डॉo सुरेश वशिष्ठ

उसे यही याद है कि लाहौर शहर के नजदीक उसका गांव था। मुसलमानों ने उसके परिवार को बेरहमी से कत्ल कर दिया और उसकी मां को निर्वस्त्र हिंदुस्तान आती ट्रेन में बैठा दिया। मां के साथ उसे भी रहम-कर जिंदा छोड़ दिया था । उसकी बहन शब्बो को उसकी नन्हीं आंखों के सामने, हवस का शिकार बनाया और अंत में उसके अंगों को चाकू से कुतर दिया । वह बहुत छोटा था । उस कृत्य को पूरी तरह समझ नहीं पा रहा था।      

रेल में उसने देखा– सभी औरतें नंगी हैं । भयवश मां की छाती में वह दुबक गया था । मां से कुछ पूछने की कोशिश की तो माँँ ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया और कान में फुसफुसाई– “बोल मत, इनका कुछ भरोसा नहीं । तुझे और  मुझे जिंदा छोड़ दिया, यही बहुत है । अभी बोल मत ।” 

     गाड़ी चल पड़ी थी । छुक-छुक करती रेल गांव,खलिहान और नगरों को पार करती बहुत दूर निकल आई थी । अपनी छोटी-छोटी आंखों से लाशों की मंडियां देखता, खून से लथपथ शरीर और राक्षसी चेहरे आंकता हुआ, उनकी क्रूर हँसी पर दिल ही दिल में क्रोध करता हुआ,आजाद हिन्दुस्तान की सरहद तक वह आ पहुँचा ।       

 सरहद पर नंगी औरतों के हुजूम में खुशी बरसने लगी । उसकी मां भी शायद गला फाड़कर खुशी से चिल्ला उठती, किंतु– शब्बो, पिताजी, दादा-दादी और बड़े भैया की याद और उनका बेरहमी से कत्ल, मां की आंखों में छलक आया था । खिड़कियों से वस्त्र अंदर फेंक दिए गए और शरीर को ढककर लुटा-पिटा स्त्रियों का वह हुजूम अपने देश में दाखिल हुआ।        

उसने मां से पूछा–“माँँ ! शब्बो, भैया, पिताजी और दादा-दादी अब कभी नहीं आएंगे ?” तब उसने देखा– ‘मां जी-भर चींख-चींखकर रोई थी । पुत्र को छाती में भींचकर तडपी थी परन्तु कुछ बोली नहीं थी ।’ असह दर्द में माँ का बदन थरथराने लगा था।

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