कमलेश भारतीय

राजनीति और हिंसा का चोली दामन का साथ क्यों बनता जा रहा है ? यह सवाल अनेक बार उठता रह्ता है । आज पश्चिमी बंगाल की घटना सबके सामने है । भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा और कैलाश विजयवर्गीय के काफिले पर हमला होना इसके ज्वलंत प्रमाण है । वैसे भी जब से भाजपा ने पश्चिमी बंगाल को जीतने का लक्ष्य बनाया है तब से राज्य में इस तरह की हिंसक घटनाएं सामने आने लगी हैं और बढ़ती जा रही हैं । भाजपा विधायक को भी ऐसे ही मार दिया गया था और सांसद बाबुल सुप्रियो और रूपा गांगुली जैसे लोग भी हिंसा के शिकार हुए ।

भाजपा जितनी ज्यादा आक्रमक हुई उतनी ही हिंसा बढ़ी । क्या ताली एक हाथ से बजती है ? शायद दोनों कोई कमी नहीं छोड़ रहे । न भाजपा , न तृणमूल कांग्रेस । तभी तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कह रही हैं कि नड्डा फड्डा आते रहते हैं । यह एक लोकतंत्र से चुनी गयी मुख्यमंत्री की भाषा नहीं हो सकती । चाहे कितनी ही समस्याएं क्यों न आएं । एक बार तो अमित शाह भी अपना रोड शो कार्यक्रम बीच में छोड़ कर भाग निकले थे और दिल्ली जाकर बयान दिया था कि मुश्किल से जान बची । ऐसी हिसा को फिर रोकने की कोशिश क्यों नहीं की जाती?

कभी पंजाब और जम्मू कश्मीर में वोटर मुश्किल से वोट डालने निकलता था । जम्मू कश्मीर में आज भी डर है । पर कहा जाता है कि इंकलाब बंदूक की गोली से नहीं मतपेटी से निकलेगा। यह बात आमजनता ने साबित की है अनेक चुनावों में । राजनीति पर आधारित फिल्म आंधी में नेता पर हुए हमले के बाद सहानुभूति कैसे बटोरनी है , यह भी खुलकर बताया गया । राजनीति पर अनेक फिल्में बनी हैं और विवादास्पद भी रहीं । फिर चाहे आतंकवाद पर बनी माचिस हो या आंधी या किस्सा कुर्सी का जिसे रिलीज होने का सुख भी न मिला । अनुपम खेर की एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर हो या फिर उड़ता पंजाब । ये फिल्में चर्चित तो रहीं लेकिन चली नहीं । समस्याओं पर फिल्म बनाने के बाद कभी टाइमिंग चुनाव से जुड़ जाये तो फिल्म फ्लाॅप होने का खतरा ज्यादा रहता है ।

खैर , हम दुआ करें कि केंद्र चुनाव के समय और आम दिनों मे भी राजनीतिक हिंसा पर रोक लगाने के उपाय करे ।

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