डा. सुरेश वशिष्ठ

बादलों की विस्फोटक गड़गड़ाहट से सुरेशानन्द की  तंद्रा  टूटी । अतीत की यादों से बाहर निकले सुरेशानन्द ! बरसात की नुपूर-ध्वनि कानों में पड़ी तो संगीत की अनोखी तान मन को उद्वेलित करने लगी । श्वेता उनकी जरूरत थी । जिस रोज वह उदास दिखती, सुरेेेशानन्द को उस दिन अधूरेपन का एहसास घेरने लगता था ।        

 सुरेशानन्द खिड़की तक गए । रिम-झिम बरसती बूँदों को निहारा । आनन्द में विभोर होने का प्रयास भी किया ।ऐसा कर वे अतीत को भुलाने का प्रयत्न कर रहे थे । कुछ क्षण वहीं खड़े रहकर वे संगीत की उस अनोखी और प्राकृत तान का मजा लूटना चाहते थे, परन्तु अथक प्रयास के बाद भी रह-रह कर श्वेता की यादों को दिल से निकाल नहीं सके ।उसकी यादें दिल में धमकने लगी थी ।

        आज वह भुलाए नहीं भूली जा रही थी । उसे याद हो आया था कि श्वेता ने एक दिन उससे कहा था–“मेरी शोभास्थली तुम्हारी चाहत का केंद्र है सुरेशानन्द ?”     

 “नहीं, तुम गलत सोचती हो ।”     

  “बिल्कुल ऐसा ही है । जिस दिन मेरा रूप-लावण्य गया, तुम उस दिन मुझे अपने से दूर कर दोगे ।” सुरेशानन्द कुछ नहीं बोले थे । ऐसी प्रतिक्रियाओं पर वे कोई बहस भी मुनासिब नहीं समझते थे । प्यार भरी नजरों से उन्होंने प्रियतमा को निहारा और चुपचाप वहां से चले गए ।       

समय बीतता रहा । कोमलांगी श्वेता अपने चंचल तन और तीखी मुस्कान से उन्हें मोहित और आकर्षित करती रही । खिलखिलाकर झूम बिखराती और रिझाती रही । सुरेशानन्द अविचलित मौन धारण किए रहे और मंद मुस्कुराते भी रहे ।     

 प्रकृति प्रदत स्वभाव में सुरेशानन्द सामयिक परिवेश को जीना चाहते थे । जीवन चलता रहा । समय ने दौड़ लगाई और वर्षों बीत गए ।     

 किसी सड़क दुर्घटना में एक दिन श्वेता जख्मी हो गई । चोट ज्यादा थी । हालत बिगड़ने लगी थी । लकवाग्रस्त होकर बिस्तर पर पड गई थी ।…और तब आठ वर्ष का अंतराल बीत गया । सुरेशानन्द ने कोई तकलीफ उसे नहीं होने दी । उसका हर क्षण ख्याल रखा ।     

 अंत समय श्वेता के नेत्रों से भावों का सौंदर्य छलक पडा । वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी । इशारों से बतियाना चाह रही थी, परंतु संभव नहीं हो सका । अविरल अश्रुधारा के बीच से सुरेशानन्द ने अपनी प्रिय की आंखों में झांका ।प्यार और दुलार परोसा । सहलाया और प्रीत छलकाई ।     

 तब, श्वेता के अंतर से पीडाबोध चीख पडा । शब्दहीन पीडा फफक-फफक कह उठी– “कामभोग के लिए मेरे शोभास्थल, मेरे शरीर के समस्त अंग और उत्सभोग– आपके आत्मप्रेम के समक्ष तुच्छ हैं । सौन्दर्य आत्मा है और शरीर इच्छा ! सुन्दरतम और चाहत की तुम्हारी परिभाषा ही सत्य है, अटूट है ।”     

 आत्मा जब कोमलांगी के शरीर से दूर हुई, तब जी-भर  रोए थे सुरेशानन्द ! उनका रूदन चहूँ दिशाओं में फैलने लगा था । अनंत लोक से उनकी प्यारी प्रियतमा श्वेता की सिसकन भी बहुत देर तक स्पन्दन बन सुनाई पड़ती रही थी ।

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