शहीद-ए-आजम भगत सिंह की 27 या 28 सितंबर को 113वीं जयंती पर विशेष:

युद्धवीर सिंह लांबा, दिल्ली टेक्निकल कैंपस, बहादुरगढ़

युद्धवीर सिंह लांबा
‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा’

1916 में कवि जगदंबा प्रसाद मिश्र द्वारा देशभक्ति की लिखी कविता की ये पंक्तियां देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरू के लिए बेमानी साबित हो रही हैं। 27 या 28 सितंबर को शहीद-ए-आजम भगत सिंह की 113वीं जयंती है। बडे़ दुख की बात है कि 15 अगस्त 2020 को देश की आजादी को 74 साल हो चुके हैं, लेकिन देश के लिए मर मिटने वाले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को आज तक शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है ।

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग-ए-आजादी में,
शहीद-ए-आजम भगत सिंह जी हुये थे कुर्बान ।
लकिन देश की आज़ादी के 74 साल के बाद भी,
नहीं मिला भगत सिंह जी को शहीद का सम्मान ।।

भगत सिंह को जो अंग्रेज मानते थे, आजादी के सात दशकों के बाद भारत के सरकारी रिकॉर्ड में आज भी वही स्थिति है। देश का दुर्भाग्य है कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को शहीद का दर्जा दिलाने के लिए उनके परिजनों को भूख हड़ताल करनीं पड़ रही है। शहीद का दर्जा दिलवाने के लिए उनके परिजनों को सड़कों पर धक्के खाने पड़ रहे हैं। सितंबर 2016 में इसी मांग को लेकर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के वंशज जलियांवाला बाग से इंडिया गेट तक शहीद सम्मान जागृति यात्रा निकाल चुके हैं । भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने देश के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी लेकिन सरकारों की तरफ से उचित सम्मान आजतक नहीं मिल पाया है जोकि अत्यंत शर्मनाक, दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है।

शहीद भगत सिंह के प्रपौत्र यदवेंद्र सिंह ने अप्रैल 2013 में आरटीआई के जरिए भारत के गृह मंत्रालय से पूछा था कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को कब शहीद का दर्जा दिया गया था। और अगर ऐसा अब तक नहीं हुआ, तो सरकार उन्हें यह दर्जा देने के लिए क्या कदम उठा रही है? मई, 2013 में भारत के गृह मंत्रालय के लोक सूचना अधिकारी श्यामलाल मोहन ने जवाब दिया कि मंत्रालय के पास यह बताने वाला कोई रिकॉर्ड नहीं कि इन तीनों क्रांतिकारियों को कब शहीद का दर्जा दिया गया।

इससे बड़ा देश का कोई दुर्भाग्य नहीं हो सकता है कि आज शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को आतंकवादी कहा जा रहा है तथा स्कूलों एवं विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में भी आतंकवादी पढ़ाया जा रहा है। वर्ष 2007 में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा – मुख्य परीक्षा की सामान्य अध्ययन के प्रश्नपत्र में प्रश्न पूछा गया था कि ‘स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष के उद्देश्यों को, भगत सिंह द्वारा निरूपित क्रांतिकारी आतंकवाद के योगदान का मूल्यांकन कीजिए’।

दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही ‘स्वतंत्रता के लिए भारत का संघर्ष’ शीषर्क से लिखी एक पुस्तक के 20वें अध्याय में भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सूर्य सेन और अन्य को ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ बताया गया है। यह पुस्तक दो दशकों से अधिक समय से डीयू के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है। इस पुस्तक का पहला संस्करण 1990 में प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक मशहूर इतिहासकार बिपिन चंद्र, मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी व सुचेता महाजन ने मिलकर लिखी है।

भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को (कुछ विद्वानों के अनुसार 28 सितम्बर) फैसलाबाद जिले के बंगा गांव में किशन सिंह और माता विद्यावती के घर हुआ था। भगत सिंह पंजाब के लायलपुर के जिस बंगा गांव में पैदा हुए वह अब पाकिस्तान में है, जो अब फैसलाबाद कहलाता है। भगत सिंह को 19 साल की उम्र में विवाह के बंधन में बांधने का प्रयास किया गया तो वह घर से भाग गए और अपने पीछे अपने माता- पिता के लिए एक पत्र छोड़ गए जिसमें लिखा था, ‘‘मेरा जीवन एक महान उद्देश्य के लिए समर्पित है और वह उद्देश्य देश की आजादी है। इसलिये मुझे तब तक चैन नहीं है। ना ही मेरी ऐसी को सांसारिक सुख की इच्छा है जो मुझे ललचा सके।’’

1928 में साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन करने वालों पर अंग्रेज सरकार ने लाठीचार्ज करवा दिया था, जिसमें लाला लाजपत राय की मौत हो गई। इस लाठीचार्ज के जिम्मेदार पुलिस अफसर जॉन सांडर्स को 17 दिसंबर 1928 को राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह ने गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया था।

8 अप्रैल, 1929 को ब्रिटिश सरकार की ओर से दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा में सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक और व्यापार विवाद विधेयक पेश होने के दौरान भगत सिंह और बीके दत्त ने बम फेंका था। दोनों चाहते तो भाग सकते थे, लेकिन दोनों ने आत्मसमर्पण कर दिया ।

भगत सिंह जी को फांसी की सज़ा मिलने के बाद कानपुर से निकलने वाले ‘प्रताप’ और इलाहाबाद से छपने वाले ‘भविष्य’ जैसे अखबारों ने उनके नाम से पहले शहीद-ए-आजम लिखना शुरू कर दिया था ।

23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरू को फांसी पर लटका दिया था। देश में तीनों की फांसी को लेकर जिस तरह से लोग प्रदर्शन और विरोध कर रहे थे, अंग्रेज सरकार डर गई थी। तीनों सपूतों को फांसी 24 मार्च 1931 की सुबह दी जानी थी, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने नियमों को दरकिनार कर एक रात पहले ही तीनों क्रांतिकारियों को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर चढ़ा दिया ।

मेरा (युद्धवीर सिंह लांबा, धारौली, झज्जर) मानना है कि आजादी के बाद भारत देश में बहुत सी सरकारें आई और गई मगर किसी ने भी भगत सिंह को शहीद का दर्जा नहीं दिया, लेकिन अब सरकार को चाहिए कि वह अविलंब सरकारी रिकॉर्ड में वतन पर अपनी जान न्योछावर करने वाले भगत सिंह के साथ – साथ सुखदेव और राजगुरु को भी शहीद का दर्जा दे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी मिलने के बाद भगत सिंह के साथ साथ सुखदेव और राजगुरु को भी शहीद घोषित करने से सरकारें परहेज कर रही हैं।

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