माइनस से भी नीचे जा रहा है , देश का मतदाता और अन्नदाता बरसात सहित बर्फीली रातों में खुले आसमान के नीचे अपने हक,हकूक के  साथ-साथ आने वाली पीढ़ी के लिए लंगर डाले हुए हैं । संभवत आजादी के बाद के इतिहास में 38 दिन के दौरान देश की सीमा पर भी दुश्मन देशों के साथ होने वाली झड़प में इतनी जान सीमा पर जवानों की नहीं गई होगी, जितनी जान देश की राजधानी दिल्ली की सीमा के चारों तरफ आंदोलनकारी किसानों की गई है । दूसरे शब्दों में देश की सीमा हो या फिर देश की राजधानी दिल्ली की सीमा हो । ऐसी सीमा में से देश की सीमा पर जान देने वाले अर्थात आत्म बलिदान देने वाले को गर्व के साथ शहीद कहकर पुकारा जाता है । देश की राजधानी दिल्ली की यह कैसी सीमा है ? जहां पर आत्म बलिदान दे रहे सरकार में बराबर के हिस्सेदार मतदाता और अन्नदाता के बलिदान के लिए कोई शब्द भी उपलब्ध नहीं हो रहे ? अहिंसात्मक, सौहार्द पूर्ण ,शांति प्रिय आंदोलन में अपनी जान पर खेलने वाले अर्थात आत्म बलिदान देने वाले किसानों को क्यों ना शहीद भी कहा जाए । आखिरकार सत्ता में सत्तासीन सरकार में एक वोट के माध्यम से अन्नदाता की भी बराबर की हिस्सेदारी बनी हुई है । संभवत यह बहुत कड़वी और कठोर बात है, लेकिन इसे झुठला या भी नहीं जा सकता है ।

वर्ष 2021 के दूसरे दिन शायद आसमान भी इसीलिए रो उठा कि जमीन पर एक बुजुर्ग किसान ने अपना आत्म बलिदान दे दिया , वहीं एक महिला किसान भी अपनी एक वर्ष की बच्ची को गोद में लेकर आंदोलन की भागीदार बन गई। केंद्र सरकार के द्वारा लाए गए तीन नए कृषि कानून और बिजली अध्यादेश सभी की कानूनी पेचीदग़ियों को समझने वाले किसान मतदाता और अन्नदाता कृषि के साथ-साथ अपने अनुकूल नहीं मान रहे हैं । वही केंद्र सरकार और सरकार के प्रतिनिधि मंत्री इन नए कृषि कानूनों को अन्नदाता किसान के हित में ठहराते हुए बताने की जीत पर डटे हुए हैं । वर्ष 2021 के पहले 2 दिन में ही अखिल भारतीय संयुक्त किसान मोर्चा के द्वारा 4 जनवरी सोमवार को होने वाली केंद्र सरकार के साथ बात ही से पहले अपनी आंदोलन जारी रखने की पूरी रणनीति का खुलासा सार्वजनिक कर दिया है ।

यह भी अक्सर देखा गया है कि कोई बड़ी आपदा जैसे भूकंप , बाढ़ या अन्य कोई आपदा हो । ऐसी आपदा के संकट में गलती से भी कोई एक इंसान फसा हुआ हो तो उसकी जान बचाने के लिए राज्य और केंद्र सरकार अपनी पूरी ताकत झोंक देती है । लेकिन किसान आंदोलन न तो कोई आपदा है न ही कोई बड़े संकट की घड़ी है , फिर ऐसे में भारत देश महान के मतदाता और अन्नदाता की जान सरकार की आंखों के सामने और नाक के नीचे क्यों और किन कारणों से जा रही है ? इस तथ्य पर बहुत ही गहराई और गंभीरता के साथ विचार सहित मंथन करने की जरूरत है । बहरहाल सरकार की अपनी मजबूरी हो सकती है , वही आंदोलनकारी किसानों के लिए केंद्र सरकार के कानून जरूरी नहीं बताये जा रहे है । ऐसे में केंद्र सरकार और किसान संगठनों के बीच बातचीत के लिए तय किए गए 4 जनवरी सोमवार के दिन का इंतजार करने के अलावा अन्य कोई विकल्प भी सामने दिखाई नहीं दे रहा है । बस अब तो इंतजार, इंतजार पर इंतजार ही बचा दिखाई दे रहा है।

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