लघुकथा : डा. सुरेश वशिष्ठ

सत्यकाम

सत्यकाम हिन्दी के प्रवक्ता थे। ‘संघ लोक सेवा आयोग’ से परीक्षा उत्तीर्ण कर प्राचार्य हो गए। दिल्ली महानगर के सरकारी स्कूल में प्रिंसीपल। खुशी में अघाते नहीं थकते थे। बधाईयाँ देने वालों का ताँता लग गया था। हिन्दी के अच्छे रचनाकार थे । बहुत-सी पुस्तकें भी लिख चुके थे। बुद्धिजीवियों में एक विशेष स्थान उनका था। भावुक हृदय थे। दिल से सोचना नियति बन चुकी थी, परन्तु दिल्ली के सरकारी स्कूलों का परिवेश तो ऐसा नहीं था। यहाँ तो राजनीति की बयार बह रही थी। चापलूसी, हेरा-फेरी, दबंगता और विचार रहित माहौल ! सोचा भी नहीं था कि प्राचार्य होकर यह सब झेलना पड़ेगा।

लायनवादी तो थे नहीं और आशावाद धूमिल होने लगा था। फिर भी, कुरुक्षेत्र की इस कर्मशाला में अडिग बनकर खड़े रहे। धीरे-धीरे उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो बाहर की दुनियाँ से वे दूर होते जा रहे हैं। मशीन की मानिन्द खोलकर परखे जाने लगे हैं। हालांकि उस परख में भी वे आगे ही रहे। विशेषता थी–तर्कशक्ति की और सामाजिक सौहार्द की। लोगों को साथ लेकर चलने की, इसी से अच्छे लोग उनकी इज्जत भी किया करते थे।       

 आत्मीयता भी खूब लुटाते परन्तु कुछ ऐसे भी क्षण आए जिसमें उदिग्न भी हो उठते और क्रोधित भी हो जाते । आखिर हर किसी को सन्तुष्ट करने की सामर्थ्य कब तक चल पाती?

एक दिन, विधायक का फोन भी आया और उनकेे किसी खास आदमी ने कक्ष में प्रवेश किया । प्राचार्य से उसने  कहा–‘‘नौवीं कक्षा में इन पाँच बच्चों को दाखिल करना है।’’     

 प्राचार्य सत्यकाम पूछने लगे–‘‘आठवीं कहाँ से पास की है?’’      

 ‘‘नारायण साईं स्कूल से।’’रूखेपन से जवाब मिला।      

 ‘‘वह तो मान्यता प्राप्त नहीं है। आठवीं उत्तीर्ण का सर्टिफिकेट उन्होंने कैसे दे दिया?’’      

  ‘‘उत्तर प्रदेश के किसी स्कूल से बनवाकर दिया है।’’       

‘‘ऐसा करना तो गलत कार्य है।’’       

  ‘‘सब कुछ ओरिजनल है। साईन, मोहर और स्कूल का नाम। आप एक बार देख लें।’’        

 ‘‘नहीं, मुझे नहीं देखना। मैं समझता हूँ, यह सब गलत है।’’       

  कुछ देर बातें होती रही और फिर बहस चली ।सत्यकाम ने शान्त रहने की भी कोशिश की परन्तु जवाब तो उन्हें देना ही था। दाखिले को मना कर दिया गया। बहस फिर से शुरू हो गई। विधायक का खास आदमी और परिजन उग्र होते चले गए। प्राचार्य का काम के प्रति सम्मोहन फीका पड़ता गया। उन्हें महसूस होने लगा कि यहाँ चिन्तन और मनन व्यर्थ है। समझदारी भी कहीं नहीं है। वह शख्स वर्तमान सरकार का कार्यकर्ता भी था। बहस के साथ धमकी  भी वह दे रहा था।         

 खैर ! किसी तरह उसे कक्ष से बाहर किया।        

 यहाँ परिजन सर्वेक्षण की जरूरत थी। संवाद में मिठास की जरूरत थी। प्राचार्य ने ऐसा किया भी परन्तु सामने से ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया। परिजन बोलता रहा। कड़क आवाज और फिर गाली-गलौज। सत्यकाम फिर भी नहीं बोले। उसके चले जाने के बाद आत्मनिरीक्षण उन्होंने किया। स्वयं की कोई गलती नजर नहीं आई। दूसरे दिन फिर वही किस्सा और वही बहस।       

 उस दिन एक नहीं कई लोग आए थे। वही जिद, वही बातें और वही आक्रोश। गलत तरीके से दाखिला कर लेने की पेशकश। इसमें घंटों बीत गए ।       

 दाखिला तो नहीं हुआ। परिजनों ने काफी शोर मचाया परन्तु दाखिला नहीं हुआ। उन्होंने तैश में सर्टिफिकेट को फाड़ दिया। टुकड़े-टुकडे कर प्राचार्य सत्यकाम के मुँह पर उसे दे मारा।… काँप गए सत्यकाम ! वे लोग हाथ चलाने की कोशिश में भी थे । वह सब तो हुआ नहीं, लेकिन कसर भी बाकी नहीं रही थी।       

सत्यकाम की प्राचार्य बनने की खुशी छूमन्तर होने लगी थी। अपाहिज प्राचार्य उदास और हतप्रभ शून्य में कहीं देख रहे थे।…अगले रोज, कम्पलसरी रिटायरमैंट की अर्जी दफ्तर में भिजवा दी गई ।

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