उमेश जोशी

बहुत कम चुनाव होते हैं जिनमें मतदान से पहले ही हार-जीत का फैसला नज़र आने लगता है। बरोदा उपचुनाव में कुछ ऐसा ही नज़र आ रहा है। हर किसी को यह चुनाव इकतरफा दिखाई दे रहा है। वैसे चुनाव और क्रिकेट में कब बाज़ी पलट जाए, कोई नहीं जानता। दोनों में अंत तक अनिश्चय बना रहता है।  

 बरोदा उपचुनाव में पहली बार ऐसा देखने को मिला है जब सत्तारूढ़ पार्टी का मनोबल बुरी तरह टूटा हुआ नजर आ रहा है। पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले जींद उपचुनाव में सत्तारूढ़ जिस तरह घोड़े पर सवार थी आज वो घोड़ा इर्दगिर्द भी नहीं है। बरोदा से अलग अलग स्रोतों से मिली रिपोर्टों के मुताबिक फिलहाल बरोदा में बीजेपी की ज़मीन खिसक रही है। दो-तीन महीने पहले तक भूपेंद्र हुड्डा पर चुनौती के चाबुक चलाने वाले कई बड़बोले नेता आज कहीं नहीं दिख रहे हैं। कहाँ गए वो शब्द-वीर जो हुड्डा को रोजाना ललकारते थे। कुछ नेताओं ने तो यहाँ तक कहा था कि हुड्डा में हिम्मत है तो खुद बरोदा में चुनाव लड़ कर दिखाएँ। अब हालात ऐसे बन रहे हैं कि हुड्डा से निपटना तो दूर उनके कारिंदे से ही निपटना मुश्किल हो रहा है।    

दरअसल, बरोदा चुनाव में बीजेपी और काँग्रेस के उम्मीदवारों के अलावा बाकी 10 उम्मीदवार महत्त्वहीन दिख रहे हैं। एक दर्जन उम्मीदवार होने के बावजूद बीजेपी और काँग्रेस में ही सीधा मुकाबला है। इनेलो के जोगिंदर और लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी के राजकुमार सैनी इस मुकाबले को तिकोणा या चौकोणा नहीं बना पाएँगे। पिछले चुनाव में इनेलो के प्रदर्शन से कयास लागाया जा सकता है कि जोगिंदर जमानत बचा लें तो प्रदर्शन उनकी जीत के बराबर माना जाएगा। सैनी पिछली बार गोहाना से चुनाव लड़े थे। अच्छे वोट मिले थे इसलिए बरोदा में मनोबल ऊंचा है। उन्हें यह पता होना चाहिए कि बरोदा में  गोहाना जैसा राजनीतिक माहौल नहीं है। इस चुनाव में बीजेपी से नाराज़ सभी लोग काँग्रेस की छतरी के नीचे आ गए हैं।

कहने को तो यह चुनाव बीजेपी के योगेश्वर दत्त और काँग्रेस के इंदुराज नरवाल के बीच है लेकिन धरातल पर यह चुनाव मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और काँग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा के बीच हो रहा है। दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। खट्टर अपनी शैली और रणनीति से चुनाव लड़ रहे हैं। केंद्रीय नेतृत्व की दखलंदाज़ी कहीं नजर नहीं आती। चुनाव जीत गए तो खट्टर की बल्ले बल्ले और हार गए तो क्या होगा, यह खट्टर जानें। उधर, इंदुराज उर्फ भालू जीते तो हुड्डा फिर शेर हो जाएंगे।  

खट्टर अजीब मजबूरी के शिकंजे में छटपटा रहे हैं। चुनाव की घड़ी हर पल नज़दीक आ रही है लेकिन स्टार प्रचारकों की फौज बैरकों से बाहर नहीं आ रही है। खट्टर जानते हैं कि स्टार प्रचारक इलाके में पहुंचेंगे तो मजबूरन तीन कृषि बिलों की तारीफ करनी पड़ेगी और उनके हर शब्द पर मतदाता टूटेंगे। नतीजतन, हार का अंतराल बढ़ेगा और धीरे धीरे ‘शर्मनाक हार’ के जोन में पहुँच जाएँगे। धरातल पर काम करने वाले पत्रकारों का तो यहाँ तक कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद भी प्रचार के लिए उतर जाएँ तो भी पहलवान योगेश्वर दत्त को नहीं जिता पाएँगे। इस मजबूरी के कारण स्टार प्रचारकों को उतारने के बजाय प्रचार खिलाड़ी बुलाए हैं ताकि तीन कृषि बिलों की बला से बचा जा सके क्योंकि वे गैर राजनीतिक हैं इसलिए कृषि बिलों पर ना बात करेंगे और ना ही कोई उनसे अपेक्षा करेगा। 

किसानों की भारी नाराज़गी देखते हुए बार बार जीत का दावा करने वाले दुष्यंत चौटाला भी उस इलाके में घुसते हुए डर रहे हैं। दुष्यंत चौटाला भी समझते हैं कि बयानों के टॉनिक से योगेश्वर में ताकत नहीं आएगी। 2019 में  दुष्यन्त चौटाला की पार्टी जेजेपी के भूपेंद्र मलिक को 32480 वोट मिले थे। दुष्यन्त चौटाला खुद इन मतदाताओं से क्यों नहीं मिलते।

इनका समर्थन मिल गया तो योगेश्वर की जीत निश्चित है। साधारण-सा गणित है फिर भी दुष्यन्त चौटाला नहीं समझ रहे हैं और समझेंगे भी नहीं। दरअसल, 32480 मतदाताओं के गुस्से की लपटें दुष्यन्त को वहाँ जाने से रोक रही हैं। कुछ महीने पहले दुष्यन्त ने जिन मतदाताओं से बीजेपी के खिलाफ वोट मांगा था आज वे किस मुँह से बीजेपी के लिए वोट मांगेंगे। चौटाला इस लाचारी में गठबंधन धर्म ना निभाने का पाप भी ढोह रहे हैं। हाय रे! मजबूरी, खट्टर और दुष्यन्त की। यह मजबूरी योगेश्वर पर भारी पड़ेगी। 

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