भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

आज सारे हरियाणा में बरौदा उपचुनाव की चर्चा है किंतु समझ आता कि इसका सरकार के गठन पर कोई अंतर नहीं पडऩे वाला। यह केवल पार्टियों के सम्मान की लड़ाई है, मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस की। वर्तमान में भाजपा की कमान मुख्यमंत्री मनोहर लाल के पास है और कांग्रेस की कमान भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पास।

उपरोक्त स्थितियों से यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि यदि भूपेंद्र सिंह हुड्डा यह सीट जीत जाते हैं तो उनका कांग्रेस में कद बहुत बढ़ जाएगा और यह माना जा सकता है कि आगामी हरियाणा में कांग्रेस की राजनीति उनके इशारे पर ही चलेगी और इसी प्रकार मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर यदि यह चुनाव जीत जाते हैं तो जो वर्तमान में चर्चाएं चल रही हैं, उन पर विराम लग जाएगा और इस पूरे कार्यकाल में उनके मुख्यमंत्री पद पर बने रहने की संभावना पुख्ता हो जाएगी परंतु यदि मुख्यमंत्री या यूं कहें भाजपा बरौदा उपचुनाव हार जाती है तो चाहे कितने ही प्रदेश अध्यक्ष व प्रभारी हों, जिम्मेदारी मुख्यमंत्री पर ही आएगी, क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष ने अभी कार्य संभाला है। उन्हें भी कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दिखाई दे रही और पिछले लगभग छह वर्ष से मुख्यमंत्री ही संगठन और सरकार का काम संभाल रहे हैं। अत: यदि वह यह चुनाव हार जाते हैं तो उनके मुख्यमंत्री पद से बदलने की संभावनाएं प्रबल हो जाएंगी और हो सकता है कि यह उनके जीवन का आखिरी चुनाव हो।

इस समय हरियाणा की राजनीति संक्रमण के दौर से गुजर रही है। भाजपा भी बिल्कुल कांग्रेस की राह पर चल रही है। इस प्रकार कांग्रेस में कई गुट हैं, इसी प्रकार भाजपा में भी ढके-छुपे वह नजर आते हैं। अत: कहा जा सकता है कि दोनों पार्टियों की लड़ाई अपनों में छुपी हुई काली भेड़ों से बचने की होगी और इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस में हुड्डा पर और भाजपा में मनोहर लाल पर है।

भूपेंद्र सिंह हुड्डा न हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष हैं और न ही कोई ऐसा विशेष पद है, जिसके अनुसार यह कहा जा सके कि जिम्मेदारी उन पर है परंतु जो कांग्रेस की स्थितियां है और जिस प्रकार का परिदृश्य दिखाई दे रहा है, उसमें भूपेंद्र सिंह हुड्डा का वर्चस्व छाया हुआ है। वह और उनके पुत्र तथा उनके समर्थक विधायक व समर्थक कांग्रेसी बरौदा हल्के में प्रचार करते दिखाई देते हैं। अन्य कोई कांग्रेसी नेता तो वहां मुख्य रूप से दिखाई नहीं दे रहा। चाहे प्रदेश अध्यक्ष कुमारी शैलजा की बात करें या रणदीप सुरजेवाला की या फिर कुलदीप बिश्नोई, किरण चौधरी, अजय यादव। तात्पर्य यह है कि सभी नेताओं ने यह मान लिया है कि पूर्व मुख्यमंत्री हुड्डा यह सीट निकाल लेंगे या फिर वह यह देखना चाह रहे हैं कि हुड्डा इसमें असफल हों तो हुड्डा का वर्चस्व समाप्त हो और किसी अन्य का नंबर आए।

इसी प्रकार भाजपा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल है। अत: उनकी जिम्मेदारी पड़ती है। उनके साथ प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़, विधानसभा प्रभारी एवं कृषि मंत्री जेपी दलाल, संजय भाटिया व अन्य भाजपा कार्यकर्ताओं की पूरी फौज दिखाई देती है। धन, सामथ्र्य, सत्ता का लाभ यह सब मनोहर लाल को मिलना तय है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि बाजी उनके हाथ रहेगी लेकिन वास्तविकता कुछ विपरीत नजर आती है। उनके प्रभारी, मंत्री जब हल्के में प्रचार करने जाते हैं तो उन्हें विरोध का सामना करना पड़ता है। और फिर जो बात भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ हुई कि अनेक कांग्रेसी उनका साथ नहीं दे रहे, ऐसा ही कुछ भाजपा में भी नजर आ रहा है। भाजपा के दो मंत्री चुनाव हारे थे, वह अधिकांश मुख्यमंत्री से नाराज नजर आते हैं और सूत्रों के हवाले से समाचार यह भी है कि मुख्यमंत्री से मंत्रीमंडल और संगठन में भी अनेक वरिष्ठ कार्यकर्ता नाराज चल रहे हैं। अत: उनकी भूमिका संदिग्ध रहेगी कि क्या वह दिल से प्रयास करेंगे चुनाव जिताने का या फिर हाइकमान अर्थात मोदी-नड्डा या फिर हाइकमान के दबाव के चलते अपनी ड्यूटी पूरी करने की सोच रखेंगे। जैसा कि ऊपर लिखा था कि कांग्रेस की राह पर भाजपा है, उसका तात्पर्य यही था कि भाजपा में भी इस समय कांग्रेस से अधिक गुट बने हुए हैं।

राजनीति में कब क्या हो जाए इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होता है परंतु राजनैतिक चर्चाकारों के अनुसार वर्तमान में बरौदा उपचुनाव में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के मध्य ही होने वाला है।

दोनों ही दलों के पास कठिनाइयों के अंबार हैं। अभी चुनाव की तारीखें तय हुई हैं, उम्मीदवारों के नाम नहीं और उम्मीदवारों के नाम तय करने में दोनों ही दलों को पसीना आना तय है। वैसे माना जाता है कि कांग्रेस में भूपेंद्र सिंह हुड्डा अपनी मर्जी से अपना उम्मीदवार चुनाव में उतारेंगे, जबकि भाजपा के बारे में तो यह तय है कि उनके उम्मीदवार का निर्णय भी राष्ट्रीय अध्यक्ष, प्रदेश अध्यक्ष, मुख्यमंत्री व अन्य कोई नेता भी हो सकते हैं, उनकी मंत्रणा के बाद ही होगा।

ऐसे में बरौदा के पत्रकारों का कहना है कि दोनों पार्टियों से कुछ लोगों का पार्टी छोडऩे का निर्णय भी आ सकता है और दोनों पार्टियां एक-दूसरे गढ़ में निर्दलीय उम्मीदवार उतारने के प्रयासों में लगी हुई हैं।

सरकार गठन में महत्वहीन चुनाव इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि आने वाली हरियाणा की राजनीति की दशा और दिशा तय करेगा। वर्तमान में भाजपा के विरूद्ध जो माहौल हरियाणा में दिखाई दे रहा है, किसान, व्यापारी, कर्मचारी, वे सब सरकार के विरूद्ध दिखाई दे ही रहे हैं। पिछले दो दिनों से दलित वर्ग भी हाथरस कांड के कारण सरकार के विरूद्ध हो रहा है। ऐसे में कहा जा सकता है कि भाजपा के लिए राहें कठिन हैं। लोगों की जबान नहीं पकड़ी जा सकती लेकिन सुननी तो पड़ती है और सुनने में यह आ रहा है कि कहीं भाजपा को अपनी जमानत बचाना भारी न पड़ जाए।